Wednesday, September 30, 2009

सूर और वात्सल्य रस

महाकवि सूर को बाल-प्रकृति तथा बालसुलभ चित्रणों की दृष्टि से विश्व में अद्वितीय माना गया हैउनके वात्सल्य वर्णन का कोई साम्य नहीं, वह अनूठा और बेजोड हैबालकों की प्रवृति और मनोविज्ञान का जितना सूक्ष्म व स्वाभाविक वर्णन सूरदास जी ने किया है वह हिन्दी के किसी अन्य कवि या अन्य भाषाओं के किसी कवि ने नहीं किया हैशैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे न जाने कितने चित्र सूर के काव्य में वर्णित हैं
वैसे तो श्रीकृष्ण के बाल-चरित्र का वर्णन श्रीमद्भागवत गीता में भी हुआ हैऔर सूर के दीक्षा गुरू वल्लभाचार्य श्रीकृष्ण के बालरूप के ही उपासक थे जबकि श्रीकृष्ण के गोपीनाथ वल्लभ किशोर रूप को स्वामी विठ्ठलनाथ के समय मान्यता मिलीअत: सूर के काव्य में कृष्ण के इन दोनों रूपों की विस्तृत अभिव्यंजना हुई
सूर की दृष्टि में बालकृष्ण में भी परमब्रह्म अवतरित रहे हैं, उनकी बाल-लीलाओं में भी ब्रह्मतत्व विद्यामान है जो विशुध्द बाल-वर्णन की अपेक्षा, कृष्ण के अवतारी रूप का परिचायक हैतभी तो, कृष्ण द्वारा पैर का अंगूठा चूसने पर तीनों लोकों में खलबली मच जाती है -
कर पग गहि अंगूठा मुख मेलत
प्रभु पौढे पालने अकेले हरषि-हरषि अपने संग खेलत
शिव सोचत, विधि बुध्दि विचारत बट बाढयो सागर जल खेलत
बिडरी चले घन प्रलय जानि कैं दिगपति, दिगदंती मन सकेलत
मुनि मन मीत भये भव-कपित, शेष सकुचि सहसौ फन खेलत
उन ब्रजबासिन बात निजानी
समझे सूर संकट पंगु मेलत

दही बिलौने की हठ को देख कर वासुकी और शिव भयभीत हो जाते हैं -
मथत दधि, मथनि टेकि खरयों
आरि करत मटुकि गहि मोहन
बासुकी,संभु उरयो

कृष्ण विष्णु के अवतार हैं अत: वे बाल रूप में भी असुरों का सहज ही वध करते वर्णित किये गए हैंकंस द्वारा भेजी गई पूतना के कपट को वे अपने नवजात रूप में ही भा/प उसके विषयुक्त स्तन पान करते करते उसके प्राण हर लेते हैं
कपट करि ब्रजहिं पूतना आई
अति सुरूप विष अस्तन लाए, राजा कंस पठाई
कर गहि छरि पियावति, अपनी जानत केसवराई
बाहर व्है के असुर पुकारी, अब बलि लेत छुहाई
गई मुरछाह परी धरनी पर, मनौ भुवंगम खाई।

सूर के वात्सल्य वर्णन में यद्यपि उनके विष्णु अवतार होने की झलके तो अवश्य मिलती है, तथापि ये वर्णन किसी भी माँ के अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य का प्रतिनिधित्व करते हैं - यशोदा जी श्री कृष्ण को पालने में झुला रही हैं और उनको हिला-हिला कर दुलराती हुई कुछ गुनगुनाती भी जा रही हैं जिससे कि कृष्ण सो जाएं
जसोदा हरि पालने झुलावै
हलरावे, दुलराई मल्हावे, जोई-सोई कछु गावै
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै
तू काहैं नहिं बेगहीं आवै, तोको कान्ह बुलावैं।

माँ की लोरी सुन कर कृष्ण अपनी कभी पलक बन्द कर लेते हैं, कभी होंठ फडक़ाते हैंउन्हें सोता जान यशोदा भी गुनगुनाना बंद कर देती हैं और नन्द जी को इशारे से बताती हैं कि कृष्ण सो गए हैंइस अंतराल में कृष्ण अकुला कर फिर जाग पडते हैं, तो यशोदा फिर लोरी गाने लगती हैं
कबहूँ पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहूँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन व्है रहि रहि, करि करि सैन बतावे।
इहिं अंतर अकुलाई उठे हरि, जसुमति मधुर गावैं।

प्रस्तुत पद में सूर ने अपने अबोध शिशु को सुलाती माता का बडा ही सुन्दर चित्रण किया है
माँ के मन की लालसा व स्वप्नों को भी सूर ने बडे ज़ीवंत ढंग से अपने पदो में उतारा है जैसे -
जसुमति मन अभिलाष करै।
कब मेरो लाल घुटुरुवनि रैंगे, कब धरनी पग द्वेक धरै।
कब द्वै दाँत दूध कै देखौं, कब तोतैं मुख बचन झरैं।
कब नन्दहिं बाबा कहि बोले, कब जननी कहिं मोहिं ररै।

सुत मुख देखि जसोदा फूली
हरषति देखि दूध की दँतिया, प्रेम मगन तन की सुधि भूली।
बाहर तैं तब नन्द बुलाए, देखौ धौं सुन्दर सुखदाई।
तनक-तनक सी दूध दंतुलिया, देखौ, नैन सफल करो आई।

श्री कृष्ण के दाँत निकलने पर यशोदा माता की खुशी का पारावार नहीं रहता, वे नन्द को बुला कर उनके दूध के दाँत देख कर अपने नेत्र सफल करने के लिये कहती हैं।
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ।
मुख में तीनि लोक दिखाए, चकित भई नन्द-रनियाँ।
घर-घर हाथ दिखावति डोलति, बाँधति गरै बघनियाँ।
सूर स्याम को अद्भुत लीला नहिं जानत मुनि जनियाँ।

माँ को अपने लाडले पर बडा नाज है सो बडी चिन्तित रहती है कि उसे किसी की नजर ना लग जाएयही कारण है कि जब एक दिन माँ की गोद में अलसाते कान्हा ने जोर की जमुहाई लेकर अपने मुख में तीनों लोकों के दर्शन करवा दिये तो माँ डर गई और उनका हाथ ज्योतिषियों को दिखाया और बघनखे का तावीज ग़ले में डाल दिया
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुनि चलत रेनु तन-मण्डित, मुख दधि लेप किये ।
कंठुला कंठ, ब्रज केहरि-नख, राजत रुधिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।

कृष्ण घुटनों के बल चलने लगे हैं, उनके हाथों में मक्खन है, मुँह पे दही लगा है, शरीर मिट्टी से सना हैमस्तक पर गोरोचन का तिलक है और उनके घुंघराले बाल गालों पर बिखरे हैंगले में बघनखे का कंठुला शोभायमान हैकृष्ण के इस सौंदर्य को एक क्षण के लिये देखने भर का सुख भी सात युगों तक जीने के समान है
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नन्द कैं आँगन, बिंब पकरिबै धावत।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत
किलकि हांसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।
बाल-दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावत।
अंचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौ दूध पियावत।

नन्द जी का आँगन रत्नजटित र्स्वण निर्मित हैइसमें जब कान्हा घुटनों के बल चलते हैं तो उसमें अपनी परछांई उन्हें दिखती है, जिसे वे पकडने की चेष्टा करते घूमते हैंऐसा करते हुए जब वे किलकारी मार कर हँसते हैं तो उनके दूध के दाँत चमकने लगते हैं और इस स्वर्णिम दृश्य को दिखाने के लिये यशोदा माँ बार-बार नन्द बाबा को बुला लाती हैं
चलत देखि जसुमति सुख पावै।
ठुमकि-ठुमकि पग धरनि रेंगत, जननी देखि दिखावै।
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहिं कौ आवै।
गिरि-गिरि परत, बनत नहिं लाँघत सुर-मुनि सोच करावै।

कृष्ण को गिरते-पडते, ठुमुक-ठुमुक चलते देख यशोदा माँ को अपार सुख मिलता है
धीरे-धीरे कृष्ण बडे होते हैं। माँ कोई भी काम करती है तो छोटे बच्चे भी उस काम को करने की चेष्टा करते हैं और माँ के काम में व्यवधान डालते हैं। माँ को दूध बिलोते देख कृष्ण मथानी पकड लेते हैंयशोदा उनकी मनुहार करते हुए कहती है
नन्द जू के बारे कान्ह, छाँडि दे मथनियाँ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नन्द रनियाँ।
नैकु रहौ माखन देऊँ मेरे प्रान-धनियाँ।
अरि जनि करौं, बलि-बलि जाउं हो निधनियाँ।

श्री कृष्ण अन्य बच्चों के समान ही माँ से मक्खन रोटी माँगते हुए आँगन में लोट-लोट जाते हैंयशोदा समझाती हैं -
गोपालराई दधि मांगत अरु रोटी।
माखन सहित देहि मेरी मैया, सुकोमल मोटी।
कत हौ मारी करत हो मेरे मोहन, तुम आंगन में लोटी।
जो चाहौ सौ लेहु तुरतही छाडौ यह मति खोटी।
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौं, मुख चुपरयौ अरु चोटी।
सूरदास कौ ठाकुर ठठौ, हाथ लकुटिया छोटी।

कृष्ण चाहते हैं कि जल्दी ही उनकी चोटी बलराम भैया जितनी लम्बी और मोटी हो जाए। माँ यशोदा को उन्हें दूध पिलाने का अच्छा अवसर मिल जाता है और वे कहती हैं यदि तुम दूध पी लोगे तो तुम्हारी चोटी बलराम जितनी लम्बी और मोटी हो जाएगीबालकृष्ण दो तीन बार तो माँ की बातों में आ जाते हैं फिर माँ से झगडते हैं कि तू मुझे बहाने बना कर दूध पिलाती रही देख मेरी चोटी तो वैसी है, चोटी दूध से नहीं माखन-रोटी से बढती है
मैया कबहिं बढैगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, व्है लांबी मोटी।
काढत-गुहत न्हवावत जैसे नागिनी-सी भुई लोटी।
काचौ दूध पियावत पचि-पचि, देति ना माखन रोटी।
सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी।

प्राय: बच्चों के द्वारा यह पूछने पर कि मैं कहाँ से आया हूँ, उन्हें यह उत्तर दिया जाता है कि तुम्हें किसी कुंजडिन या नटनी से खरीदा गया है या मोल लिया हैहाँ बलराम बडे हैं और वे कृष्ण को ये कहके चिढाते रहते हैं कि तुम माता यशोदा के पुत्र नहीं तुम्हें मोल लिया गया हैअपने कथन को सिध्द करने के लिये वे तर्क भी देते हैं कि बाबा नंद भी गोरे हैं, माता यशोदा भी गोरी हैं तो तुम साँवले क्यों हो? अत: तुम माता यशोदा के पुत्र कैसे हो सकते हो? कृष्ण रूआँआसे होकर माँ से शिकायत करते हैं
मैया मोहे दाऊ बहुत खिजायौ।
मोसौं कहत मोल को लीन्हो तोहि जसुमति कब जायौ।
कहा करौ इहि रिस के मारै, खेलन को नहिं जात।
पुनि-पुनि कहत है कौन है माता, कौ है तेरो तात।
गोरे नन्द जसोदा गोरी, तू कत स्याम शरीर।
चुटकी दै दै हँसत ग्वाल सब, सिखै देत रघुबीर।

फिर बाल सुलभर् ईष्या की बातें कह कर कि तू भी मुझको ही पीटती है, दाऊ पर जरा भी गुस्सा नहीं होती, कृष्ण माँ का मन रिझा लेते हैं
तू मोहि को मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीजे।
इस पर माँ अपने बालकिशन को यह कह कर मनाती है -

मोहन मुख रिस की ये बातें, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहूँ कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।

हाँ प्रस्तुत चित्रण में पिता बच्चों के साथ भोजन करना चाहते हैं, किन्तु बच्चे खेलने की धुन में घर ही नहीं आते -
हार कौं टेरित हैं नन्दरानी।
बहुत अबार भई कँह खेलत रहे, मेरे सारंग पानी।
सुनतहिं टेरि, दौरि तँह आए, कबसे निकसे लाल।
जेंवत नहीं नन्द तुम्हरै बिन बेगि चल्यौ गोपाल।
स्यामहिं लाई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइं पखारि।
सूरदास प्रभु संग नन्द कैं बैठे हैं दोउ बारै।

सूर वात्सल्यभाव और बालसुलभ बातों की अंतरंग तहों तक अपने पदों के द्वारा पहुँच गए हैंसूर जैसे एक जन्मांध व्यक्ति के लिये यह सब दिव्यदृष्टि जैसा अनुभव रहा होगा
यशोदा के वात्सल्य भाव का सूर ने उन पदों में बडा अच्छा चित्रण किया है जिसमें कृष्ण ब्रज की गलियों में घर घर जाकर दही-माखन चुराते हैं, बर्तन फोड ड़ालते हैं और स्त्रियाँ आकर उनकी शिकायत करती हैं, किन्तु यशोदा उनकी बात अनसुनी कर देती हैं, और बालकृष्ण का ही पक्ष लेती हुई कहती हैं -
अब ये झूठहु बोलत लोग।
पाँच बरस और कछुक दिननि को, कब भयौ चोरी जोग।
इहिं मिस देखन आवति ग्वालिनी, मुँह फारे जु गँवारि।
अनदोषे कौ दोष लगावति, दहि देइगौ टारि।

अपने बच्चे का पक्ष लेते हुए यशोदा सोचती हैं, जब मेरा बच्चा इतना छोटा है तो उसका हाथ छींके तक कैसे पहुँच सकता र्है?
कैसे करि याकि भुज पहुँची, कौन वेग ह्यौ आयौ।
इस पर गोपियाँ उसे समझाती र्हैं
ऊखल उपर अग्नि, पीठि दै, तापर सखा चढायौ।
जो न पत्याहु चलो संग जसुमति, देखो नैन निहारि।
सूरदास प्रभु नेकहुँ न बरजौ, मन में महरि विचारि।

माँ का भी मनोविज्ञान सूर से अछूता नहीं रहावह माँ जो स्वयं लाख डाँट ले पर दूसरों द्वारा की गई अपने बालक की शिकायत या डाँट वह सह नहीं सकतीयही हाल सूर की जसुमति मैया का है
जब कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाया जाता है, तो उनके अनिष्ट की आशंका से उनका मन कातर हो उठता हैमाता को पश्चाताप है कि जब कृष्ण ब्रज छोड मथुरा जा रहे थे तब ही उनका हृदय फट क्यों न गया
छाँडि सनेह चले मथुरा कत दौरि न चीर गह्यो।
फटि गई न ब्रज की धरती, कत यह सूल सह्यो।

इस पर नन्द स्वयं व्यथित हो यशोदा पर अभियोग लगाते हैं कि तू बात-बात पर कान्हा की पिटाई कर देती थी सो रूठ कर वो मथुरा चला गया है -
तब तू मारि बोई करत।
रिसनि आगै कहै जो धावत, अब लै भाँडे भरति
रोस कै कर दाँवरी लै फिरति घर-घर घरति।
कठिन हिय करि तब ज्यौं बंध्यौ, अब वृथा करि मरत।

एक ओर नन्द की ऐसी उपालम्भ पूर्ण उक्तियाँ हैं तो दूसरी ओर यशोदा भी पुत्र की वियोगजन्य झुंझलाहट से खीज कर नन्द से कहती है
नन्द ब्रज लीजै ठोकि बजाय।
देहु बिदा मिलि जाहिं मधुपुरी जँह गोकुल के राय।

अब यशोदा पुत्र प्रेम के अधीन देवकी को संदेश भिजवाती हैं कि ठीक है कृष्ण राजभवन में रह रहे हैं, उन्हें किसी बात की कमी नहीं होगी पर कृष्ण को तो सुबह उठ कर मक्खन-रोटी खाने की आदत हैवे तेल, उबटन और गर्म पानी देख कर भाग जाते हैंमैं तो कृष्ण की मात्र धाय ही हूँ पर चिंतित हूँ हाँ मेरा पुत्र संकोच न करता हो
संदेसो देवकी सौं कहियौ।
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो।
उबटन तेल और तातो जल देखत ही भजि जाते।
जोई-जोई माँगत सोई-सोई देती करम-करम करि न्हाते।
तुम तो टेव जानतिहि व्है हो, तऊ मौहि कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल लडैतेंहि माखन रोटी खावै।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बाल मनोविज्ञान उसके हाव-भाव और क्रीडाओं के चित्रण तथा जननी-जनक के वात्सल्य भाव की व्यंजना के क्षेत्र में सूर हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व साहित्य के एक बेजोड क़वि हैं

Tuesday, September 29, 2009

मोक्ष प्राप्ति की एक तपस्या

कुछ सालों पहले ही अखबारों के मुखपृष्ठ पर भोपाल में एक जैन साध्वी के समाधिस्थ होने की खबर जोरों शोरों से आई, इस मृत्यु महोत्सव हजारों की संख्या में धर्मावलम्बी उमड पडे थे। उन धर्मावलम्बियों की यही भावना थी कि यह मृत्यु मृत्यु नहीं मृत्यु पर विजय प्राप्ति है। सल्लेखना के द्वारा समाधिस्थ होने वाला जैन धर्मावलम्बियों में देवतुल्य माना जाता है। साध्वी जी की अंतिमशोभा यात्रा बडी धूमधाम से निकली, उन्हें बैठी हुई समाधिस्थ मुद्रा में ही एक पालकी में विराजमान किया हुआ था। ऐसी अद्भुत मृत्यु देख लोग भावुक व अभिभूत थे।
स्वयं ही अपनी मृत्यु का वरण कर अपनी मृत्यु को निर्वाण में बदल कर मोक्ष पाना ही सल्लेखना है। मुझे अधिक जानकारी तो नहीं जैन धर्म की किन्तु सल्लेखना के बारे में कई बार देखा सुना पढा था कि स्वयं अपनी मृत्यु का वरण करने हेतु जैन साधक और साध्वियां लम्बा निर्जल उपवास रखते हैं और धीरे धीरे शान्त व एकान्त में रह कर तथाप्रार्थनाओं में ध्यान लगा रह कर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं।
धर्म और दर्शन का यह स्वरूप किसी समीक्षा का मोहताज न सही पर एक गहन सोच में अवश्य डालता है कि आखिर किसी धर्म का धर्म और कर्तव्य क्या होता है? बस जीवन और मरण पर विजय पा लेना मात्र? ये जीवन जो प्रकृतिप्रदत्त है, स्वयं एक धर्म है, जीवन धर्म! फिर इससे छूट कर पलायन की बेजा हठ क्यों? मानव जीवन की सार्थकता इसमें तो नहीं कि आप इसे व्यर्थ करदें। क्या सचमुच यह देह व्यर्थ है? कर्म कुछ भी नहीं? मानवता का कोई धर्म नहीं? बहुत सारे प्रश्न
इस देह में रह कर संसार का कोई भी धर्म निभाया जा सकता है। देह से भागी हुई आत्मा शून्य में विलीन हो सकती है, मानवता के प्रति क्या कर सकती है, कुछ नहीं। न जाने कितने करोड वर्षों में बनी पृथ्वी, इतने ही वर्षों बाद जीवन का अस्तित्व आयान जाने कितने तरह के जीवों की निर्मिति हुई, कितने विकास क्रमों के पश्चात मानव बना। क्या इसलिये कि इस प्रकृति के विकास को माया मोह नाम देकर पलायन कर लिया जाए संसार से?
धर्म कोई बुरा नहीं, त्याग और तपस्या महान है। वैराग्य भी मानवता का एक उत्तम स्वरूप है। किन्तु मृत्यु जो कि हर रूप में मृत्यु है उसे क्या महीनों भूखे प्यासे रह कर मोक्ष की कामना में निर्वाण में बदला जा सकता है? मृत्यु का यह महोत्सव किसी धर्म पर अंगुली नहीं उठाता, श्रध्दा जगाता है। किन्तु साथ ही बहुत गहरे उतर कर सोचा जाए तो ऐसी मृत्यु की कामना मात्र ही पलायन प्रतीत होती है। आत्महत्या और इस मोक्ष की कामना में बडा बारीक अन्तर है। दु:खों, अभावों से परेशान होकर मानव मृत्यु वरण करे तो वह आत्महत्या है, इन्हीं दु:खों के जाल को काट कर वैराग्य लेकर व्रतों, तपस्याओं और समाधि लेकर प्राप्त की गई मृत्यु पूजनीय है और निर्वाण के बाद मोक्ष प्राप्ति का साधन है। तो फिर किसी अति जर्जर, बीमार या वर्षों से कोमा में पडे, या व्याधि की अंतिम अवस्था में तडपते किसी व्यक्ति के लिये मर्सी डेथ को कई देशों सहित भारत में भी मान्यता क्यों नहीं दी गई है, इसकी कुछ वजह है, एक तो इसके दुरूपयोग की संभावना है, दूसरे प्रकृतिप्रदत्त जीवन को नष्ट करने का अधिकार मानव को नहीं। जीवन की तरह मृत्यु भी प्राकृतिक होनी चाहिये।
सामान्यतया अतिवृध्द जैन साधक या साध्वियां ही सल्लेखना का सहारा लेते हैं, कभी कभी युवा या प्रौढ साधक या साध्वियां भी सल्लेखना द्वारा मृत्युवरण करते हैं।
यूं तो अपने अपने धर्म की मान्यताएं हैं, और भारत में सभी धर्म स्वतन्त्र हैं। पर कुछ अद्भुत धार्मिक मान्यताएं आश्चर्य और सोच में डाल जाती हैं। समाधिस्थ होना और मोक्ष प्राप्त करना हमारे भारत के अतीत के लिये नया नहीं है पर बदलते परिप्रेक्ष्यों में ऐसी घटनाएं मानस पर कई प्रश्न छोड ज़ाती हैं।

Wednesday, September 23, 2009

स्वाध्याय - एक क्रांति

   स्वाध्याय के प्रणेता श्री पान्डुरन्ग शास्त्री आठवले, स्वाध्याय अर्थात जीवन जीने का सही तरीका, आज के भोग में लिप्त, पशुतुल्य बने जीवन तथा मानव जीवन में अंतर समझानें वाली, बैठे को खडा करनें वाली, खडे क़ो चलानें वाली, चलते को दौडानें वाली श्रीमद भगवतगीता के विचार जो कहती है
मुफ्त में लूंगा नहीं जीवन से लाचारी का नाश
 कभी निराश
बनूंगा नहीं
 लघुग्रंथि
रखूंगा नहीं
 कार्य करनें की शक्ति तुझमें है, कार्य करता जा पुकारता जा मदद तैयार है

 विश्वास
गवांउगां नहीं

क्या कभी हमने सोचा है, किसने हमे बनाया, कौन हमें सुलाता है, कौन हमारे बीते दिन की यादों को बनाये रखता है, कौन हमारे रक्त को बनाता है ऌन तमाम सवालों का एक ही जवाब है जरूर कोई शक्ति सतत कार्यरत है इस दुनिया में जो एक माँ की तरह अपनें बच्चों का अर्थात हमारा सतत ख्याल रखती हैइस शक्ति को हम कहते है भगवानहमारे लिए इतना कुछ करने वाले भगवान के लिए हम क्या करते है, यह चेतना हमारे अंदर जगा कर, उस भगवान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के कई सोपान स्वाध्याय नें हमे दिए हैं उनमें से एक है
त्रिकाल संध्या - जो कहती है दिन में सिर्फ तीन बार भगवान को याद करना
सुबह उठने के बाद , दोपहर को भोजन के समय और रात को सोने से पहले । तीनों कालों के लिए स्वाध्याय ने हमें अलग अलग तीन मंत्र दिए है।
सुबह उठने के बाद :
1.      कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमूले सरस्वती
करमध्ये तू गोविंद प्रभाते कर दर्शनं


हमारे हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, तथा हाथ के मूल मे सरस्वती का वास है अर्थात भगवान ने हमारे हाथों में इतनी ताकत दे रखी है,ज़िसके बल पर हम धन अर्थात लक्ष्मी अर्जित करतें हैं
जिसके बल पर हम विद्या  सरस्वती  प्राप्त करतें हैंइतना ही नहीं सरस्वती तथा लक्ष्मी जो हम अर्जित करते हैं, उनका समन्वय स्थापित करने के लिए प्रभू स्वयं हाथ के मध्य में बैठे हैं। ऐसे में क्यों न सुबह अपनें हाथ के दर्शन कर प्रभू की दी हुई ताकत का अहसास करते हुए तथा प्रभू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए दिन की अच्छी शुरूवात करें  

2.     समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मंडले
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पशं क्षमस्व में।


इस श्लोक के अंर्तगत धरती
माँ से माफी की याचना की गई हैकहा गया है, हे धरती माँ मै ना जाने कितने पाप कर रहा हूँ तुझ पर, रोज मैं तेरे उपर चलता हूँ, तुझे मेरे चरणों का स्पर्श होता है, फ़िर भी तू मुझ जैसों का बोझ उठाती है अतः तू मुझे माफ कर दे। यहां धरती माँ को बिष्णु की पत्नि कहा गया है

 

3.     वसुदेव सुतं देवं ,कंस चारूण मर्दनं
देवकी परमानंदं, कृष्णं वंदे जगतगुरूं।


वसुदेव के पुत्र, कंस तथा चारूण का मर्दन करने वाले, देवकी के लाल , भगवान श्रीकृष्ण ही इस जगत के गुरू हैं
उन्हें कोटि कोटि प्रणाम

दोपहर के खाने के समयः
       यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्च्यंते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात ।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरूष्व मदर्पणम ।।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यान्नं चतुविधम ।।
ॐ सह नाववतु सह नव भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विध्दिषावहै ।।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।

यज्ञशिष्ट याने यज्ञ से देवों को समर्पण करके बाकी बचा हुआ उपभोगने वाला सज्जन सभी पापों से मुक्त होता है, जो केवल अपने लिए ही स्वार्थ सिध्दि से अन्न पकाता है वह पाप का अन्न भक्षण करता हैहे अर्जुन तू जो जो कर्म करेगा, जो जो सेवन, जो जो हवन करेगा, जो जो देगा अथवा जो जो तप याने व्रताचरण करेगा वह सभी मुझे परमेश्वर को अर्पण करमै परमात्मा अग्निरूप और सभी प्राणियों के आश्रय से प्राण, अपान वगैरह आयुओं से युक्त होकर चतुर्विद्य खाद्य, पेय, लेह्य, और चौष्य अन्न पचाता हूँ। हे परमात्मन् हम दोनो का गुरू तथा शिष्य का बराबर रक्षण कर, हम दोनों ही समान बल प्राप्त करें, हम दोनो में परस्पर द्वेष न होहम दोनो की अध्ययन की हुई विद्या तेजस्वी रहेहमारे सभी संतापों की निवृत्ति होने दो
हमें भगवान की कृपा से अन्न मिलता हैपकाने वाला या उगाने वाला भले कोई भी हो, तो भी उसके पीछे भगवान की ही कृपा होती हैहम कहते हैं कि किसान बीज बोते हैं और तब अन्न मिलता है, लेकिन प्रथम बीज कहाँ से आयाखेत में चार दानें बोनें के बाद चार हजार दाने बनाने मे किसान की कौन सी शक्ति काम मे आयीजो जीव को जन्म देता ह,ै वही उसके पोषण की चिंता करता हैजिसने दांत दिये उसी ने दानें दियेअरे, उस करूणानिधि नें अपने शरीर की रचना भी कैसे की हैज्वार बाजरे की रोटी खायें या गेहूँ की रोटी खायें सभी का खून लाल ही बनता हैखाने के बाद अन्न किस प्रकार पचता है, इसकी चिंता कौन करता हैअन्नरस खून में मिलकर सतत् शक्तिप्रदान करता है, इतना ही हम जानते हैंबडे बडे वैज्ञानिक भी विविध पदार्थों से एक ही रसायन नही बना पाते हैऌसीलिए इस अदृश्य शक्ति को जिसने हमारे लिए अन्न उगाया और् हमारा खाया हुया पचाया, लाल खून बनाया है, उसे खाते समय कृतज्ञतार्पूवक नमस्कार करना ही हमारी संस्कृती का आदेश हैखाना खाते समय भगवान को याद करना ही चाहिए
भोजन सिर्फ उदर भरण ही नहीं है वह एक यज्ञकर्म हैसभी यज्ञों का स्वामी और भोक्ता भगवान ही है

Tuesday, September 22, 2009

शहद की एक बूंद

कुरुक्षेत्र के भीषण रक्तपात के बाद, अपने पुत्रों को खो देने के शोक से संतृप्त धृतराष्ट्र का दु:ख विदुर के समक्ष अश्रुधारा के रूप में बह निकलातब उस सेविकापुत्र ने वर्तमान स्थितियों के अनुकूल एक उपदेशात्मक नीति-कथा का वर्णन किया -
आज एक ब्राह्मण की कथा आपको बताता हूं, जो जंगली पशुओं से भरे जंगल में पथ-भ्रमित हो गया थाशेर व चीते, हाथी और भालूकी चीख, चिंघाड, और गर्जना ऐसा दृश्य मृत्यु के देवता, यम के मन में भी सिहरन पैदा कर सकते थे ब्राह्मण को भी उस वातावरण ने जड बना दिया थाउसका पूरा शरीर भय से कांप रहा थाउसका मस्तिष्क आशंकाओं से भरा हुआ था और उसका भयभीत मन किसी देवदूत को व्याकुल हो तलाश रहा था जो उसके प्राणों को उन भयावह वनचरों से बचा सके लेकिन उन बर्बर जानवरों की गर्जना से पूरा जंगल प्रतिध्वनित होकर उनकी उपस्थिति का आभास करा रहा था ब्राह्मण को ऐसा प्रतीत हो रहा था - जहां वह जा रहा है, उनकी गर्जना, प्रतिछाया बन उसका पीछा कर रही है
अचानक उसको एहसास हुआ कि उस भयावह जंगल ने एक घना जाल सा बुनकर उसे और भयानक बना दिया है, उसकी गहनता एक डरावनी स्त्री का रूप धरे, अपनी दोनो बांहे फैला उसे अपने में विलीन होने का निमंत्रण दे रही है शिखरों से ऊंचे, आसमान को छूते हुए पेड क़िसी पंचंमुखी सर्प की भांति उसको डसने आ रहे हो
जंगल के मध्य में एक कुंआ था जो घास तथा घनी और उलझी लताओं से ढका हुआ थावह उस कुएं में गिर पडा और एक लता के सहारे, किसी पके हुए फल की भांति, उलझकर सिर के बल उलटा लटक गया
डर के बादल गहराते जा रहे थेकुएं के तल में उसे एक राक्षसीय सर्प दिखाई दे रहा थाकुएं की मुंडेर पर एक बडा काला हाथी जिसके छ: मुख और बारह पैर थे, मंडरा रहा थाऔर लताओं के आधिपत्य में बने मधुमक्खियों के छत्ते के चारों और विशालकाय और वीभत्स मक्खियां उसके अंदर और बाहर भिनभिना रही थीवह उसमें से टपकते सुस्वादु, मीठे शहद का आनन्द लेना चाहती थी, शहद जिसके स्वाद में हर जीव उन्मत्त हो जाता हैं, शहद जिसके वास्तविक स्वाद का वर्णन एक बालक ही कर सकता है
शहद की टपकती हुई कुछ बूंदे लटके हुए ब्राह्मण के मुख पर आकर गिरीउन परिस्थितियों में भी वह उन शहद की बूंदो के स्वाद के आनंद का मोह संवरण न कर सका जितनी ज्यादा बूंदे गिरती, उसको उतना ही संतोष प्राप्त होता था लेकिन उसकी तृष्णा शान्त नहीं हो पा रही थीऔर! और अधिक! -  अभी मैं जीवित रहना चाहता हूं! - उसने कहा - '' मैं जीवन का आनंद उठाना चाहता हूं!''
जब वह शहद की बूंदो के स्वाद में आनंदमग्न था, कुछ सफेद और काले मूषक उन लताओं की जडाे को काट रहे थेभय ने उसको चारों ओर से घेर लिया था मांसाहारियों का भय, डरावनी स्त्री का भय, राक्षसीय सर्प का भय, विशालकाय हाथी का भय, उन लताओं का भय जिनको चूहें अपने तेज दांतो से कुतर रहे थे, विशालकाय भिनभिनाती मक्खियों का भय
भय के उस बहाव में वह झूल रहा था, अपनी आशाओं के साथ, शहद के रसास्वादन की त्रीव आकांक्षा लिए, उसमें संसार-रूपी जंगल में जीवित रहने की प्रबल इच्छा थी
यह जंगल एक नश्वर संसार है; इस संसार की भौतिकता ही एक कुआं है और उस अंधकारमय कुएं के चारो ओर का स्थान किसी व्यक्ति विशेष के जीवन चक्र को दर्शाता है जंगली पशु रोगो का प्रतीक है तो डरावनी स्त्री नश्वरता का द्योतककुएं के तल में बैठा विशालकाय सर्प वह  काल  है, जो समय को लील जाने को तत्पर है; एक वास्तविक और संदेहरहित विनाशक की भांति लताओं के मोह-पाश में मनुष्य झूल रहा है जो स्वरक्षित जीवन की मूल प्रवृत्ति है और जिनसे कोई भी जीव अछूता नहीं हैकुएं के मुंडेर पर अपने पैरो से पेड क़ो रौंदता छ: मुखी हाथी वर्ष का प्रतीक र्है छ: मुंह अर्थात् छ: ॠतुएं और बारह पैर, वर्ष के बारह महीनों का प्रतिनिधित्व करते है लताओं को कुतरते चूहे वह दिन व रात है जो मनुष्य के जीवन की अवधि को अपने पैने दांतो से कुतर कर छोटा कर रहे हैअगर मक्खियां हमारी इच्छाएं है तो शहद की बूंदे वह तृप्ति है जो इच्छाओं में निहित हैहम सभी मनुष्य इच्छाओं के गहरे समुद्र में शहद रूपी काम-रस का भोग करते हुए डूब उतरा रहे है
इस प्रकार विद्वानों ने जीवन चक्र की व्याख्या की हैं, और इनसे मुक्ति प्र्र्राप्त करने के उपायों से अवगत कराया
धृतराष्ट्र, विदुर के द्वारा व्यक्त किए गए भावों के सार को समझ पाने में असमर्थ थे कि मनुष्य जीवन की डोर से लटका हुआ अनेकानेक भय से घिरा रहता है, लेकिन फिर भी उन शहद की बूंदो के स्वाद में अपने को लीन रखता है और हर्षित हो उठता है, ''अधिक! और अधिक! मैं जीवित रहना चाहता हूं और जीवन का आनंद उठाना चाहता हूं'' और उस विवेकहीन राजा की भांति हम भी जीवन का तथ्य नहीं समझ पाते है और कर्म भूमि का त्याग कर पाप के दलदल में गिर जाते हैंऔर विवशता में अपनी संपूर्ण शक्ति का व्यय इच्छाओं की तृप्ति में कर देते हैं
अगर हम विचार करें तो यह सिध्दान्त एक शक्तिशाली हथियार की तरह हम अपने चरित्र निर्माण, अखंडता बनाये रखनें तथा एक ऐसे समाज की स्थापना में, उपयोग में ला सकते है जो  मत्सय न्याय  (बडा छोटे का भक्षण करता है) की विचारधाराओं से मुक्त हो, आत्माभिमान से परें हो, जिसका एक ही उद्देश्य हो, एक ऐसे समाज और संसार की स्थापना जिसकी नींव धर्म पर रखी गई हो

Monday, September 21, 2009

रामायण की विश्व यात्रा

भारत के इतिहास में राम जैसा विजेता कोई नहीं हुआ। उन्होंने रावण और उसके सहयोगी अनेक राक्षसों का वध कर के न केवल भारत में शांति की स्थापना की बल्कि सुदूर पूर्व और आस्ट्रेलिया तक में सुख और आनंद की एक लहर व्याप्त कर दी। श्री राम अदभुत सामरिक पराक्रम व्यवहार कुशलता और विदेश नीति के स्वामी थे। उन्होंने किसी देश पर अधिकार नहीं किया लेकिन विश्व के अनेकों देशों में उनकी प्रशंसा के विवरण मिलते हैं जिससे पता चलता है कि उनकी लोकप्रियता दूर दूर तक फैली हुई थी।
आजकल मेडागास्कर कहे जाने वाले द्वीप से लेकर आस्ट्रेलिया तक के द्वीप समूह पर रावण का राज्य था। राम विजय के बाद इस सारे भू भाग पर राम की कीर्ति फैल गयी। राम के नाम के साथ रामकथा भी इस भाग में फैली और बरसों तक यहां के निवासियों के जीवन का प्रेरक अंग बनी रही।
श्री लंका और बर्मा में रामायण कई रूपों में प्रचलित है। लोक गीतों के अतिरिक्त रामलीला की तरह के नाटक भी खेले जाते हैं। बर्मा में बहुत से नाम राम के नाम पर हैं। रामावती नगर तो राम नाम के ऊपर ही स्थापित हुआ था।अमरपुर के एक विहार में राम लक्ष्मण सीता और हनुमान के चित्र आज तक अंकित हैं।
मलयेशिया में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहां मुस्लिम भी अपने नाम के साथ अक्सर राम लक्ष्मण और सीता नाम जोडते हैं।यहां रामायण को ''हिकायत सेरीराम'' कहते हैं।
थाईलैंड के पुराने रजवाडों में भरत की भांति राम की पादुकाएं लेकर राज्य करने की परंपरा पाई जाती है। वे सभी अपने को रामवंशी मनते थे।यहां ''अजुधिया'' ''लवपुरी'' और ''जनकपुर'' जैसे नाम वाले शहर हैं । यहां पर राम कथा को ''रामकीर्ति'' कहते हैं और मंदिरों में जगह जगह रामकथा के प्रसंग अंकित हैं।
हिन्द चीन के अनाम में कई शिलालेख मिले हैं जिनमें राम का यशोगान है। यहां के निवासियों में ऐसा विश्वास प्रचलित है कि वे वानर कुल से उत्पन्न हैं और श्रीराम नाम के राजा यहां के सर्वप्रथम शासक थे। रामायण पर आधारित कई नाटक यहां के साहित्य में भी मिलते है।
कम्बोडिया में भी हिन्दू सभ्यता के अन्य अंगों के साथ साथ रामायण का प्रचलन आज तक पाया जाता है। छढी शताब्दी के एक शिलालेख के अनुसार वहां कई स्थानों पर रामायण और महाभारत का पाठ होता था।
जावा में रामचंद्र राष्ट्रीय पुरूषोत्तम के रूप में सम्मानित हैं। वहां की सबसे बडी नदी का नाम सरयू है। ''रामायण'' के कई प्रसंगों के आधार पर वहां आज भी रात रात भर कठपुतलियों का नाच होता है। जावा के मंदिरों में वाल्मीकि रामायण के श्लोक जगह जगह अंकित मिलते हैं।
सुमात्रा द्वीप का वाल्मीकि रामायण में ''स्वर्णभूमि'' नाम दिया गया है। रामायण यहां के जनजीवन में वैसे ही अनुप्राणित है जैसे भारतवासियों के। बाली द्वीप भी थाईलैंड जावा और सुमात्रा की तरह आर्य संस्कृति का एक दूरस्थ सीमा स्तम्भ है। ''रामायण'' का प्रचार यहां भी घर घर में है।
इन देशों के अतिरिक्त फिलीपाइन चीन जापान और प्राचीन अमरीका तक राम कथा का प्रभाव मिलता है।
मैक्सिको और मध्य अमरीका की मय सभ्यता और इन्का सभ्यता पर प्राचीन भारतीय संस्कृति की जो छाप मिलती है उसमें रामायण कालीन संस्कारों का प्राचुर्य है। पेरू में राजा अपने को सूर्यवंशी ही नहीं ''कौशल्यासुत राम'' वंशज भी मानते हैं।''रामसीतव'' नाम से आज भी यहां ''राम सीता उत्सव'' मनाया जाता है।

Saturday, September 19, 2009

रसखान के कृष्ण

मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं गोकुल गाँव के ग्वालन
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन

पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन

जो खग हौं बसेरो करौं मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन
।।



हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान हैरसखान को रस की खान कहा गया हैइनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैंरसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निगुर्ण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रध्दावनत हैंरसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैंयथा - बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदिउन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधी में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है
रसखान का अपने आराध्य के प्रति इतना गम्भीर लगाव है कि ये प्रत्येक स्थिति में उनका सान्निध्य चाहते हैंचाहे इसके लिये इन्हें कुछ भी परिणाम सहना पडे। इसीलिये कहते हैं कि आगामी जन्मों में मुझे फिर मनुष्य की योनि मिले तो मैं गोकुल गाँव के ग्वालों के बीच रहने का सुयोग मिलेअगर पशु योनि मिले तो मुझे ब्रज में ही रखना प्रभु ताकि मैं नन्द की गायों के साथ विचरण कर सकूँ। अगर पत्थर भी बनूं तो भी उस पर्वत का बनूँ जिसे हरि ने अपनी तर्जनी पर उठा ब्रज को इन्द्र के प्रकोप से बचाया थापक्षी बना तो यमुना किनारे कदम्ब की डालों से अच्छी जगह तो कोई हो ही नहीं सकती बसेरा करने के लिये
इसी प्रकार रसखान ने समस्त शारीरिक अवयवों तथा इन्द्रियों की सार्थकता तभी मानी है, जिनसे कि वे प्रभु के प्रति समर्पित रह सकें
जो रसना रस ना बिलसै तेविं बेहु सदा निज नाम उचारै
मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुंज कुटीरन देहु बुहारन

सिध्दि समृध्दि सबै रसखानि लहौं ब्रज-रेनुका अंग सवारन

खास निवास मिले जु पै तो वही कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन
।।

रसखान अपने आराध्य से विनती करते हैं कि मुझे सदा अपने नाम का स्मरण करने दो ताकि मेरी जिव्हा को रस मिलेमुझे अपने कुंज कुटीरों में झाडू लगा लेने दो ताकि मेरे हाथ सदा अच्छे कर्म कर सकेंब्रज की धूल से अपना शरीर संवार कर मुझे आठों सिध्दियों का सुख लेने दोऔर यदि निवास के लिये मुझे विशेष स्थान देना ही चाहते हो प्रभु तो यमुना किनारे कदम्ब की डालों से अच्छी जगह तो कोई हो ही नहीं, हाँ आपने अनेकों लीलाएं रची हैं
रसखान के कृष्ण की बाललीला में उनके बचपन की अनेकों झाँकियां हैं
धूरि भरै अति सोभित स्याम जु तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरै अँगना पग पैंजनी बाजती पीरी कछौटी।
वा छवि को रसखान विलोकत बारत काम कला निज कोठी।
काग के भाग बडे सजनी हरि हाथ सौं ले गयो रोटी।।

बालक श्यामजू का धूल से सना शरीर और सर पर बनी सुन्दर चोटी की शोभा देखने लायक हैऔर वे पीले वस्त्रों में, पैरों में पायल बांध माखन रोटी खेलते खाते घूम रहे हैंइस छवि पर रसखान अपनी कला क्या, सब कुछ निछावर कर देना चाहते हैंतभी एक कौआ आकर उनके हाथ से माखन-रोटी ले भागता है तो रसखान कह उठते हैं कि देखो इस निकृष्ट कौए के भाग्य भगवान के हाथ की रोटी खाने को मिली है
कृष्ण के प्रति रसखान का प्रेम स्वयं का तो है ही मगर वह गोपियों का प्रेम बन कृष्ण की बाल्यावस्था से यशोदा नन्द बाबा के प्रेम से आगे जा समस्त ब्रज को अपने प्रेम में डुबो ले जाता हैउनकी शरारतों की तो सीमा नहींवे गोपियों को आकर्षित करने के लिये विविध लीलाएं करते हैं जैसे कभी बाँसुरी के स्वरों से किसी गोपी का नाम निकालते हैंकभी रास रचते हैं, कभी प्रेम भरी दृष्टि से बींध देते हैं
अधर लगाई रस प्याई बाँसुरी बजाय,
 मेरो नाम गाई हाय जादू कियौ मन में।
नटखट नवल सुघर नन्दनवन में
 करि कै अचेत चेत हरि कै जतम मैं।
झटपट उलटि पुलटी परिधान,
 जानि लागीं लालन पे सबै बाम बन मैं।
रस रास सरस रंगीली रसखानि आनि,
 जानि जोर जुगुति बिलास कियौ जन मैं।

एक गोपी अपनी सखि से कहती है कि कृष्ण ने अपने अधरों से रस पिला कर जब बाँसुरी में मेरा नाम भर कर बजाया तो मैं सम्मोहित हो गईनटखट युवक कृष्ण की इस शरारत से अचेत मैं हरि के ध्यान में ही खो गईऔर बांसुरी के स्वर सुन हर गोपी को लगा कि उसे कृष्ण ने बुलाया है तो सब उलटे सीधे कपडे ज़ल्दी जल्दी पहन, समय का खयाल न रख वन में पहुँच गईंतब रंगीले कृष्ण ने वहाँ आकर रासलीला की और नृत्य संगीत से आनंद का वातावरण बना दिया
रंग भरयौ मुस्कात लला निकस्यौ कल कुंज ते सुखदाई।
मैं तबहीं निकसी घर ते तनि नैन बिसाल की चोट चलाई।
घूमि गिरी रसखानि तब हरिनी जिमी बान लगैं गिर जाई।
टूट गयौ घर को सब बंधन छुटियो आरज लाज बडाई।।

गोपी अपने हृदय की दशा का वर्णन करती हैजब मुस्कुराता हुआ कृष्ण सुख देने वाले कुंज से बाहर निकला तो संयोग से मैं भी अपने घर से निकलीमुझे देखते ही उसने मुझ पर अपने विशाल नेत्रों के प्रेम में पगे बाण चलाए मैं सह न सकी और जिस प्रकार बाण लगने पर हिरणी चक्कर खा कर भूमि पर गिरती है, उसी प्रकार मैं भी अपनी सुध-बुध खो बैठीमैं सारे कुल की लाज और बडप्पन छोड क़ृष्ण को देखती रह गई
रसखान ने रासलीला की तरह फागलीला में भी कृष्ण और गोपियों के प्रेम की मनोहर झाँकियां प्रस्तुत की हैं
खेलत फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहिं दीजै।
दैखति बनि आवै भलै रसखान कहा है जौ बार न कीजै।।
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यौं त्यौं छबीलो छकै छबि छाक सौं हेरै हँसे न टरै खरौ भीजै।।

एक गोपी अपनी सखि से राधा-कृष्ण के फाग का वर्णन करते हुए बताती है - हे सखि! मैं ने कृष्ण और उनकी प्यारी राधा का फाग खेलते हुए देखा है, उस समय की उस शोभा को कोई उपमा नहीं दी जा सकतीऔर कोई ऐसी वस्तु नहीं जो उस स्नेह भरे फाग के दृश्य पर निछावर नहीं की जा सकेज्यों ज्यों सुन्दरी राधा चुनौती दे देकर एक के बाद दूसरी पिचकारी चलाती हैंवैसे वैसे छबीला कृष्ण उनके उस रंग भरे रूप को छक कर पीता हुआ वहीं खडा मुस्कुरा कर भीगता रहता है
रसखान के भक्ति काव्य में अलौकिक निगुर्ण कृष्ण भी विद्यमान हैंवे कहते हैं -
संभु धरै ध्यान जाकौ जपत जहान सब,
 ताते न महान और दूसर अब देख्यौ मैं।
कहै रसखान वही बालक सरूप धरै,
 जाको कछु रूप रंग अबलेख्यौ मैं।
कहा कहूँ आली कुछ कहती बनै न दसा,
 नंद जी के अंगना में कौतुक एक देख्यौ मैं।
जगत को ठांटी महापुरुष विराटी जो,
 निरजंन, निराटी ताहि माटी खात देख्यौ मैं।

शिव स्वयं जिसे अराध्य मान उनका ध्यान करते हैं, सारा संसार जिनकी पूजा करता है, जिससे महान कोई दूसरा देव नहींवही कृष्ण साकार रूप धार कर अवतरित हुआ है और अपनी अद्भुत लीलाओं से सबको चौंका रहा हैयह विराट देव अपनी लीला के कौतुक दिखाने को नंद बाबा के आंगन में मिट्टी खाता फिर रहा है
गावैं गुनि गनिका गंधरव औ नारद सेस सबै गुन गावत।
नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
जोगी जती तपसी अरु सिध्द निरन्तर जाहि समाधि लगावत।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत।

जिस कृष्ण के गुणों का गुणगान गुनिजन, अप्सरा, गंर्धव और स्वयं नारद और शेषनाग सभी करते हैंगणेश जिनके अनन्त नामों का जाप करते हैं, ब्रह्मा और शिव भी जिसके स्वरूप की पूर्णता नहीं जान पाते, जिसे प्राप्त करने के लिये योगी, यति, तपस्वी और सिध्द निरतंर समाधि लगाए रहते हैं, फिर भी उस परब्रह्म का भेद नहीं जान पातेउन्हीं के अवतार कृष्ण को अहीर की लडक़ियाँ थोडी सी छाछ के कारण दस बातें बनाती हैं और नाच नचाती हैं
एक और सुन्दर उदाहरण -
वेही ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन दिन,
 सदासिव सदा ही धरत ध्यान गाढे हैं।
वेई विष्णु जाके काज मानि मूढ राजा रंक,
 जोगी जती व्हैके सीत सह्यौ अंग डाढे हैं।
वेई ब्रजचन्द रसखानि प्रान प्रानन के,
 जाके अभिलाख लाख लाख भाँति बाढे हैं।
जसुदा के आगे वसुधा के मान मोचन ये,
 तामरस-लोचन खरोचन को ठाढे हैं।

कृष्ण की प्राप्ति के लिये सारा ही जगत प्रयत्नशील हैये वही कृष्ण हैं जिनकी पूजा ब्रह्मा जी दिन रात करते हैंसदाशिव जिनका सदा ही ध्यान धरे रहते हैंयही विष्णु के अवतार कृष्ण जिनके लिये मूर्ख राजा और रंक तपस्या करके सर्दी सहकर भी तपस्या करते हैंयही आनंद के भण्डार कृष्ण ब्रज के प्राणों के प्राण हैंजिनके दर्शनों की अभिलाषाएं लाख-लाख बढती हैंजो पृथ्वी पर रहने वालों का अहंकार मिटाने वाले हैंवही कमल नयन कृष्ण आज देखो यशोदा माँ के सामने बची खुची मलाई लेने के लिये मचले खडे हैं
वस्तुत: रसखान के कृष्ण चाहे अलौकिक हों पर वे भक्तों को आनंदित करने के लिये और उनके प्रेम को स्वीकार करने के लिये तथा लोक की रक्षा के लिये साकार रूप ग्रहण किये हैं

Friday, September 18, 2009

मीरां का भक्ति विभोर काव्य-1


ऐरी म्हां दरद दिवाणी
म्हारा दरद न जाण्यौ कोय
घायल री गत घायल जाण्यौ
हिव
डो अगण सन्जोय।।
जौहर की गत जौहरी जाणै
क्या जाण्यौ जण खोय
मीरां री प्रभु पीर मिटांगा
जो वैद
साँवरो होय
।।

- मीरां
   
भावार्थ - 
ऐ री सखि मुझे तो प्रभु के प्रेम की पीडा भी पागल कर जाती है
इस पीडा को कोई नहीं समझ सकासमझता भी कैसेयूं भी दर्द को वही समझ सकता है जिसने इस दर्द को सहा हो, प्रभु के प्रेम में घायल हुआ होमेरा हृदय तो इस आग को भी संजोये हुए हैरतनों को तो एक जौहरी ही परख सकता है, जिसने प्रेम की पीडा रूपी यह अमूल्य रत्न ही खो दिया हो वह क्या जानेगाअब मीरा की पीडा तो तभी मिटेगी अगर साँवरे श्री कृष्ण ही वैद्य बन कर चले आएं

Thursday, September 17, 2009

मां शारदा देवी का अनुपम वात्सल्य

सौ साल से भी अधिक समय की बात है कलकत्ता के पास जयरामबाटी नामक छोटे से देहात में मां शारदामणिदेवी का जन्म हुआ थाबचपन से ही उनका जीवन भक्तिभाव और सादगी से परिपूर्ण रहा1859 में रामकृष्ण देव से विवाह के पश्चात यह जीवन और भी अधिक गौरवशाली ऊज्ज्वल और पवित्रता के प्रतीक रूप में न केवल भारत बल्कि सारे विश्व में विख्यात हुआ उन्होनें अपने अदभुत वात्सल्य से अनेक अपराधियों का जीवन बदल दिया था
पश्चिम बम्गाल में उन दिनों मलबेरी और सिल्क के कीडों सेतूर की खेती होती थीउससे अधिकतर मुसलमान परिवार अपनी रोजी रोटी कमाते थेलेकिन  ब्रिटिश कानून और ज्यादती ने इन परिवारों को भूख की कगार पर लाकर खडा कर दिया  ईमानदारी से जीवन निर्वाह करना कठिन हो गया था और ऐसे हालात में इस गरीबी की मार को झेलना मुश्किल थाअब चोरी करना डाका डालना खून खाराबा कर पैसे बनाना स्वाभाविक सा हो गया था
ऐसी ही एक टोली का नेता था अमजदएक दिन अमजद कुछ केलेमां शारदामणिदेवी को देते हुए बोला ''मां क्या आप इन केलों की भेंट श्री ठाकुर रामकृष्णदेव की पूजा के लिये स्वीकार करेंगी''
मां ने बडी ममता भरे स्वर में कहा, ''क्यों नहीं बेटाआप श्री ठाकुर को भोग लगाना चाहते हो तो मुझे सब स्वीकार हैठाकुर तो सबके हैं''  वहां खडी श्री मां की अन्य सहेलियों ने आक्षेप लेते हुए कहा ''मां यह क्या कर रही हैंयह फल हम नहीं ले सकते क्योंकि ये लोग चोर डाकू हैंक्या ठाकुर इनका दिया हुआ भोग स्वीकार करेंगे''
कुछ नाराज होते हुए मां ने अपनी सहेलियों को फटकारते हुए कहा ''क्यों भई आपको क्या ऐतराज है? हम केवल त्रुटियां ही देखते रहें तो हम में औैर औरों  में क्या फर्क रहेगाक्या ठाकुर के चरणों में केवल सदाचारी को ही स्थान हैतो फिर इन लोगों का क्या होगा? इनकी उन्नति कैसे होगी? इन्हें पनाह कौन देगा और तो और मैं सबकी मां हूंमेरी नजर में कोई दुराचारी नहींकोई हिंदू नहींकोई मुसलमान नहींसब ईश्वर की संतान हैंसब मनुष्य हैं