रहिमन धागा प्रेम का मत तोडों छिटकाय।
टूटे तो फिर ना मिले मिले गांठ पड ज़ाए।।
अब्दुर्रहीम खानखाना भक्तिकाल के एक और महत्वपूर्ण कवि हुए हैं। रहीम संवेदनशील व्यक्ति थे। कूटनीति और युध्दों की भीषण परिस्थितियों में भी इनके हृदय की धार्मिक उदारता और संवेदनशीलता नष्ट नहीं हुई। वे स्वयं तो एक उत्कृष्ट कवि थे ही, उन्होंने अकबर के दरबार में उस काल के कवियों , शायरों को भी सम्मान दिलवाया और एक धार्मिक सहिष्णुता का माहौल बनाया। भिन्न धर्मों के बीच की दरार पाटने का प्रयास किया। रहीम जन्म से तुर्क होते हुए भी पूरी तरह भारतीय थे। हिन्दु भक्त कवियों जैसी उत्कट भक्ति-चेतना, भारतीयता और भारतीय परिवेश से गहरा लगाव उनके तुर्क होने के अहसास को झुठलाता सा प्रतीत होता है।
पूरे हिन्दी साहित्य के इतिहास में रहीम एक अद्भुत व्यक्तित्व थे। इतने महान योध्दा कि सोलह वर्ष की आयु से लेकर बहत्तर वर्ष की वयस तक अनेकों ऐतिहासिक लडाइयां निरंतर लडीं और जीतीं। दानी इतने बडे क़ि अगर किसी ने कहा कि मैं ने कभी एक लाख अशर्फियॉं आँख से नहीं देखीं तो, एक लाख अशर्फियां उसे दान कर दीं। विनम्र इतने कि उनके किसी साथी कवि ने कहा कि देते समय ज्यों-ज्यों रहीम का हाथ उठता है उनकी नजर नीची होती जाती है। इस पर रहीम का उत्तर था -
देनहार कोई और है भेजत हैं दिन रैन
लोग भरम हम पर धरैं यातें नीचे नैन
लोग भरम हम पर धरैं यातें नीचे नैन
रहीम का जीवन एक वृहत दु:खान्त नाटक की तरह रहा है। उनके पिता बैरम खां तुर्किस्तान से आए और सोलह वर्ष की आयु से ही हुमायूं के साथ रहे। हुमायूं के मरने पर अकबर का संरक्षण इन्हीं के पास रहा। अकबर जब युवा हुए तो कुछ घृष्ट लोगों ने अकबर को भडक़ाया कि वे बादशाहत खुद न हथिया ले। अकबर ने उनसे संरक्षणत्व का अधिकार ले लिया और बादशाह बनते ही उन्हें बेदखल कर दिया। बाद में हज पर जाते समय उनका डेरा लुटा और वे कत्ल कर दिये गए। रहीम तब पाँच वर्ष के थे, अत: अकबर ने उन्हें अपने पास रखा शिक्षा-दीक्षा दिलवाई, उनका विवाह शाही परिवार में करवाया गया। कुल उन्नीस वर्ष की आयु में रहीम ने गुजरात पर विजय हासिल की और वहाँ के सूबेदार नियुक्त हुए। इनका यश चतुर्दिक फैल गया, अकबर ने इन्हें प्रसन्न होकर खानखानाँ की उपाधि दी। तबसे अनेकों युध्दों और विजयों का सिलसिला चल पडा और अकबर के बाद जहाँगीर के साथ रहे। जहाँगीर ने नूरजहां के कहने पर उन्हें कैद करवा दिया और दुर्दिन शुरू हुए। सालों बाद प्रौढावस्था में चाहे जहाँगीर ने इन्हें निर्दोष पा कर इनकी मनसबें और जागीरें ससम्मान लौटा दी। फिर आंरभ हुआ जहाँगीर और शाहजहाँ के बीच का संघर्ष जिसमें खानखानाँ ऐसे फँसे कि शाही षडयंत्रों, अतिमद्यपान तथा अस्वस्थ होकर इनके सभी पुर्त्रदामाद चलबसे। पत्नी-पुत्री भी अधिक जीवित न रह सके। अंत में उन्होंने 72 वर्ष की उम्र में महावत खाँ के विद्रोह को शांत करने के लिये एक युध्द लडा जिसमें इन्हें काफी सम्मान मिला। तब तक तन-मन जर्जर हो चुका था और इनका देहांत भी इसी वर्ष हो गया।
अदभुत शौर्य और निर्भयता तथा सैन्य व कूटनीतिक दक्षता में खानखानाँ अद्वितीय थे। गुणवान और बौध्दिक और कलाप्रेमी तो थे ही। अनेक भाषाओं का ज्ञान, लोकव्यवहार और सांसारिक ज्ञान ने उन्हें बेहद लोकप्रिय बना रखा था। वे सही अर्थों में कला और सौंदर्य के पारखी थे।
रहीम के पास रणथम्भौर, कालपी और जौनपुर की जागीरें थीं। इससे वे अवधी भाषा के सम्पर्क में आए। आगरा राजधानी होने से ब्रज का प्रभाव स्वाभाविक था। इन्होंने फारसी, संस्कृत, अवधी, ब्रज तथा खडी बोली में अपना कृतित्व रचा। तमाम जिन्दगी मार्रकाट और कठिन शाही प्रपंचों के बीच रहे रहीम इतना सहज व उत्कृष्ट काव्य कैसे रच सके होंगे? कहते हैं बडे प्रभावशाली थे रहीम सुन्दर चेहरा, बाँकी पाग, बांए हाथ में रत्नजटित तलवार, दायां हाथ स्वागत या उदारता से खुला हुआ। कवि केशव ने उनका शब्दचित्र यूं खींचा है -
अमित उदार अति पाव विचारि चारु
जहाँ तहाँ आदरियो गंगा जी के नीर सों।
खलन के घालिबे को, खलक के पालिबे को
खानखानाँ एक रामचन्द्र जी के तीर सौं।।
जहाँ तहाँ आदरियो गंगा जी के नीर सों।
खलन के घालिबे को, खलक के पालिबे को
खानखानाँ एक रामचन्द्र जी के तीर सौं।।
रहीम मूलत: प्रेमपंथी थे। उन्होंने प्रेमपंथ का एक चित्र खींचा है:
रहीमन मैन तुरंग चढी चलिबो पावक मांहि।
प्रेमपंथ ऐसो कठिन सबसौं निबहत नाहिं।।
प्रेमपंथ ऐसो कठिन सबसौं निबहत नाहिं।।
घोडे पर चढ क़र आग के भीतर चलना, ऐसी प्रेम की राह सबके बस की नहीं। लेकिन रहीम ने यही राह गही। चाहे वह यौवनकाल का प्रेम हो या सहज प्रेममय व्यवहार। रहीम के काव्य में हर तरह के लौकिक-अलौकिक भाव हैं। व्यवहारिक दर्शन है जो सबको समझ आ जाए। हास-विलास, लालसा, छल, प्रतीक्षा, उत्कंठा, लगन, भक्ति, सदजनों का प्रभाव, लौकिर्कअलौकिक प्रेम सभी से रहीम का काव्य समृध्द है।
रहीम के पहले पडाव की रचनाएं हैं, बरवै नायिका भेद और नगर शोभा यह लौकिक प्रेम से भरपूर काव्य हैं।
भँति-भाँति की स्त्रियों, नायिकाओं की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन इनमें मुख्य है। यह काव्य लौकिक प्रेम का सरस प्रस्तुतिकरण है। एक चित्र-
भँति-भाँति की स्त्रियों, नायिकाओं की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन इनमें मुख्य है। यह काव्य लौकिक प्रेम का सरस प्रस्तुतिकरण है। एक चित्र-
मितवा चलेउ बिदेसवा, मन अनुरागी।
पिय की सुरत गगरिया, रहि मग लागि।।
पिय की सुरत गगरिया, रहि मग लागि।।
प्रिय की स्मृतियों का कलश लिये नायिका रास्ते में खडी है कि जब वे लौटेंगे तो स्मृतियों से भरा कलश उनका मंगल-शकुन बनेगा। इसके बाद रहीम की काव्य यात्रा का दूसरा पडाव आता है, जिसमें जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों एवं दिनों के फेर के वर्णन हैं, व्यवहारिकता, कुसंग व सत्संग के प्रभावों का वर्णन है, मान मर्यादा और नीति का चित्रण है। ये काव्य दोहों और सोरठों में है। कुछ उदाहरण -
रहिमन याचकता गहे, बडे छोटे व्हे जात ।
नारायण हू को भयो, बावन अंगुर गात।।
नारायण हू को भयो, बावन अंगुर गात।।
माँगने वाला बडा होकर भी छोटा हो जाता है, विराट् नारायण भी तो माँगते समय वामन हो गए थे।
रहिमन तीन प्रकार ते , हित अनहित पहिचानि।
पर बस परे, परोस बस, परे मामला जानि।।
पर बस परे, परोस बस, परे मामला जानि।।
इस दोहे में उन्होंने कहा है शत्रु-मित्र की पहचान तीन तरह से होती है। आप परवश हो जाएं, आप पडोस में बस जाएं, या आप किसी मामले में फंस जाएं। रहीम को ओछे और बडे क़ी बडी सूक्ष्म व्यवहारिक पहचान थी। छोटा वही जो रीत जाए तो रहट की घरिया की तरह सामने आ जाए भरते ही पलट जाए। बडा वह जिसमें अपने बडप्पन का ज़रा मान न हो।
जो बडेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जाहिं।
गिरधर मुरली धर कहे कछु दुख मानत नाहिं।।
गिरधर मुरली धर कहे कछु दुख मानत नाहिं।।
पानी की महत्ता को रहीम से अधिक मार्मिक ढंग से कोई नहीं कह सका।
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरैं, मोती, मानुस, चून।।
पानी गए न ऊबरैं, मोती, मानुस, चून।।
सत्संग और कुसंग पर यह सटीक दोहा -
कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिये, तसोई फल दीन ।।
जैसी संगति बैठिये, तसोई फल दीन ।।
स्वाति की एक बूंद और तीनों संगति में उसकी अलग अलग परिणति होती है। केले के वृक्ष पर गिर वह रस का
निर्माण करती है, सीप में प्रविष्ट हो मोती बनती है और साँप के मुख में जा विष बनती है।
निर्माण करती है, सीप में प्रविष्ट हो मोती बनती है और साँप के मुख में जा विष बनती है।
भिन्न-भिन्न अनुभवों से गुजर कर भी रहीम प्रेम की सरसता छोड नहीं पाते। क्योंकि वे जानते हैं कि प्रेम से तो नारायण भी बस में हो जाते हैं और जीवन की सार्थकता इसी में है कि -
रीति, प्रीति सबसौं भली, बैर न हित मित गोत।
रहिमन याहि जनम की, बहुरि न संगत होत।।
रहिमन याहि जनम की, बहुरि न संगत होत।।
सभी से प्रीति और रीति पूर्ण व्यवार करना ही उचित है। कम से कम हितेषी, मित्र और समान गोत्र वालों से बैर नहीं करना चाहिये। अब एक ये ही जनम तो मिला है जो कि फिर लौट कर नहीं आने वाला। इसी सिध्दान्त पर चल रहीम
अपनी काव्य यात्रा के तीसरे पडाव पर पहुँचते हैं, जहाँ उनका प्रेम अलौकिक हो उठता है। यहाँ त्याग और समर्पण प्रेम की पराकाष्ठा है।
अपनी काव्य यात्रा के तीसरे पडाव पर पहुँचते हैं, जहाँ उनका प्रेम अलौकिक हो उठता है। यहाँ त्याग और समर्पण प्रेम की पराकाष्ठा है।
रहिमन प्रीत सराहिये मिले होत रंग दून।
ज्यों हरदी जरदी तजै, तजै सफेदी चून।।
ज्यों हरदी जरदी तजै, तजै सफेदी चून।।
प्रेम में अहं का त्याग ही सर्वश्रेष्ठ है, जैसे हल्दी और चूना मिलते हैं तो हल्दी अपना पीलापन छोड देती है और चूना अपनी सफेदी दोनों मिल कर प्रेम का एक नया चटक लाल रंग बनाते हैं।
प्रेम के लौकिक-अलौकिक महत्व के इन प्रसिध्द दोहों ने रहीम को काव्यजगत में अमर कर दिया।
रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो छिटकाय।
टूटे तो फिर ना मिले मिले गांठ पड ज़ाए।।
प्रीतम छबि नैनन बसि, पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाए।।
टूटे तो फिर ना मिले मिले गांठ पड ज़ाए।।
प्रीतम छबि नैनन बसि, पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाए।।
जब प्रिय की छवि नेत्रों में बसी है तो किसी और छवि की जगह ही कहाँ शेष है? जब सराय ही भरी रहेगी तो आने वाले पथिक देख कर ही लौट जाएंगे। वे तो आखों की पुतली को ही शालिग्राम बना लेना चाहते हैं। जिसे नेह के जल से नित अर्ध्य दे सकें।
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुँ जलज मधुकर लसै।
कैंधों शालिग्राम, रूपे के अरधा धरे।।
कैंधों शालिग्राम, रूपे के अरधा धरे।।
यही तो एक मुस्लिम कवि के पवित्र प्रेम की पराकाष्ठा थी। रहीम ने श्री कृष्ण के विरह में तडपती गोपियों से लेकर, राम और गंगा मैया को भी अपना काव्य समर्पित किया, कहीं ब्रज में, अवधी या संस्कृत में। रहीम के मन के ये भक्ति परक प्रेम के संस्कार एक सहज आत्मीयता के कारण ढल सके। उनके व्यक्तित्व की उदारता में फारसी के साथ गाँव की ब्रज, अवधी, पराक्रम के साथ क्षमा, औदार्य और राजसी ठाठबाट के साथ फकीरी हमेशा घुली-मिली रही। वे मुसलमान जन्मे, मुसलमान दफनाए गए। उनका धर्म और कर्म विराट था, संकीर्णता की कहीं कोई गुंजाईश नहीं थी।
जदपि बसत हैं, सजनी, लाखन लोग।
हरि बिन कित यह चित्त को, सुख-संजोग।।
हरि बिन कित यह चित्त को, सुख-संजोग।।
ऐसे नेही चित्त वाले रहीम के काव्य पर तुलसी और सूर का आत्मीय प्रभाव था। उनके जीवन का एक मात्र दर्शन था प्रेम और आत्मीयता, उदारता। मोतियों का हार टूट जाए तो उसे हम बार बार पोह लेते हैं , इसी प्रकार मानवीयता और मूल्यों से लगाव छूटे तो उसे फिर से जोडना चाहिये। रहीम इसी जुडाव के कवि हैं -
टूटे सुजन मनाइये, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिर-फिर पोहिये, टूटे मुक्ताहार ।।
रहिमन फिर-फिर पोहिये, टूटे मुक्ताहार ।।
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