महाकवि तुलसीदास जी का जन्म सम्वत् 1589 श्रावण शुक्ल 07 अर्थात सन् 1534 ई में हुआ था। तुलसीदास ने सांसारिक बन्धन से विरक्त होकर वैराग्य धारण कर राम धुन में लीन, धार्मिक, तीर्थस्थलों का भ्रमण करने निकल पडे। पूजा पाठ, ध्यान - धर्म तथा अराधना में लीन राममय होकर भ्रमण करते हुए सन् 1593 में अयोध्या पहुंच गये। रामभक्तिमय तुलसीदास जी की दिनचर्या यही थी कि प्रतिदिन भोर में ही सरजू तट पर पहुंचना, राम का ध्यान लगाना, जप - तप करना इत्यादि।
उसी तट पर एक तपस्वी महासन्त समाधिस्थ रहते थे। तुलसीदास जी प्रतिदिन उस समाधिस्थ सन्त को दूर से ही साष्टांग दण्डवत कर उस सन्त का अभिवादन करते थे।समाधिस्थ सन्त के प्रति श्रध्दा और भक्ति से ओत - प्रोत अपने मन में उनसे साक्षात्कार करने, आर्शीवाद लेने और ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लिये तुलसीदास जी वापस चले जाया करते थे। एक दिन वह शुभघडी आ ही गई। समाधिस्थ सन्त समाधि से बाहर आये। तपस्वी संत को अपने समक्ष देखते ही तुलसीदास जी ने साष्टांग दण्डवत किया। तपस्वी संत ने तुलसीदास को देखकर मन ही मन पहचान लिया कि प्रभु ने सही व्यक्ति को मेरे पास भेज दिया है। तपस्वी सन्त ने तुलसीदास को अपने हाथों उठाया। आर्शीवाद दिया और संकेत किया, मेरे साथ आओ। अपनी कुटिया में तुलसीदास को अपने साथ लेकर पहुँचे। उस कुटिया में राम की मूर्ति के अलावा मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं और कमण्डल को फूलों से सजा कर रखा हुआ था। तपस्वी महासन्त ने तुलसीदास से कहा कि, '' ये मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं और कमण्डल सभी कुछ तुमको सौंपता हू/। तुम वास्तव में दिव्य श्रीराम के उपासक हो इसीलिये प्रभु राम ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। इन मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं और कमण्डल को कोई सामान्य वस्तु न समझना, यह सभी प्रभुराम के स्मृति चिन्ह हैं। यह धनुष - बाण कभी प्रभुराम के करकमलों में रह चुका है। इन खडाऊं और कमण्डल को प्रभु राम के स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त है। यह मुकुट श्रीराम के सिर को संवार चुका है। प्रभु के आदेश से ही तुम यहाँ पधारे हो। जब तक तुम रामलीला नहीं लिखोगे मुझे शान्ति नहीं मिलेगी। मैं इस जीवन से थक चुका हूँ। इन स्मृति चिन्हों तथा अमूल्य धरोहर को उचित स्थान, उचित सन्त, रामभक्त को समर्पित करने की प्रतीक्षा में ही मैं समाधिस्थ रहता था। यह दिव्य श्री राम का उपहार है। इस धरोहर तथा अमूल्य सम्पत्ति को लेकर तुम काशी जाओ। वहीं निवास करो। वहीं श्री राम की अराधना करो। श्रीराम के जन्म से लेकर अन्त तक की सम्पूर्ण घटनाएं साक्षात तुम्हारे मानसपटल पर अंकित हो जायेंगी। तुमसे रामभक्त को तुम्हारे अपने राम मिल जायेंगे। तुम्हारे हाथों एक नई रामायण लिखी जायेगी, तुम्हारी ही सरल लेखनी से रामलीला लिखी जायेगी जो जन जन तक पहुंचेगी, तथा रामलीला के नाम से विख्यात होगी।''
संत तुलसीदास के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। तुलसीदास महासन्त के चरणों में गिर गये और साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और आज्ञाकारी शिष्य के रूप में कुछ दिन उन महासन्त की छाया में रहने की अनुमति प्राप्त करने हेतु करबध्द स्वीकृति मांगी। महासन्त की शिक्षा - दीक्षा ने मानो तुलसीदास जी के मन के नेत्र खोल दिये। गुरुज्ञान प्राप्त करने के पश्चात, गुरु का आदेश पाकर वे काशी के लिये चल पडे। साथ में राम, मन में राम, राम की स्मृति राम ही राम।
सन् 1595 में तुलसीदास जी ने महासन्त की आज्ञा के अनुसार काशी पहुंच कर अस्सीघाट पर स्थापित होकर रहने लगे। रात्रि प्रहर में देखे गये स्वप्न, प्रात: उनकी लेखनी को रामकथा लिखने की प्रेरणा देने लगे। रामचरितमानस का लेखन आरम्भ हो गया। सन् 1618 - 19 में यह पवित्र ग्रंथ पूरा हो गया। सन्त तुलसीदास जी दिव्य उपस्करों ( मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं, कमण्डल) को अपने साथ लेकर, अपने कुछ शिष्यों के साथ नाव में बैठकर, तत्कालीन काशी नरेश से मिलने रामनगर गये। काशी नरेश जी सन्त तुलसीदास जी से मिलकर प्रसन्न व श्रध्दा से भावविभोर हो गये। अपने सिंहासन से उठकर तुलसीदास जी का सम्मान किया तथा रामलीला करवाने का संकल्प किया।
सन् 1621 ई में सर्वप्रथम अस्सीघाट पर नाटक के रूप में सन्त तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के रूप में रामलीला का विमोचन किया। उसके बाद काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला करवाने के लिये वृहद क्षेत्र में लंका, चित्रकूट, अरण्यम् वन की रूपरेखा बडे मंच पर अंकित करवा कर रामलीला की भव्य प्रस्तुती करवाई। प्रतिवर्ष संशोधन के साथ रामलीला होने लगी। रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है। रामलीला का अंतिम दिन क्वार (आश्विन) माह में दशहरा का दिन होता है। तभी से इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता है। जिसे बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना है।
सन् 1626 ई में महाकवि सन्त तुलसीदास जी ब्रह्मलीन हो गये। तुलसीदास जी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर को राममय करके विश्व का श्रेष्ठतम रामलीला स्थल बना दिया है। जहाँ आज भी रामनगर की रामलीला विश्वभर में प्रसिध्द है। आज भी वह दिव्य उपस्कर ( मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं, कमण्डल) महाराज काशी के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में सुरक्षित हैं। वर्ष में सिर्फ एक बार भरत मिलाप के दिन प्रभु राम के मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं, कमण्डल प्रयोग में लाये जाते हैं। तभी भरत मिलाप अद्वीतिय मना जाता है। इस रामलीला को देखने के लिये देश विदेश के पर्यटक रामनगर
(वाराणासी) आते हैं।
- एम पी अस्थाना(वाराणासी) आते हैं।
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