मीरांबाई
मीरां अपने कालखण्ड का एक ऐसा ज्योतिपुंज है, जिससे हर किसी ने प्रकाश चुरा कर स्वयं को प्रभासित करने के साथ-साथ अपने हिस्से का अंधकार भी प्रदान करने में कोई संकोच नहीं किया। मीरां की यश पताका को अपने-अपने गृहों पर सुशोभित कर उसे अपना बनाने की ललक, इस मनस्विनी को अनेक विरोधाभासी जनश्रुतियों से जोडती चली गई। इस प्रयास में मीरां को लेकर काल्पनिक कथाएं गढी ही नहीं गई, उन्हें प्रमाणित करने के लिये उनके नाम से अनेक रचनाएं तक कर डालीं।
मीरा की अपूर्व ख्याति का सभी अपने-अपने हिसाब से दोहन करते रहे। परिणाम स्वरूप मीरां के सहज-सरल जीवन को उपन्यास जैसा चटपटा किन्तु यथार्थ से परे बनाने में कोई कसर बाकि नहीं रखी। एक ओर वे भगवान कृष्ण की अनन्य प्रेमिका के साथ ब्रज गोपी का अवतार मानी गईं तो दूसरी ओर उन्हें ज्ञान प्राप्ति के लिये काशी के चौक में सन्त रैदास को गुरू बनाते भी दिखाया गया। एक ओर स्वयं हरि गरुडारूढ होकर उन्हें विषनिद्रा से जगाने आते हैं, दूसरी ओर साधारण से परामर्श के लिये उन्हें सैंकडों मील दूर काशी में तुलसीदास के पास पत्रवाहक दौडाना पडता है। इसी प्रकार मीरां का वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होना, बादशाह अकबर का तानसेन के साथ छद्म वेश में चित्तौड आना, मीरां का तुलसीदास से मार्गदर्शन हेतु पत्र व्यवहार, वृंदावन में मीरा और जीव गोस्वामी प्रकरण आदि भी इसी प्रयास की कडियाँ हैं।
सम्वत् 1590-60 के आस-पास मेडता के शासक राव दूदा के चतुर्थ पुत्र राव रत्नसिंह की पत्नी के गर्भ से जन्मी मीरां ने बचपन के खेल-खेल में गिरधर का वरण कर लिया। सम्वत् 1573 में महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ विवाह के सात वर्ष बाद 1580 में मात्र बीस वर्ष की आयु में वह विधवा हो गई। कृष्ण के पारलौकिक प्रेम में निमग्न विधवा मीरा को प्रताडनाओं के साथ सर्प और विषपान जैसी परीक्षाओं से गुजरना पडा। सम्वत् 1590 के आसपास अपने ताऊ राव वीरमदेव का निमंत्रण पाकर वे मेवाड त्याग कर, पितृगृह मेडता में रहने लगी। किन्तु सम्वत् 1695 में राव मालदेव द्वारा मेडता विजय के बाद वे पुन: लौकिक पतिगृह जाने के स्थान पर अपने पारलौकिक पति गिरधर नागर की क्रीडास्थली वृन्दावन प्रस्थान कर गईं। प्रेम दीवानी मीरां को वृन्दावन बहुत रास आया। किन्तु सम्वत् 1600 में वे द्वारका के लिये प्रस्थान कर गईं। अपना शेष जीवन उन्होंने द्वारका में रणछोडज़ी के सामने नृत्य करते बिताया और सम्वत् 1630 में वे प्रिय के इसी विग्रह में विलीन हो गईं।
मीरा के इस सत्तर वर्षीय जीवन को लेकर जनश्रुतियों के द्वारा उत्पन्न भ्रान्तियों की भरमार से इस सहज-सरल समर्पिता को भी विवादास्पद बनाने के प्रयास भी अनजाने ही होते रहे हैं। मीरां की प्रसिध्दी को अपनी यशवृध्दि का माध्यम बनाने के प्रयासों में ऐसा बहुत कुछ जोडा जाता रहा, जिसकी पुष्टि किसी भी साक्ष्य से नहीं होती। उदाहरणार्थ मीरां के वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने की जनश्रुति को ही लें। कृष्णभक्त होने के कारण मीरां के पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने का प्रचार, वस्तुत: मीरा की प्रसिध्दि में सहायक बनाने के लिये किया गया था।
पुष्टिमार्ग के प्रमुख ग्रन्थ चौरासी वैष्णवन की वार्ता में मीरां सम्बन्धी प्रसंग इस जनश्रुति को मिथ्या प्रमाणित करते हैं। वे प्रसंग इस प्रकार हैं -
गोविन्द दुबे सांचोरा ब्राह्मण तिनकी वार्ता और एक समें गोविन्द दुबे मीरांबाई के घर हुते तहां मीरांबाई सों भगवद्वार्ता करत अतके। तब श्री आचार्य जी ने सुनी जो गोविन्द दुबे मीरांबाई के घर उतरे हैं सो अतके हैं, तब श्री गुंसाईजी ने एक श्लोक लिखी पठायो, सो एक ब्रजवासी के हाथ पठायो। तब वह ब्रजवासी चल्यौ सो वहाँ जाय पहुंचै। ता समय गोविन्द दुबे सन्ध्यावन्दन करते हुते, तब ब्रजवासी ने आय के वह पत्र दीनो, सो पत्र बांचि के गोबिंद दुबे तत्काल उठे, तब मीरांबाई ने बहुत समाधान कियो, परि गोबिन्द दुबे ने फिर पाछें नहीं देखो। प्रसंग 2, चौरासी वैष्णवन वार्ता, डाकोर सं 1930, पृष्ठ 126-127)
अथ मीरांबाई के पुरोहित रामदास तिनकी वार्ता
सो एक दिन मीरांबाई के श्री ठाकुर जी आगे रामदासजी कीर्तन करत हुते सो रामदासजी श्री आचार्यजी महाप्रभून के पद गावत हुते, तब मीरां बाई बोली जो दूसरो पद श्री ठाकुर कौ गावो। तब रामदास ने कह्यो मीरांबाई सों, तो यह कौन को पद है? जो जा आज से तेरो मुंहडों कबहूँ न देखूंगो, तब तहां ते सब कुटुम्ब को लै के रामदास जी उठि चले, तब मीरां बाई ने बहुतेरो कह्यो परि रामदासजी रहे नाहीं। पछे फिरी वाको मुख न देख्यो। ऐसे अपने प्रभुन सों अनुरक्त हुते। सो वा दिन तें मीरांबाई को मुख न देख्यो, वाकि वृत्ति छोड दीन्ही, फेर वाके गाँव के आगे होय के निकसे नाहीं। मीरांबाई ने बहुत बुलाये परि वे रामदासजी आए नाहीं। तब घर बैठे भेंट पठाई सोई फेर दीन्हीं और कह्यो जो तेरो श्री आचार्यजी महाप्रभून उपर समत्व नाही जो हमको तेरी वृत्ति कहा करनी है।(प्रसंग 1 चौरासी वैष्णवन वार्ता, डाकोर सं 1930, पृष्ठ 131-132)
ऐसा ही एक और प्रसंग है। अथ कृष्णदास अधिकारी तिनकी वार्ता
सो वे कृष्णदास शूद्र एक बेर द्वारका गए हुते सो श्री रणछोरजी के दर्शन करिके तहां से चले सो आपन मीरांबाई के गांव आये सो वे कृष्णदास मीरांबाई के घर गए तहां हरिवंश व्यास आदि वैष्णव हुते सो काहू को आयै दस दिन भये, काहू को पंद्रह दिन भये हुते तिनकी विदा न भई हुती और कृष्णदास ने तो आवत ही कही जो हूं तो चलूंगौ। तब मीरांबाई ने कही जो बैठो तब कितनेक मोहर श्रीनाथ को देन लगी सा कृष्णदास ने न लीनी और कह्यो जो तू श्री आचार्यजी महाप्रभून की सेवक नांही होत ताते भेंट हम हाथ ते छुवेंगे नाहीं। ऐसे कहिके कृष्णदास उहां से उठि चले। (प्रसंग 1 चौरासी वैष्णवन वार्ता, डाकोर सं 1960)
उपरोक्त प्रसंग मीरां के वल्लभाचार्य की शिष्या होने और पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने सम्बंधी जनश्रुति का खण्डन करते हैं। ब्रज और गुजरात में मीरां को प्राप्त यश वस्तुत: वल्ल्भ सम्प्रदाय के प्रसार में बाधक हो रहा था। ये दोनों ही क्षेत्र पुष्टिमार्ग के गढ बन रहे थे। इस सम्प्रदाय के अराध्य तो कृष्ण ही थे, जबकि मीरां की कृष्णभक्ति आम जन में सर्वाधिक आदर से देखा जा रहा था। कृष्णभक्ति का परचम उठाए श्रीमद् वल्लभाचार्य स्वयं को नन्दबाबा कह कर कृष्ण द्वारा प्रतिदिन उनका बनाया भोजन स्वयं आकर ग्रहण करने का दावा करते थे, जबकि उनके अनुयायी महाप्रभु जी को कृष्ण का अवतार ही घोषित कर रहे थे। ऐसे में मीरां जैसी कृष्ण समर्पिता का वल्ल्भाचार्य और उनके पुष्टिमार्ग को स्वीकार न करना पुष्टिमार्ग के प्रसार में बाधक हो रहा था। इस बाधा को दूर करने के लिये मीरां को महाप्रभुजी की शिष्या होना प्रचारित किया जाने लगा।
इसी प्रकार सन्त रैदास को मीरां द्वारा गुरू रूप में स्वीकार किये जाने की जनश्रुति भी रैदास की महत्ता बढाने के लिये गढी ग़ई प्रतीत होती है। इस जनश्रुति का मूल आधार मीरां के नाम से प्रसिध्द कुछ स्फुट पद हैं:-
1 मेरो मन लागो हरिजी सूं , अब न रहूंगी अटकी।
गुरू मिलिया रैदास जी, दीन्हीं ज्ञान की गुटकी।।( मीरां शब्दावली, वेलडियर प्रेस पृ 25)
गुरू मिलिया रैदास जी, दीन्हीं ज्ञान की गुटकी।।( मीरां शब्दावली, वेलडियर प्रेस पृ 25)
2 गुरू रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिडी।
सतगुरू सैन दई जब आकें, जात में जोत जली।।
सतगुरू सैन दई जब आकें, जात में जोत जली।।
3 रैदास सन्त मिले मोंहिं सतगुरू दीन्हा सुरति सहदानी।
गुजरात में भी मीरां का एक पद प्रसिध्द है -
झांझ पखावज वेणु बाजिया, झालरनो झनकार।
काशी नगर के चौक मां मने गुरू मिलिया रोहिदास।।
काशी नगर के चौक मां मने गुरू मिलिया रोहिदास।।
किन्तु काशी के चौक में मीरां को गुरू रूप में रैदास का मिल पाना संभव ही नहीं था। कबीर के समकालीन रैदास का काल सम्वत् 1455 से 1575 के आसपास, लगभग 120 वर्ष माना गया है। रैदास की मृत्यु के समय मीरां की आयु 18 वर्ष से अधिक हो ही नहीं सकती और उस अवस्था में मीरां के पति जीवित थे, और वे मेवाड में ही थीं। इस समय मीरां का काशी जाना या 120 वर्षीय वृध्द रैदास का मेवाड आना दोनों ही असंभव सिध्द होते हैं। स्थान और काल के विचार से मीरां और रैदास का एक दूसरे के सम्पर्क में आना संभव नहीं था।
इन सब बातों से स्पष्ट है कि मीरा स्वतंत्र और उदार प्रकृति की महिला थीं। सम्प्रदाय के सीमित घेरों में बंधना उन्हें स्वीकार न था, सम्प्रदायों की सीमा से वे बहुत परे थीं। कितना ही प्रयत्न करके श्री वल्ल्भाचार्य जी के शिष्य उन्हें अपने सम्प्रदाय में न ला सके। प्रियादास ने भी भक्तमाल की टीका में मीरां को रैदास की शिष्या नहीं लिखा। इसके विपरीत उनकी पितामही सास, राणा सांगा की माता झाली रानी रत्नकुंवरी को रैदास की शिष्या लिखा है। यदि मीरां भी रैदास की शिष्या होती तो प्रियादास इसका उल्लेख करना कभी नहीं भूलते। रघुराज सिंह रचित भक्तमाल में भी मीरां के रैदास की शिष्या होने का उल्लेख नहीं है। केवल उपरोक्त स्फुट पदों में ही मीरां के रैदास की शिष्या होने का वर्णन मिलता है जो संभवत: रैदास के शिष्यों की रचनाएं हैं। यह संभव है कि अपनी विनम्र, उदार भावना के कारण उन्होंने सभी सम्प्रदायों की सत्संगति की होगी और बहुत संभव है कि अपनी पितामही सास झाली रानी के पास आने वाले रैदास के शिष्यों से वे प्रभावित हुई हों। किन्तु किसी सम्प्रदाय विशेष या गुरू विशेष की शिष्या बन कर रहना उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं था।
सन्त तुलसीदास और मीरांबाई के बीच पत्र व्यवहार की जनश्रुति का भी यथार्थ से दूर तक सम्बंध नहीं है। इसमें मीरां का अपने भक्तिमार्ग में आने वाले कष्टों का वर्णण करते हुए, उनसे मार्गदर्शन मांगती हैं। उत्तर में तुलसीदास - ताजिये ताहि कोटि बैरी सम, जधपि परम सनेही - पद भेज कर, मीरां को गृह त्याग का परामर्श देते हैं। इस पर्त्रव्यवहार का उल्लेख न तो प्रियादास की टीका में मिलता है और न ही रघुराजकृत भक्तमाल में।
बाबा वेणीमाधव रचित गुंसाई चरित में ही यह कल्पना साकार होती है कि सम्वत् 1616 में, मेवाड क़े सुखपाल नामक ब्राह्मण द्वारा मीरां ने पत्रिका भिजवाई थी, जिसका उत्तर तुलसीदास के पद के रूप में प्राप्त हुआ। बाबा वेणीमाधव ने तुलसी को सर्वश्रेष्ठ सिध्द करने हेतु अनेक कथाएं गढी थीं, जो स्थान, काल और पात्र की दृष्टि से विचार करने पर असंभव प्रतीत होती हैं। इन कथाओं में महाकवि केशव दास द्वारा एक ही रात में रामचंद्रिका जैसे वृहद महाकाव्य की रचना करके अस्सीघाट पर गुंसाई जी के दर्शनों को जाते हैं। रसखान को तीन वर्ष तक रामचरितमानस सुनना पडता है। इतना ही नहीं 75 वर्षीय महात्मा सूरदास को अपने अन्धत्व और वृध्दावस्था के बावजूद सूरसागर दिखाने, अपने से बहुत छोटी आयु के तुलसीदास के पास काशी आना पडता है। मीरां पर इतनी कृपा कैसे हो गई कि वे ब्राह्मण के हाथों पत्र भेज कर मुक्त हो गईं। वेणीमाधव ने उन्हें स्वयं काशी यात्रा करते नहीं बताया।
स्थान, काल और पात्र की दृष्टि से विचार करने पर भी यह कल्पना कपोल-कल्पित प्रतीत होती है। मीरां पर अत्याचारों की बात सम्वत् 1590 के पूर्व की है। सम्वत् 1591 से पूर्व ही मीरां मेवाड छोड कर जा चुकी थी। क्योंकि उस वर्ष हुए जौहर में मीरा सम्मिलित नहीं थी। इस प्रकार पत्र का अधिकतम सम्वत् 1591 हो सकता है, लेकिन गुंसाई चरित में सम्वत् 1616 का उल्लेख हुआ है। उस समय तो मीरां मेवाड में ही नहीं थी।
विद्वानों के बहुमत ने गोस्वामी जी का जन्म सम्वत् 1585 में माना, जबकि बाबा वेणीमाधव ने उनका जन्म 1554 बताया है। इस हिसाब से भी सम्वत् 1590-91 में वे पैंतीस-छत्तीस वर्ष के युवक मात्र थे। तब तक उन्होंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया था, जिससे मेवाड ज़ैसे सुदूर राज्य तक उनकी ख्याति पहुँच पाती। इसके विपरीत मीरां के मार्गदर्शन के लिये महाप्रभु वल्ल्भाचार्य, गोस्वामी विठ्ठलनाथ, महात्मा सूरदास, गुंसाई हितहरिवंश, स्वामी हरिदास जैसे महात्मा ब्रजमण्डल में उपलब्ध थे, जिन्होने उस समय तक काफी कीर्ति अर्जित कर ली थी।
कुंवर कृष्ण ने बाबा वेणीमाधव के कथन को सत्य और सुसंगत प्रमाणित करने के लिये अपने निबंध मीरांबाइ-जीवन और कविता में यह अनुमान लगाया कि जब ब्रजभूमि में मुगलपठानों के रण वाद्य बजने लगे तो संभवत: सन् 1612-13 के आसपास मीरां पुन: चितौड क़ी ओर रवाना हुई। सम्भवत: इसी समय उन्होंने सुखपाल के हाथों पत्रिका भेजी हो जो तुलसीदास जी को स 1616 के बाद मिल सकी थी।
इस अनुमान में भी कुछ सत्य नहीं है क्योंकि मीरा वृंदावन से सीधे द्वारका चली गईं। उनके मेवाड फ़िर लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। मीरां द्वारा पत्र व्यवहार की कल्पना तुलसीदास की महत्ता स्थापित करने के लिये की गई प्रतीत होती है।
इसी प्रकार वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन हेतु मीरां का जाना और उनके स्त्री मुख दर्शन निषेध सम्बंधी घटना में भी कल्पना का प्राधान्य दिखाई देता है। प्रचलित कथा के अनुसार मीरां वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे। उन्होंने अन्दर से ही कहला भेजा कि हम स्त्रियों से नहीं मिलते, इस पर मीरां बाई का उत्तर बडा मार्मिक था। उन्होने कहा कि वृन्दावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहां आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है। मीरां का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले। इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है -
'वृन्दावन आई जीव गुसाई जू सो मिल झिली, तिया मुख देखबे का पन लै छुटायौ
मुन्शी देवीप्रसाद मीरां बाई का जीवन चरित्र में लिखते हैं - एक दफे मथुरा होकर वृन्दावन को गई थीं, वहां एक ब्रह्मचारी बोला कि मैं स्त्री मुख नहीं देखता हूं। मीरा बाई ने कहा वाह महाराज अभी तक स्त्री-पुरुष में ही उलझे हैं, अर्थात समदृष्टि नहीं हुए हैं।
सीताराम शरण भगवान प्रसाद रूपकला अपने ग्रन्थ श्री मीरां बाई जी में लिखते हैं कि - मीरांबाई ने प्रसिध्द महात्मा रूप तथा सनातन गोस्वामी जी के दर्शन किये और जीव गोस्वामी के दर्शनों की अभिलाषा प्रकट की। परन्तु जब सुना कि वे स्त्रियों का मुख देखना तो दूर रहा उन्हें अपने आश्रम में भी घुसने तक नही देते। तब उन्होंने एक पत्रिका लिख भेजी कि - श्री वृन्दावन तो श्री बिहारी जी का रंगमहल रहस्यकुंज है, और वास्तव में तो यहां सब स्त्रियां ही हैं। पुरुष तो एक ब्रजबिहारी श्री कृष्णचन्द्र आनन्दकन्द महाराज मात्र ही हैं। आप विख्यात विवेकी विश महात्मा होते हुए भी अपने आपको यदि पुरुष मानते हो तो जो श्री अन्त:पुरी में आपने स्थान अधिकार किया है, इस निडर साहस की इस आश्चर्यमय घृष्टता की सूचना स्वामिनी श्री राधिका महारानी की सेवा में अभी-अभी क्यों नहीं पहुँचाई जावे? सो आप शीघ्रतर बताने की कृपा कीजिये कि सच ही आप अपने तईं पुरुष मानते हैं? इस पत्रिका को पढक़र गोस्वामी जी की समझ में आ गया कि मीरां कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है, वरन् द्वापर की गोपी का अवतार है। तत्काल ही जीव गुंसाई नंगे पांव चल कर मीरा बाई जी से आ मिले।
इसके विपरीत शिशिर कुमार घोष लॉर्ड गौरांग ओर सैल्वेशन फॉर गॉड में मीरां बाई की भेंट रूप गोस्वामी से होना बताते हैं। प्रथम भाग की भूमिका में वह लिखते र्हैं -
"When Mirabai, the Rajput princess, who left everything for her love for Krishna, visited the renowned Rupa Goswami of Vrindaban, one of the chief Bhaktas of Shree Gaurang (Chaitanya)........"
इसी प्रकार गौडीय वैष्णवों में भी इस कथा का पर्याप्त प्रचार है। किन्तु वहां जीव गोस्वामी के स्थान पर उनके चाचा रूप गोस्वामी का नाम लिया जाता है।
स्थान और काल की दृष्टि से इस विसंगति को दूर करने में डॉ सुशील कुमार डे सहायक बनते हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में उन्होंने जीव गोस्वामी का जन्म शाके 1445, सम्वत् 1580 और मृत्यु शाके 1540, सम्वत् 1675 मानी है। कुछ विद्वान उनका जन्म 1570 में मानते हैं। इस प्रकार वे मीरां से दस अथवा उससे भी कुछ अधिक वर्ष छोटे प्रमाणित होते हैं। वृन्दावन गमन के समय वे चालीस वर्ष की थीं। अत: तीस वर्ष से भी कम अवस्था वाले सन्यासी के दर्शन के लिये एक प्रौढ वयस्क भक्त का जाना असंगत लगता है। वह भी तब, जब वृन्दावन में जीव गोस्वामी के परम विख्यात विद्वान और भक्त चाचा रूप गोस्वामी भी उपस्थित हों। यह दूसरी बात है कि कालान्तर में जीव गोस्वामी विद्वता, भंक्ति और प्रसिध्दी में अपने चाचा से आगे निकल गए। लेकिन तब वे एक नवयुवक सन्यासी मात्र थे ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में जीव गोस्वामी की अधिक प्रसिध्दी हो जाने के कारण ही रूप के स्थान पर जीव नाम प्रचलित हो गया होगा।
अपने-अपने संप्रदायों की ख्याति बढाने के लिये मीरां के साथ किये गए सायास अन्याय के ये कुछ उदाहरण मात्र हैं। वस्तुत: मीरां न किसी सम्प्रदाय में दीक्षित हुईं और न ही किसी को गुरु बनाया। स्वयं गिरधारी ही उनके पति, सखा, गुरु, रक्षक आदि सभी कुछ थे। ऐसे अद्वितीय, अनादि ब्रह्म को अपना सर्वस्व सौंप देने के बाद, उस तक पहुंचने के लिये, किसी पंथ की मोह माया में जकडे स्व्यंभू गुरु की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती थी? वे तो अपने मन की वारिधि में, प्रियतम श्रीकृष्ण की छवि बसाये, स्वतन्त्र मीन सी विचरण करती हुई, अन्तत: उसीमें विलीन हो जाने वाली महामना, मनस्विनी, महामानवी थी।
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