महाकवि सूर को बाल-प्रकृति तथा बालसुलभ चित्रणों की दृष्टि से विश्व में अद्वितीय माना गया है। उनके वात्सल्य वर्णन का कोई साम्य नहीं, वह अनूठा और बेजोड है। बालकों की प्रवृति और मनोविज्ञान का जितना सूक्ष्म व स्वाभाविक वर्णन सूरदास जी ने किया है वह हिन्दी के किसी अन्य कवि या अन्य भाषाओं के किसी कवि ने नहीं किया है। शैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे न जाने कितने चित्र सूर के काव्य में वर्णित हैं।
वैसे तो श्रीकृष्ण के बाल-चरित्र का वर्णन श्रीमद्भागवत गीता में भी हुआ है। और सूर के दीक्षा गुरू वल्लभाचार्य श्रीकृष्ण के बालरूप के ही उपासक थे जबकि श्रीकृष्ण के गोपीनाथ वल्लभ किशोर रूप को स्वामी विठ्ठलनाथ के समय मान्यता मिली। अत: सूर के काव्य में कृष्ण के इन दोनों रूपों की विस्तृत अभिव्यंजना हुई।
सूर की दृष्टि में बालकृष्ण में भी परमब्रह्म अवतरित रहे हैं, उनकी बाल-लीलाओं में भी ब्रह्मतत्व विद्यामान है जो विशुध्द बाल-वर्णन की अपेक्षा, कृष्ण के अवतारी रूप का परिचायक है। तभी तो, कृष्ण द्वारा पैर का अंगूठा चूसने पर तीनों लोकों में खलबली मच जाती है -
कर पग गहि अंगूठा मुख मेलत
प्रभु पौढे पालने अकेले हरषि-हरषि अपने संग खेलत
शिव सोचत, विधि बुध्दि विचारत बट बाढयो सागर जल खेलत
बिडरी चले घन प्रलय जानि कैं दिगपति, दिगदंती मन सकेलत
मुनि मन मीत भये भव-कपित, शेष सकुचि सहसौ फन खेलत
उन ब्रजबासिन बात निजानी। समझे सूर संकट पंगु मेलत।
प्रभु पौढे पालने अकेले हरषि-हरषि अपने संग खेलत
शिव सोचत, विधि बुध्दि विचारत बट बाढयो सागर जल खेलत
बिडरी चले घन प्रलय जानि कैं दिगपति, दिगदंती मन सकेलत
मुनि मन मीत भये भव-कपित, शेष सकुचि सहसौ फन खेलत
उन ब्रजबासिन बात निजानी। समझे सूर संकट पंगु मेलत।
दही बिलौने की हठ को देख कर वासुकी और शिव भयभीत हो जाते हैं -
मथत दधि, मथनि टेकि खरयों
आरि करत मटुकि गहि मोहन
बासुकी,संभु उरयो।
आरि करत मटुकि गहि मोहन
बासुकी,संभु उरयो।
कृष्ण विष्णु के अवतार हैं अत: वे बाल रूप में भी असुरों का सहज ही वध करते वर्णित किये गए हैं। कंस द्वारा भेजी गई पूतना के कपट को वे अपने नवजात रूप में ही भा/प उसके विषयुक्त स्तन पान करते करते उसके प्राण हर लेते हैं।
कपट करि ब्रजहिं पूतना आई
अति सुरूप विष अस्तन लाए, राजा कंस पठाई
कर गहि छरि पियावति, अपनी जानत केसवराई
बाहर व्है के असुर पुकारी, अब बलि लेत छुहाई
गई मुरछाह परी धरनी पर, मनौ भुवंगम खाई।
अति सुरूप विष अस्तन लाए, राजा कंस पठाई
कर गहि छरि पियावति, अपनी जानत केसवराई
बाहर व्है के असुर पुकारी, अब बलि लेत छुहाई
गई मुरछाह परी धरनी पर, मनौ भुवंगम खाई।
सूर के वात्सल्य वर्णन में यद्यपि उनके विष्णु अवतार होने की झलके तो अवश्य मिलती है, तथापि ये वर्णन किसी भी माँ के अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य का प्रतिनिधित्व करते हैं - यशोदा जी श्री कृष्ण को पालने में झुला रही हैं और उनको हिला-हिला कर दुलराती हुई कुछ गुनगुनाती भी जा रही हैं जिससे कि कृष्ण सो जाएं।
जसोदा हरि पालने झुलावै
हलरावे, दुलराई मल्हावे, जोई-सोई कछु गावै
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै
तू काहैं नहिं बेगहीं आवै, तोको कान्ह बुलावैं।
हलरावे, दुलराई मल्हावे, जोई-सोई कछु गावै
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै
तू काहैं नहिं बेगहीं आवै, तोको कान्ह बुलावैं।
माँ की लोरी सुन कर कृष्ण अपनी कभी पलक बन्द कर लेते हैं, कभी होंठ फडक़ाते हैं। उन्हें सोता जान यशोदा भी गुनगुनाना बंद कर देती हैं और नन्द जी को इशारे से बताती हैं कि कृष्ण सो गए हैं। इस अंतराल में कृष्ण अकुला कर फिर जाग पडते हैं, तो यशोदा फिर लोरी गाने लगती हैं।
कबहूँ पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहूँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन व्है रहि रहि, करि करि सैन बतावे।
इहिं अंतर अकुलाई उठे हरि, जसुमति मधुर गावैं।
सोवत जानि मौन व्है रहि रहि, करि करि सैन बतावे।
इहिं अंतर अकुलाई उठे हरि, जसुमति मधुर गावैं।
प्रस्तुत पद में सूर ने अपने अबोध शिशु को सुलाती माता का बडा ही सुन्दर चित्रण किया है।
माँ के मन की लालसा व स्वप्नों को भी सूर ने बडे ज़ीवंत ढंग से अपने पदो में उतारा है । जैसे -
जसुमति मन अभिलाष करै।
कब मेरो लाल घुटुरुवनि रैंगे, कब धरनी पग द्वेक धरै।
कब द्वै दाँत दूध कै देखौं, कब तोतैं मुख बचन झरैं।
कब नन्दहिं बाबा कहि बोले, कब जननी कहिं मोहिं ररै।
कब मेरो लाल घुटुरुवनि रैंगे, कब धरनी पग द्वेक धरै।
कब द्वै दाँत दूध कै देखौं, कब तोतैं मुख बचन झरैं।
कब नन्दहिं बाबा कहि बोले, कब जननी कहिं मोहिं ररै।
सुत मुख देखि जसोदा फूली
हरषति देखि दूध की दँतिया, प्रेम मगन तन की सुधि भूली।
बाहर तैं तब नन्द बुलाए, देखौ धौं सुन्दर सुखदाई।
तनक-तनक सी दूध दंतुलिया, देखौ, नैन सफल करो आई।
हरषति देखि दूध की दँतिया, प्रेम मगन तन की सुधि भूली।
बाहर तैं तब नन्द बुलाए, देखौ धौं सुन्दर सुखदाई।
तनक-तनक सी दूध दंतुलिया, देखौ, नैन सफल करो आई।
श्री कृष्ण के दाँत निकलने पर यशोदा माता की खुशी का पारावार नहीं रहता, वे नन्द को बुला कर उनके दूध के दाँत देख कर अपने नेत्र सफल करने के लिये कहती हैं।
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ।
मुख में तीनि लोक दिखाए, चकित भई नन्द-रनियाँ।
घर-घर हाथ दिखावति डोलति, बाँधति गरै बघनियाँ।
सूर स्याम को अद्भुत लीला नहिं जानत मुनि जनियाँ।
मुख में तीनि लोक दिखाए, चकित भई नन्द-रनियाँ।
घर-घर हाथ दिखावति डोलति, बाँधति गरै बघनियाँ।
सूर स्याम को अद्भुत लीला नहिं जानत मुनि जनियाँ।
माँ को अपने लाडले पर बडा नाज है सो बडी चिन्तित रहती है कि उसे किसी की नजर ना लग जाए। यही कारण है कि जब एक दिन माँ की गोद में अलसाते कान्हा ने जोर की जमुहाई लेकर अपने मुख में तीनों लोकों के दर्शन करवा दिये तो माँ डर गई और उनका हाथ ज्योतिषियों को दिखाया और बघनखे का तावीज ग़ले में डाल दिया।
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुनि चलत रेनु तन-मण्डित, मुख दधि लेप किये ।
कंठुला कंठ, ब्रज केहरि-नख, राजत रुधिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन-मण्डित, मुख दधि लेप किये ।
कंठुला कंठ, ब्रज केहरि-नख, राजत रुधिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।
कृष्ण घुटनों के बल चलने लगे हैं, उनके हाथों में मक्खन है, मुँह पे दही लगा है, शरीर मिट्टी से सना है। मस्तक पर गोरोचन का तिलक है और उनके घुंघराले बाल गालों पर बिखरे हैं। गले में बघनखे का कंठुला शोभायमान है। कृष्ण के इस सौंदर्य को एक क्षण के लिये देखने भर का सुख भी सात युगों तक जीने के समान है।
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नन्द कैं आँगन, बिंब पकरिबै धावत।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत
किलकि हांसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।
बाल-दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावत।
अंचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौ दूध पियावत।
मनिमय कनक नन्द कैं आँगन, बिंब पकरिबै धावत।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत
किलकि हांसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।
बाल-दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावत।
अंचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौ दूध पियावत।
नन्द जी का आँगन रत्नजटित र्स्वण निर्मित है। इसमें जब कान्हा घुटनों के बल चलते हैं तो उसमें अपनी परछांई उन्हें दिखती है, जिसे वे पकडने की चेष्टा करते घूमते हैं। ऐसा करते हुए जब वे किलकारी मार कर हँसते हैं तो उनके दूध के दाँत चमकने लगते हैं और इस स्वर्णिम दृश्य को दिखाने के लिये यशोदा माँ बार-बार नन्द बाबा को बुला लाती हैं।
चलत देखि जसुमति सुख पावै।
ठुमकि-ठुमकि पग धरनि रेंगत, जननी देखि दिखावै।
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहिं कौ आवै।
गिरि-गिरि परत, बनत नहिं लाँघत सुर-मुनि सोच करावै।
ठुमकि-ठुमकि पग धरनि रेंगत, जननी देखि दिखावै।
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहिं कौ आवै।
गिरि-गिरि परत, बनत नहिं लाँघत सुर-मुनि सोच करावै।
कृष्ण को गिरते-पडते, ठुमुक-ठुमुक चलते देख यशोदा माँ को अपार सुख मिलता है।
धीरे-धीरे कृष्ण बडे होते हैं। माँ कोई भी काम करती है तो छोटे बच्चे भी उस काम को करने की चेष्टा करते हैं और माँ के काम में व्यवधान डालते हैं। माँ को दूध बिलोते देख कृष्ण मथानी पकड लेते हैं। यशोदा उनकी मनुहार करते हुए कहती है।
नन्द जू के बारे कान्ह, छाँडि दे मथनियाँ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नन्द रनियाँ।
नैकु रहौ माखन देऊँ मेरे प्रान-धनियाँ।
अरि जनि करौं, बलि-बलि जाउं हो निधनियाँ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नन्द रनियाँ।
नैकु रहौ माखन देऊँ मेरे प्रान-धनियाँ।
अरि जनि करौं, बलि-बलि जाउं हो निधनियाँ।
श्री कृष्ण अन्य बच्चों के समान ही माँ से मक्खन रोटी माँगते हुए आँगन में लोट-लोट जाते हैं। यशोदा समझाती हैं -
गोपालराई दधि मांगत अरु रोटी।
माखन सहित देहि मेरी मैया, सुकोमल मोटी।
कत हौ मारी करत हो मेरे मोहन, तुम आंगन में लोटी।
जो चाहौ सौ लेहु तुरतही छाडौ यह मति खोटी।
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौं, मुख चुपरयौ अरु चोटी।
सूरदास कौ ठाकुर ठठौ, हाथ लकुटिया छोटी।
माखन सहित देहि मेरी मैया, सुकोमल मोटी।
कत हौ मारी करत हो मेरे मोहन, तुम आंगन में लोटी।
जो चाहौ सौ लेहु तुरतही छाडौ यह मति खोटी।
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौं, मुख चुपरयौ अरु चोटी।
सूरदास कौ ठाकुर ठठौ, हाथ लकुटिया छोटी।
कृष्ण चाहते हैं कि जल्दी ही उनकी चोटी बलराम भैया जितनी लम्बी और मोटी हो जाए। माँ यशोदा को उन्हें दूध पिलाने का अच्छा अवसर मिल जाता है और वे कहती हैं यदि तुम दूध पी लोगे तो तुम्हारी चोटी बलराम जितनी लम्बी और मोटी हो जाएगी। बालकृष्ण दो तीन बार तो माँ की बातों में आ जाते हैं फिर माँ से झगडते हैं कि तू मुझे बहाने बना कर दूध पिलाती रही देख मेरी चोटी तो वैसी है, चोटी दूध से नहीं माखन-रोटी से बढती है।
मैया कबहिं बढैगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, व्है लांबी मोटी।
काढत-गुहत न्हवावत जैसे नागिनी-सी भुई लोटी।
काचौ दूध पियावत पचि-पचि, देति ना माखन रोटी।
सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी।
किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, व्है लांबी मोटी।
काढत-गुहत न्हवावत जैसे नागिनी-सी भुई लोटी।
काचौ दूध पियावत पचि-पचि, देति ना माखन रोटी।
सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी।
प्राय: बच्चों के द्वारा यह पूछने पर कि मैं कहाँ से आया हूँ, उन्हें यह उत्तर दिया जाता है कि तुम्हें किसी कुंजडिन या नटनी से खरीदा गया है या मोल लिया है। यहाँ बलराम बडे हैं और वे कृष्ण को ये कहके चिढाते रहते हैं कि तुम माता यशोदा के पुत्र नहीं तुम्हें मोल लिया गया है। अपने कथन को सिध्द करने के लिये वे तर्क भी देते हैं कि बाबा नंद भी गोरे हैं, माता यशोदा भी गोरी हैं तो तुम साँवले क्यों हो? अत: तुम माता यशोदा के पुत्र कैसे हो सकते हो? कृष्ण रूआँआसे होकर माँ से शिकायत करते हैं।
मैया मोहे दाऊ बहुत खिजायौ।
मोसौं कहत मोल को लीन्हो तोहि जसुमति कब जायौ।
कहा करौ इहि रिस के मारै, खेलन को नहिं जात।
पुनि-पुनि कहत है कौन है माता, कौ है तेरो तात।
गोरे नन्द जसोदा गोरी, तू कत स्याम शरीर।
चुटकी दै दै हँसत ग्वाल सब, सिखै देत रघुबीर।
मोसौं कहत मोल को लीन्हो तोहि जसुमति कब जायौ।
कहा करौ इहि रिस के मारै, खेलन को नहिं जात।
पुनि-पुनि कहत है कौन है माता, कौ है तेरो तात।
गोरे नन्द जसोदा गोरी, तू कत स्याम शरीर।
चुटकी दै दै हँसत ग्वाल सब, सिखै देत रघुबीर।
फिर बाल सुलभर् ईष्या की बातें कह कर कि तू भी मुझको ही पीटती है, दाऊ पर जरा भी गुस्सा नहीं होती, कृष्ण माँ का मन रिझा लेते हैं।
तू मोहि को मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीजे।
इस पर माँ अपने बालकिशन को यह कह कर मनाती है -
इस पर माँ अपने बालकिशन को यह कह कर मनाती है -
मोहन मुख रिस की ये बातें, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहूँ कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।
सुनहूँ कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।
यहाँ प्रस्तुत चित्रण में पिता बच्चों के साथ भोजन करना चाहते हैं, किन्तु बच्चे खेलने की धुन में घर ही नहीं आते -
हार कौं टेरित हैं नन्दरानी।
बहुत अबार भई कँह खेलत रहे, मेरे सारंग पानी।
सुनतहिं टेरि, दौरि तँह आए, कबसे निकसे लाल।
जेंवत नहीं नन्द तुम्हरै बिन बेगि चल्यौ गोपाल।
स्यामहिं लाई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइं पखारि।
सूरदास प्रभु संग नन्द कैं बैठे हैं दोउ बारै।
बहुत अबार भई कँह खेलत रहे, मेरे सारंग पानी।
सुनतहिं टेरि, दौरि तँह आए, कबसे निकसे लाल।
जेंवत नहीं नन्द तुम्हरै बिन बेगि चल्यौ गोपाल।
स्यामहिं लाई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइं पखारि।
सूरदास प्रभु संग नन्द कैं बैठे हैं दोउ बारै।
सूर वात्सल्यभाव और बालसुलभ बातों की अंतरंग तहों तक अपने पदों के द्वारा पहुँच गए हैं। सूर जैसे एक जन्मांध व्यक्ति के लिये यह सब दिव्यदृष्टि जैसा अनुभव रहा होगा।
यशोदा के वात्सल्य भाव का सूर ने उन पदों में बडा अच्छा चित्रण किया है जिसमें कृष्ण ब्रज की गलियों में घर घर जाकर दही-माखन चुराते हैं, बर्तन फोड ड़ालते हैं और स्त्रियाँ आकर उनकी शिकायत करती हैं, किन्तु यशोदा उनकी बात अनसुनी कर देती हैं, और बालकृष्ण का ही पक्ष लेती हुई कहती हैं -
अब ये झूठहु बोलत लोग।
पाँच बरस और कछुक दिननि को, कब भयौ चोरी जोग।
इहिं मिस देखन आवति ग्वालिनी, मुँह फारे जु गँवारि।
अनदोषे कौ दोष लगावति, दहि देइगौ टारि।
पाँच बरस और कछुक दिननि को, कब भयौ चोरी जोग।
इहिं मिस देखन आवति ग्वालिनी, मुँह फारे जु गँवारि।
अनदोषे कौ दोष लगावति, दहि देइगौ टारि।
अपने बच्चे का पक्ष लेते हुए यशोदा सोचती हैं, जब मेरा बच्चा इतना छोटा है तो उसका हाथ छींके तक कैसे पहुँच सकता र्है?
कैसे करि याकि भुज पहुँची, कौन वेग ह्यौ आयौ।
इस पर गोपियाँ उसे समझाती र्हैं
ऊखल उपर अग्नि, पीठि दै, तापर सखा चढायौ।
जो न पत्याहु चलो संग जसुमति, देखो नैन निहारि।
सूरदास प्रभु नेकहुँ न बरजौ, मन में महरि विचारि।
जो न पत्याहु चलो संग जसुमति, देखो नैन निहारि।
सूरदास प्रभु नेकहुँ न बरजौ, मन में महरि विचारि।
माँ का भी मनोविज्ञान सूर से अछूता नहीं रहा। वह माँ जो स्वयं लाख डाँट ले पर दूसरों द्वारा की गई अपने बालक की शिकायत या डाँट वह सह नहीं सकती। यही हाल सूर की जसुमति मैया का है।
जब कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाया जाता है, तो उनके अनिष्ट की आशंका से उनका मन कातर हो उठता है। माता को पश्चाताप है कि जब कृष्ण ब्रज छोड मथुरा जा रहे थे तब ही उनका हृदय फट क्यों न गया।
छाँडि सनेह चले मथुरा कत दौरि न चीर गह्यो।
फटि गई न ब्रज की धरती, कत यह सूल सह्यो।
फटि गई न ब्रज की धरती, कत यह सूल सह्यो।
इस पर नन्द स्वयं व्यथित हो यशोदा पर अभियोग लगाते हैं कि तू बात-बात पर कान्हा की पिटाई कर देती थी सो रूठ कर वो मथुरा चला गया है -
तब तू मारि बोई करत।
रिसनि आगै कहै जो धावत, अब लै भाँडे भरति
रोस कै कर दाँवरी लै फिरति घर-घर घरति।
कठिन हिय करि तब ज्यौं बंध्यौ, अब वृथा करि मरत।
रिसनि आगै कहै जो धावत, अब लै भाँडे भरति
रोस कै कर दाँवरी लै फिरति घर-घर घरति।
कठिन हिय करि तब ज्यौं बंध्यौ, अब वृथा करि मरत।
एक ओर नन्द की ऐसी उपालम्भ पूर्ण उक्तियाँ हैं तो दूसरी ओर यशोदा भी पुत्र की वियोगजन्य झुंझलाहट से खीज कर नन्द से कहती है।
नन्द ब्रज लीजै ठोकि बजाय।
देहु बिदा मिलि जाहिं मधुपुरी जँह गोकुल के राय।
देहु बिदा मिलि जाहिं मधुपुरी जँह गोकुल के राय।
अब यशोदा पुत्र प्रेम के अधीन देवकी को संदेश भिजवाती हैं कि ठीक है कृष्ण राजभवन में रह रहे हैं, उन्हें किसी बात की कमी नहीं होगी पर कृष्ण को तो सुबह उठ कर मक्खन-रोटी खाने की आदत है। वे तेल, उबटन और गर्म पानी देख कर भाग जाते हैं। मैं तो कृष्ण की मात्र धाय ही हूँ पर चिंतित हूँ वहाँ मेरा पुत्र संकोच न करता हो।
संदेसो देवकी सौं कहियौ।
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो।
उबटन तेल और तातो जल देखत ही भजि जाते।
जोई-जोई माँगत सोई-सोई देती करम-करम करि न्हाते।
तुम तो टेव जानतिहि व्है हो, तऊ मौहि कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल लडैतेंहि माखन रोटी खावै।
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो।
उबटन तेल और तातो जल देखत ही भजि जाते।
जोई-जोई माँगत सोई-सोई देती करम-करम करि न्हाते।
तुम तो टेव जानतिहि व्है हो, तऊ मौहि कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल लडैतेंहि माखन रोटी खावै।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बाल मनोविज्ञान उसके हाव-भाव और क्रीडाओं के चित्रण तथा जननी-जनक के वात्सल्य भाव की व्यंजना के क्षेत्र में सूर हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व साहित्य के एक बेजोड क़वि हैं।
1 comment:
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