ज्ञानी कहते हैं कि मानव का सर्वप्रथम कर्तव्य धर्म का पालन करना है।बाकी सब कर्तव्य उसके बाद आते हैं।उन्होंने धर्म का पालन न करने वाले मानव को,अमानव का दर्जा दे दिया।लेकिन उन्होंने इसके साथ यह भी कहा कि इसके बावजूद भी, नीच से नीच मानव को भी अपनी इच्छा अनुसार जीने का पूर्ण अधिकार, पूरी आज़ादी है।बेशर्ते कि वह समाज में गंदगी न फैलाए,उपद्रव न मचाए।
जिस समाज में हम रहते हैं, वहां हर मानव दूसरे मानव से अलग है।बौध्दिक तौर पर और गुणों के लिहाज से।हर मानव का, हर मानव को पसंद करना असंभव है। क्योंकि उनके रहने सहने में फर्क है।उनके खान पान में फर्क है।उनके सोचने समझने में फर्क है।उनकी पसंद नापसंद में फर्क है।इसके बावज़ूद भी हमें एक ही समाज में, बिना किसीको नुकसान पहुंचाए रहना है और जीना है।यही कसौटी है धर्म की।यही परीक्षा है मानव की।और इसीसे तय होता है कि कौण कितना महान है।कौण किस मकाम पर है।कौण किस स्तर का है।इसीसे परखे जाते हैं मानव के गुण और अवगुण।इसीसे मिलती है मानव को निंदा और उस्तुति।इसीसे प्राप्त होता है मानव को यश और अपयश।कुछ लोग अपनी मेहनत और लगन से ऊंचाई की तरफ बढते रहते हैं।उन्नति करते करते, वे एक दिन उस स्थान को पा लेते हैं, जहां पहुंचकर वे ऊंच और नीच में फर्क समझने लग जाते हैं।सच और झूठ को समझने लग जाते हैं।सुख और दुःख के भेद को समझने लग जाते हैं।और उनके कारणों को भी समझने लग जाते हैं।वे भटके हुए और अज्ञानी लोगों को दुःखी देखकर, दया से भर जाते हैं।फिर उनकी दया उन्हें भटके हुए और अज्ञानी लोगों को समझाने, सुधारने और सुखी करने के लिए प्रेरित करती है।वे साहित्य के माध्यम से लोगों को ऊंचा उठाने की कोशिश करने लगते हैं।वे साहित्य के माध्यम से लोगों को अनुशासित करने की कोशिश करने लगते हैं।इसके बदले में उन्हें कोई पुरस्कार या कोई पदवी नहीं चाहिए होती।इसके एवज़ में उन्हें धन या यश नहीं चाहिए होता।इसके फल स्वरूप वे किसी स्वर्ग या मोक्ष की इच्छा नहीं रखते।ये उनकी मानवता के प्रति दया होती है।ये उनका इन्सानियत के प्रति प्यार होता है।यही वह स्थान है, जहां पहुंचकर मानव साधु कहलाता है, भक्त कहलाता है और ज्ञानी कहलाता है।लेकिन लाख न चाहने के बावज़ूद भी, इसके बदले में उन्हें लोगों का प्यार मिलता है, लोगों से सम्मान मिलता है।और वह प्यार और वह सम्मान अस्थायी नहीं होता, स्थायी होता है, जो युगोंयुगों तक रहता है।लेकिन आज जिस समाज और जिस संसार में हम रह रहे हैं, वहां उस स्थान का दावा करने वाले तो बहुत हैं, पर उसपर खरा उतरने वाले, वहां तक पहुंचे हुए बहुत कम ही हैं।वेशभूषा और बोलवाणी से तो वे यह साबित करने की पूरी चेष्टा करते हैं कि वे साधु हैं, ज्ञानी हैं।लेकिन व्यवहार से और स्वभाव से स्पष्ट हो जाता है कि वे अज्ञानी हैं, ढोंगी हैं। बात बात पर लोगों को सुख, स्वर्ग और मोक्ष का प्रलोभन देना।बात बात पर दुःख और नर्क के भय से भयभीत करना। भोली भाली जनता को अपने आदेश का पालन करने के लिए मज़बूर करना। ज़ोर जबरदस्ती दान और चंदा देने के लिए मज़बूर करना। मूर्खतापूर्ण विधिओं पर पैसा बर्वाद करने के लिए उकसाना। अपनी हां में हां मिलाने के लिए लोगों को डराना।अपना विरोध करने वालों को श्राप देना या कठोर शब्दों का इस्तेमाल करना। अपना पर्दाफाश करने वालों को, अपने चेले चमचों से पिटवाना। क्या यह धर्म है या दहशत है? आज जिस समाज और जिस संसार में हम रह रहे हैं, वहां यह सोचना और समझना बहुत जरूरी हो गया है कि हमें इन साधुओं और धार्मिक लोगों से आखिर मिलता क्या है? सभ्यता? संस्कार? सदाचार? या ज्ञान? यदि निरीक्षण किया जाए तो सच्चाई प्रकट हो जाती है कि ज्यादातर साधु, असाधु हैं। ज्यादातर धार्मिक, अधार्मिक हैं। उनमें अज्ञान और स्वार्थ कूटकूट कर भरा हुआ है।तो फिर वे साधुओं का भेस क्यों धारण किए हुए हैं? तो फिर वे धार्मिक क्यों बने हुए हैं? जिस किसीको धर्म का थोडा बहुत ज्ञान है, वह जानता है कि ये लोग कामचोर हैं, ढोंगी हैं और बईमान हैं। ये गिरे से गिरा काम, छोटे से छोटा काम भी करना चाहते हैं और पाक साफ भी बने रहना चाहते हैं।इसीलिए इन्होंने भेस और भाषा का सहारा लेकर, जनता का शोषण शुरू कर दिया। इस तरह ये समाज और संसार को धोखा दे रहे हैं।ये लोग साधुओं और धार्मिक लोगों को बदनाम ही नहीं कर रहे, बल्कि लोगों में उनके प्रति नफरत भी पैदा कर रहे हैं। देखने वालों को शर्म आ जाती है ऐसे लोगों के कुकर्म देखकर। शायद इन पर इस सबका असर ही नहीं। जो दिन प्रति दिन इनका व्यापार बढता ही जा रहा है। जो दिन प्रति दिन इनकी संख्या बढती ही जा रही है। ये न तो अपना ही उपकार कर रहे हैं, न समाज का ही कर रहे हैं और न संसार का ही कर रहे हैं। बल्कि ये समाज और संसार को बदतर से बदतर किए जा रहे हैं। इन्हें रोकना होगा। इनसे सचेत होना होगा।
मध्ययुग में जितने भी भक्त हुए, उनमें से ज्यादातर गृहस्थ थे। उनमें से ज्यादातर काम करते थे। उन्होंने कर्म करते हुए ही धर्म को अपनाया। उन्होंने विवाह भी किए। उन्होंने बच्चे भी पैदा किए। उन्होंने परिवार और समाज के हर नियम का पालन भी किया। इसके बावज़ूद भी वे भक्त कहलाए। उन्हें सम्मान भी मिला, उन्हें प्रतिष्ठा भी मिली और उन्हें प्यार भी मिला। क्योंकि वे ईमानदार और सच्चे थे। अपने प्रति भी, समाज के प्रति भी और धर्म के प्रति भी। गीता में श्री कृष्ण खुद कहते हैं कि, '' श्रेष्ठ पुरूष जो भी करते हैं, दूसरे उनका अनुसरण करते हैं। तीनों लोकों में ऐसी कोई भी चीज़ नहीं, जो मुझे प्राप्त नहीं। इसके बावज़ूद भी मैं काम करता हूं। यदि मैं ही कर्म करना छोड दूं तो बहुत हानि हो जाएगी''। फिरभी यदि साधु या धार्मिक लोग काम न भी करें तो बात समझ में आती है कि उनका समय साधना या समाज सेवा या समाज सुधार में निकल जाता है। लेकिन इन नकली साधुओं, नकली धार्मिक लोगों के पास तो वक्त ही वक्त है , फिरभी ये काम क्यों नहीं करते? क्यों लोगों को ठगठग कर खा रहे हैं? क्यों लोगों को डरा धमका कर दान और चंदे बसूल कर रहे हैं? क्यों ज़मीनों और गद्दियों के लिए लड मर रहे हैं? क्यों अविवाहित रहकर भी, विवाहितों का जीवन जी रहे हैं? क्यों समाज के नियमों का और धर्म के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं? यदि ये लोग समाज को या मानवता को कुछ दे नहीं सकते तो इन्हें क्या हक है हमारी धार्मिक श्रध्दा से खेलने का? इन्हें क्या हक है हमारे धार्मिक विश्वास से खेलने का? इन्हें क्या हक है हमारी धार्मिक भावना से खेलने का? यदि इन्हें यही सब करना है तो सांसारिक या साधारण बनकर क्यों नहीं करते?
मध्ययुग में जितने भी भक्त हुए, उनमें से ज्यादातर गृहस्थ थे। उनमें से ज्यादातर काम करते थे। उन्होंने कर्म करते हुए ही धर्म को अपनाया। उन्होंने विवाह भी किए। उन्होंने बच्चे भी पैदा किए। उन्होंने परिवार और समाज के हर नियम का पालन भी किया। इसके बावज़ूद भी वे भक्त कहलाए। उन्हें सम्मान भी मिला, उन्हें प्रतिष्ठा भी मिली और उन्हें प्यार भी मिला। क्योंकि वे ईमानदार और सच्चे थे। अपने प्रति भी, समाज के प्रति भी और धर्म के प्रति भी। गीता में श्री कृष्ण खुद कहते हैं कि, '' श्रेष्ठ पुरूष जो भी करते हैं, दूसरे उनका अनुसरण करते हैं। तीनों लोकों में ऐसी कोई भी चीज़ नहीं, जो मुझे प्राप्त नहीं। इसके बावज़ूद भी मैं काम करता हूं। यदि मैं ही कर्म करना छोड दूं तो बहुत हानि हो जाएगी''। फिरभी यदि साधु या धार्मिक लोग काम न भी करें तो बात समझ में आती है कि उनका समय साधना या समाज सेवा या समाज सुधार में निकल जाता है। लेकिन इन नकली साधुओं, नकली धार्मिक लोगों के पास तो वक्त ही वक्त है , फिरभी ये काम क्यों नहीं करते? क्यों लोगों को ठगठग कर खा रहे हैं? क्यों लोगों को डरा धमका कर दान और चंदे बसूल कर रहे हैं? क्यों ज़मीनों और गद्दियों के लिए लड मर रहे हैं? क्यों अविवाहित रहकर भी, विवाहितों का जीवन जी रहे हैं? क्यों समाज के नियमों का और धर्म के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं? यदि ये लोग समाज को या मानवता को कुछ दे नहीं सकते तो इन्हें क्या हक है हमारी धार्मिक श्रध्दा से खेलने का? इन्हें क्या हक है हमारे धार्मिक विश्वास से खेलने का? इन्हें क्या हक है हमारी धार्मिक भावना से खेलने का? यदि इन्हें यही सब करना है तो सांसारिक या साधारण बनकर क्यों नहीं करते?
पहले तो असली साधुओं और असली धार्मिक लोगों को मनसे नमस्कार करता हूं। दूसरे नकली साधुओं और नकली धार्मिक लोगों से अनुरोध करता हूं कि वे शीघ्र अति शीघ्र सुधर जाएं।नहीं तो इतना अवश्य सोच लें कि ढोंग और बेईमानी ज्यादा देर तक नहीं चलती। जिस दिन भोली भाली जनता जाग गई, उस दिन उनका जीना मुश्किल हो जाएगा। फिर यदि वे मरना भी चाहेंगे तो उन्हें मौत नसीब न होगी। उनके पास सिर्फ अपमानित जीवन ही बचेगा। सिसकने के लिए, रोने के लिए और तडपने के लिए। तीसरे हम सबको भी चाहिए कि साधना और ज्ञान के माध्यम से स्वयं को इस काबिल बनाएं कि सच और झूठ के अंतर को समझ सकें। असली और नकली के फर्क को पहचान सकें। नहीं तो हम लुटते ही रहेंगे, इन धार्मिक लोगों के भेस में छुपे अधार्मिक लोगों से। नहीं तो हम ठगे ही जाते रहेंगे, इन साधुओं में छुपे असाधुओं से।आज जिस समाज और जिस संसार में हम रह रहे हैं, वहां हमें ज्ञानी के साथ साथ, योध्दा भी बनना होगा। वहां हमें श्री कृष्ण बनकर रहना होगा। वहां हमें गुरू गोविंद सिंह बनकर रहना होगा। वहां बुध्द और जीसस बनकर रहने से हमें गालियां ही मिलेंगी, सूलियां ही मिलेंगी।
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