सौ साल से भी अधिक समय की बात है। कलकत्ता के पास जयरामबाटी नामक छोटे से देहात में मां शारदामणिदेवी का जन्म हुआ था। बचपन से ही उनका जीवन भक्तिभाव और सादगी से परिपूर्ण रहा। 1859 में रामकृष्ण देव से विवाह के पश्चात यह जीवन और भी अधिक गौरवशाली ऊज्ज्वल और पवित्रता के प्रतीक रूप में न केवल भारत बल्कि सारे विश्व में विख्यात हुआ। उन्होनें अपने अदभुत वात्सल्य से अनेक अपराधियों का जीवन बदल दिया था।
पश्चिम बम्गाल में उन दिनों मलबेरी और सिल्क के कीडों सेतूर की खेती होती थी। उससे अधिकतर मुसलमान परिवार अपनी रोजी रोटी कमाते थे। लेकिन ब्रिटिश कानून और ज्यादती ने इन परिवारों को भूख की कगार पर लाकर खडा कर दिया। ईमानदारी से जीवन निर्वाह करना कठिन हो गया था और ऐसे हालात में इस गरीबी की मार को झेलना मुश्किल था। अब चोरी करना डाका डालना खून खाराबा कर पैसे बनाना स्वाभाविक सा हो गया था।
ऐसी ही एक टोली का नेता था अमजद। एक दिन अमजद कुछ केलेमां शारदामणिदेवी को देते हुए बोला ''मां क्या आप इन केलों की भेंट श्री ठाकुर रामकृष्णदेव की पूजा के लिये स्वीकार करेंगी''।
मां ने बडी ममता भरे स्वर में कहा, ''क्यों नहीं बेटा। आप श्री ठाकुर को भोग लगाना चाहते हो तो मुझे सब स्वीकार है। ठाकुर तो सबके हैं।'' वहां खडी श्री मां की अन्य सहेलियों ने आक्षेप लेते हुए कहा ''मां यह क्या कर रही हैं। यह फल हम नहीं ले सकते क्योंकि ये लोग चोर डाकू हैं। क्या ठाकुर इनका दिया हुआ भोग स्वीकार करेंगे।''
कुछ नाराज होते हुए मां ने अपनी सहेलियों को फटकारते हुए कहा ''क्यों भई आपको क्या ऐतराज है? हम केवल त्रुटियां ही देखते रहें तो हम में औैर औरों में क्या फर्क रहेगा। क्या ठाकुर के चरणों में केवल सदाचारी को ही स्थान है। तो फिर इन लोगों का क्या होगा? इनकी उन्नति कैसे होगी? इन्हें पनाह कौन देगा और तो और मैं सबकी मां हूं। मेरी नजर में कोई दुराचारी नहीं। कोई हिंदू नहीं। कोई मुसलमान नहीं। सब ईश्वर की संतान हैं। सब मनुष्य हैं।
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