श्री रामकृष्ण की स्मरण शक्ति बहुत तेज थी। वे एक बार जो गीत क़था या वर्णन सुन लेते तो उन्हे वह हमेशा के लिये याद हो जाता। उसी प्रकार उनकी वाणी अतिशय मधुर थी और गीत गाने का अन्दाज बहुत न्यारा। आसपास के सभी लोग उनकी आवाज के जादू से मोहित हो जाते। रामकृष्ण एक अच्छे अदाकार भी थे। पौराणिक प्रसंगो को वे बखूबी स्त्री एवम् पुरूष दोनो की अदा में प्रस्तुत कर सकते थे। उनकी अदाकारी के बखान गाँव के सभी छोटे बडे करते।
बचपन में उन्हे गाँव की प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया। वहॉ वे बंगला पढना लिखना सीख गये किन्तु गणित उन्हे कभी रास नहीं आया। व्यवहार की भाषा और सौदेबाजी से उन्हे बचपन से ही नफरत थी। अंकगणित में उन्हे लेन देन का ओछापन नजर आता। इन्ही दिनो उनके पिता चल बसे। बडे भाई रामकुमार को रामकृष्ण की फिकर थी। रामकुमार संस्कृत में विशेष पारंगत थे और उन्होने कलकत्ता में एक संस्कृत पाठशाला शुरू करने की योजना बनाई थी। इस सिलसिले में रामकुमार सन 1852 में रामकृष्ण को अपने साथ लेकर कलकत्ता पहुंचे।
दक्षिणेश्वर स्थित काली मंदिर पाठशाला की आमदनी से उनका गृहस्थ जीवन सुचारू रूप से नहीं चलता था। धन की कमी से उन्होने काली मंदिर में पुजारी की नौकरी कर ली थी। 1855 में 9 लाख रूपये की लागत से रानी रासमणी ने दक्षिणेश्वर स्थित लाजवाब काली मंदिर बंधवाया था। शास्त्र के अनुसार एक ब्राम्हण पुजारी ही मा काली और राधाश्याम की विधिवत पूजा अर्चना कर सकता था। सो रामकुमार को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। किन्तु रामकुमार के अचानक मृत्यु के कारण रानी के जवाई मथुरनाथ ने श्री रामकृष्ण को मा काली की पूजा अर्चना का भार सौंपा।
वैसे तो हर मंदिर में एक पुजारी होता है जो उस में प्रतिष्ठित देवता या देवी की आराधना पूजा और अर्चना में अपने आप को लगाये रहता है। लेकिन इस कार्य में पुजारी केवल एक नौकर भर रहता है और कुछ मासिक आमदनी के लिये वह कार्य करता है। लेकिन श्री रामकृष्ण देव की बात असाधारण थी। वे घंटो मा काली की पाषाण मूरत को निहारते और पत्थर में चिन्मयी मां को तलाशते। इस कठोर व्रत में वे अपना देहभान भूल जाते। शरीर और देह की भूख का उन्हे खयाल भी न आता और रह जाती बाकी केवल हृदय की तडप। ''क्या मा पाषाण की केवल एक मूर्ति हैं या वह सचमुच जगतजननी हैं। क्या वह भक्त की आराध्या नहीं क्या वह साधक का साध्य नहीं'' ऐसे कई विचार और प्रश्न रामकृष्ण देव के मन को भ्रमित करते।
वे अतिउत्कंठा से मा से कहते ''मा क्या इस बालक को अपना असली स्वरूप नहीं बताओगी। मै नादान अज्ञानी हूं। मुझे ज्ञान से परिपूर्ण कर दो। मुझे दर्शन दो मां। हे मां मुझे दर्शन दो। यह कहते कहते भूख और कमजोरी से प्रभावित मनसे अशांत रामकृष्ण मा काली की मूर्ती के समक्ष दिल खोलकर जोरजोर से रोते जैसे बालक अपनी सचमुच की मां से बिछड ग़या हो। मंदिर में उपस्थित अन्य लोग रामकृष्ण के उस अनोखो व्यवहार को समझ नहीं पाते और उन्हें पागल तक कहते।
दिन बीतते गये और साथ में श्री रामकृष्ण देव की व्याकुलता भी। अब मा से दूरी उनके लिये असह्य होने लगी और एक दिन भावावेष में उनकी नजर मां काली के मंदिर में स्थित खड्ग पर पडी। ''मा दर्शन दे अन्यथा जीवन जीने में क्या लाभ। यह देख अब मुझे जीने की कोई चाह नहीं रही। इस खड्ग से मै मेरे जीवन का अन्त कर रहा हूं।'' सो कहकर अब श्री रामकृष्ण देव अपनी गर्दन पर वार करने ही वाले थे कि स्वयं मा काली उनके सन्मुख प्रकट होकर बोली ''बेटा रामकृष्ण यह क्या कर रहे हो। यह देख तेरी मां तेरे सामने खडी है। फेंक दे वह तलवार।''
श्री रामकृष्ण देव एक असाधारण मनस्थिति में पहुंच चुके थे। वह दैवी भाव था जहॉ संसार के परे आध्यात्मिक जीवन शुरू होता है। उन्होने देखा कि मंदिर छज्जे दिवारें सारा कुछ एक अपूर्व और अलौकिक प्रकाश में विलीन होता जा रहा है। चिन्मय प्रकाश के सागर में उन्हे सारा संसार अनेक लहरों में व्याप्त दिखाई देने लगा। चारो ओर से आनन्द की लहरे उमड रही थी और उनकी ओर बढ रही थी। मां मां कहते कहते श्री रामकृष्ण देव आनंद समाधि में लीन हो गये।
कुछ समय पश्चात श्री रामकृष्ण देव को होश आया। अब उन्हे सर्वत्र मां काली का हंसता खेलता रूप नजर आता। मां की अभयदायी मूर्ति उन्हे सब ओर नजर आती। और मां काली ही तत्पश्चात उनकी मित्र गुरू और सखा बन गयी।
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