आज एक ब्राह्मण की कथा आपको बताता हूं, जो जंगली पशुओं से भरे जंगल में पथ-भ्रमित हो गया था। शेर व चीते, हाथी और भालूकी चीख, चिंघाड, और गर्जना ऐसा दृश्य मृत्यु के देवता, यम के मन में भी सिहरन पैदा कर सकते थे। ब्राह्मण को भी उस वातावरण ने जड बना दिया था। उसका पूरा शरीर भय से कांप रहा था। उसका मस्तिष्क आशंकाओं से भरा हुआ था और उसका भयभीत मन किसी देवदूत को व्याकुल हो तलाश रहा था जो उसके प्राणों को उन भयावह वनचरों से बचा सके। लेकिन उन बर्बर जानवरों की गर्जना से पूरा जंगल प्रतिध्वनित होकर उनकी उपस्थिति का आभास करा रहा था। ब्राह्मण को ऐसा प्रतीत हो रहा था - जहां वह जा रहा है, उनकी गर्जना, प्रतिछाया बन उसका पीछा कर रही है।
अचानक उसको एहसास हुआ कि उस भयावह जंगल ने एक घना जाल सा बुनकर उसे और भयानक बना दिया है, उसकी गहनता एक डरावनी स्त्री का रूप धरे, अपनी दोनो बांहे फैला उसे अपने में विलीन होने का निमंत्रण दे रही है। शिखरों से ऊंचे, आसमान को छूते हुए पेड क़िसी पंचंमुखी सर्प की भांति उसको डसने आ रहे हो।
जंगल के मध्य में एक कुंआ था जो घास तथा घनी और उलझी लताओं से ढका हुआ था। वह उस कुएं में गिर पडा और एक लता के सहारे, किसी पके हुए फल की भांति, उलझकर सिर के बल उलटा लटक गया।
डर के बादल गहराते जा रहे थे। कुएं के तल में उसे एक राक्षसीय सर्प दिखाई दे रहा था। कुएं की मुंडेर पर एक बडा काला हाथी जिसके छ: मुख और बारह पैर थे, मंडरा रहा था। और लताओं के आधिपत्य में बने मधुमक्खियों के छत्ते के चारों और विशालकाय और वीभत्स मक्खियां उसके अंदर और बाहर भिनभिना रही थी। वह उसमें से टपकते सुस्वादु, मीठे शहद का आनन्द लेना चाहती थी, शहद जिसके स्वाद में हर जीव उन्मत्त हो जाता हैं, शहद जिसके वास्तविक स्वाद का वर्णन एक बालक ही कर सकता है।
शहद की टपकती हुई कुछ बूंदे लटके हुए ब्राह्मण के मुख पर आकर गिरी। उन परिस्थितियों में भी वह उन शहद की बूंदो के स्वाद के आनंद का मोह संवरण न कर सका। जितनी ज्यादा बूंदे गिरती, उसको उतना ही संतोष प्राप्त होता था। लेकिन उसकी तृष्णा शान्त नहीं हो पा रही थी। और! और अधिक! - अभी मैं जीवित रहना चाहता हूं! - उसने कहा - '' मैं जीवन का आनंद उठाना चाहता हूं!''
जब वह शहद की बूंदो के स्वाद में आनंदमग्न था, कुछ सफेद और काले मूषक उन लताओं की जडाे को काट रहे थे। भय ने उसको चारों ओर से घेर लिया था। मांसाहारियों का भय, डरावनी स्त्री का भय, राक्षसीय सर्प का भय, विशालकाय हाथी का भय, उन लताओं का भय जिनको चूहें अपने तेज दांतो से कुतर रहे थे, विशालकाय भिनभिनाती मक्खियों का भय
भय के उस बहाव में वह झूल रहा था, अपनी आशाओं के साथ, शहद के रसास्वादन की त्रीव आकांक्षा लिए, उसमें संसार-रूपी जंगल में जीवित रहने की प्रबल इच्छा थी।
यह जंगल एक नश्वर संसार है; इस संसार की भौतिकता ही एक कुआं है और उस अंधकारमय कुएं के चारो ओर का स्थान किसी व्यक्ति विशेष के जीवन चक्र को दर्शाता है। जंगली पशु रोगो का प्रतीक है तो डरावनी स्त्री नश्वरता का द्योतक। कुएं के तल में बैठा विशालकाय सर्प वह काल है, जो समय को लील जाने को तत्पर है; एक वास्तविक और संदेहरहित विनाशक की भांति। लताओं के मोह-पाश में मनुष्य झूल रहा है जो स्वरक्षित जीवन की मूल प्रवृत्ति है और जिनसे कोई भी जीव अछूता नहीं है। कुएं के मुंडेर पर अपने पैरो से पेड क़ो रौंदता छ: मुखी हाथी वर्ष का प्रतीक र्है छ: मुंह अर्थात् छ: ॠतुएं और बारह पैर, वर्ष के बारह महीनों का प्रतिनिधित्व करते है। लताओं को कुतरते चूहे वह दिन व रात है जो मनुष्य के जीवन की अवधि को अपने पैने दांतो से कुतर कर छोटा कर रहे है। अगर मक्खियां हमारी इच्छाएं है तो शहद की बूंदे वह तृप्ति है जो इच्छाओं में निहित है। हम सभी मनुष्य इच्छाओं के गहरे समुद्र में शहद रूपी काम-रस का भोग करते हुए डूब उतरा रहे है।
इस प्रकार विद्वानों ने जीवन चक्र की व्याख्या की हैं, और इनसे मुक्ति प्र्र्राप्त करने के उपायों से अवगत कराया।
धृतराष्ट्र, विदुर के द्वारा व्यक्त किए गए भावों के सार को समझ पाने में असमर्थ थे कि मनुष्य जीवन की डोर से लटका हुआ अनेकानेक भय से घिरा रहता है, लेकिन फिर भी उन शहद की बूंदो के स्वाद में अपने को लीन रखता है और हर्षित हो उठता है, ''अधिक! और अधिक! मैं जीवित रहना चाहता हूं और जीवन का आनंद उठाना चाहता हूं।'' और उस विवेकहीन राजा की भांति हम भी जीवन का तथ्य नहीं समझ पाते है और कर्म भूमि का त्याग कर पाप के दलदल में गिर जाते हैं। और विवशता में अपनी संपूर्ण शक्ति का व्यय इच्छाओं की तृप्ति में कर देते हैं।
अगर हम विचार करें तो यह सिध्दान्त एक शक्तिशाली हथियार की तरह हम अपने चरित्र निर्माण, अखंडता बनाये रखनें तथा एक ऐसे समाज की स्थापना में, उपयोग में ला सकते है जो मत्सय न्याय (बडा छोटे का भक्षण करता है) की विचारधाराओं से मुक्त हो, आत्माभिमान से परें हो, जिसका एक ही उद्देश्य हो, एक ऐसे समाज और संसार की स्थापना जिसकी नींव धर्म पर रखी गई हो।
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