Sunday, September 6, 2009

विश्व की प्रथम रामलीला

महाकवि तुलसीदास जी का जन्म सम्वत् 1589 श्रावण शुक्ल 07 अर्थात सन् 1534 ई में हुआ थातुलसीदास ने सांसारिक बन्धन से विरक्त होकर वैराग्य धारण कर राम धुन में लीन, धार्मिक, तीर्थस्थलों का भ्रमण करने निकल पडेपूजा पाठ, ध्यान - धर्म तथा अराधना में लीन राममय होकर भ्रमण करते हुए सन् 1593 में अयोध्या पहुंच गयेरामभक्तिमय तुलसीदास जी की दिनचर्या यही थी कि प्रतिदिन भोर में ही सरजू तट पर पहुंचना, राम का ध्यान लगाना, जप - तप करना इत्यादि
उसी तट पर एक तपस्वी महासन्त समाधिस्थ रहते थेतुलसीदास जी प्रतिदिन उस समाधिस्थ सन्त को दूर से ही साष्टांग दण्डवत कर उस सन्त का अभिवादन करते थेसमाधिस्थ सन्त के प्रति श्रध्दा और भक्ति से ओत - प्रोत अपने मन में उनसे साक्षात्कार करने, आर्शीवाद लेने और ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लिये तुलसीदास जी वापस चले जाया करते थेएक दिन वह शुभघडी ही गईसमाधिस्थ सन्त समाधि से बाहर आयेतपस्वी संत को अपने समक्ष देखते ही तुलसीदास जी ने साष्टांग दण्डवत किया तपस्वी संत ने तुलसीदास को देखकर मन ही मन पहचान लिया कि प्रभु ने सही व्यक्ति को मेरे पास भेज दिया हैतपस्वी सन्त ने तुलसीदास को अपने हाथों उठायाआर्शीवाद दिया और संकेत किया, मेरे साथ आओअपनी कुटिया में तुलसीदास को अपने साथ लेकर पहुँचेउस कुटिया में राम की मूर्ति के अलावा मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं और कमण्डल को फूलों से सजा कर रखा हुआ थातपस्वी महासन्त ने तुलसीदास से कहा कि, '' ये मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं और कमण्डल सभी कुछ तुमको सौंपता हू/तुम वास्तव में दिव्य श्रीराम के उपासक हो इसीलिये प्रभु राम ने तुम्हें मेरे पास भेजा हैइन मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं और कमण्डल को कोई सामान्य वस्तु न समझना, यह सभी प्रभुराम के स्मृति चिन्ह हैंयह धनुष - बाण कभी प्रभुराम के करकमलों में रह चुका हैइन खडाऊं और कमण्डल को प्रभु राम के स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त हैयह मुकुट श्रीराम के सिर को संवार चुका हैप्रभु के आदेश से ही तुम यहाँ पधारे होजब तक तुम रामलीला नहीं लिखोगे मुझे शान्ति नहीं मिलेगीमैं इस जीवन से थक चुका हूँइन स्मृति चिन्हों तथा अमूल्य धरोहर को उचित स्थान, उचित सन्त, रामभक्त को समर्पित करने की प्रतीक्षा में ही मैं समाधिस्थ रहता थायह दिव्य श्री राम का उपहार हैइस धरोहर तथा अमूल्य सम्पत्ति को लेकर तुम काशी जाओवहीं निवास करोवहीं श्री राम की अराधना करोश्रीराम के जन्म से लेकर अन्त तक की सम्पूर्ण घटनाएं साक्षात तुम्हारे मानसपटल पर अंकित हो जायेंगीतुमसे रामभक्त को तुम्हारे अपने राम मिल जायेंगेतुम्हारे हाथों एक नई रामायण लिखी जायेगी, तुम्हारी ही सरल लेखनी से रामलीला लिखी जायेगी जो जन जन तक पहुंचेगी, तथा रामलीला के नाम से विख्यात होगी''
संत तुलसीदास के नेत्रों से अश्रुधारा बह चलीतुलसीदास महासन्त के चरणों में गिर गये और साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और आज्ञाकारी शिष्य के रूप में कुछ दिन उन महासन्त की छाया में रहने की अनुमति प्राप्त करने हेतु करबध्द स्वीकृति मांगीमहासन्त की शिक्षा - दीक्षा ने मानो तुलसीदास जी के मन के नेत्र खोल दियेगुरुज्ञान प्राप्त करने के पश्चात, गुरु का आदेश पाकर वे काशी के लिये चल पडेसाथ में राम, मन में राम, राम की स्मृति राम ही राम
सन् 1595 में तुलसीदास जी ने महासन्त की आज्ञा के अनुसार काशी पहुंच कर अस्सीघाट पर स्थापित होकर रहने लगेरात्रि प्रहर में देखे गये स्वप्न, प्रात: उनकी लेखनी को रामकथा लिखने की प्रेरणा देने लगेरामचरितमानस का लेखन आरम्भ हो गयासन् 1618 - 19 में यह पवित्र ग्रंथ पूरा हो गयासन्त तुलसीदास जी दिव्य उपस्करों ( मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं, कमण्डल) को अपने साथ लेकर, अपने कुछ शिष्यों के साथ नाव में बैठकर, तत्कालीन काशी नरेश से मिलने रामनगर गयेकाशी नरेश जी सन्त तुलसीदास जी से मिलकर प्रसन्न व श्रध्दा से भावविभोर हो गयेअपने सिंहासन से उठकर तुलसीदास जी का सम्मान किया तथा रामलीला करवाने का संकल्प किया
सन् 1621 ई में सर्वप्रथम अस्सीघाट पर नाटक के रूप में सन्त तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के रूप में रामलीला का विमोचन कियाउसके बाद काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला करवाने के लिये वृहद क्षेत्र में लंका, चित्रकूट, अरण्यम् वन की रूपरेखा बडे मंच पर अंकित करवा कर रामलीला की भव्य प्रस्तुती करवाईप्रतिवर्ष संशोधन के साथ रामलीला होने लगीरामलीला 22 दिनों में पूरी होती हैरामलीला का अंतिम दिन क्वार (आश्विन) माह में दशहरा का दिन होता हैतभी से इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता हैजिसे बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना है
सन् 1626 ई में महाकवि सन्त तुलसीदास जी ब्रह्मलीन हो गयेतुलसीदास जी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर को राममय करके विश्व का श्रेष्ठतम रामलीला स्थल बना दिया हैहाँ आज भी रामनगर की रामलीला विश्वभर में प्रसिध्द हैआज भी वह दिव्य उपस्कर ( मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं, कमण्डल) महाराज काशी के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में सुरक्षित हैंवर्ष में सिर्फ एक बार भरत मिलाप के दिन प्रभु राम के मुकुट, धनुष - बाण, खडाऊं, कमण्डल प्रयोग में लाये जाते हैंतभी भरत मिलाप अद्वीतिय मना जाता हैइस रामलीला को देखने के लिये देश विदेश के पर्यटक रामनगर
(वाराणासी) आते हैं
- एम पी अस्थाना

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