स्वामी विवेकानंद के विचार
केवल अध्यात्म के परिपेक्ष्य में ही आज भारत दुनिया को कुछ दे सकता है। श्रम के अंतर्राष्ट्रीय विभागीकरण में यह कार्य अपने भाग में आया है जिसे हमें बडी बखूबी निभाना है। पूर्ण जवाबदारी र्ऌमानदारी और आस्था से। सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने इस प्रयोग को शुरू किया था। आज हम भारतवासियों को उस कार्य को आगे बढाना है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं ऌस पुण्यभूमि की नीव ऌसका आधार ऌसका जीवन स्त्रोत केवल धर्म है और कुछ नहीं। अन्य लोगों को व्यापार से प्राप्त धन संपत्ति की जगमगाहट और उद्योग के विकास से प्राप्त सुख के भौतिक विलास और विकास की चर्चा करने दो। हम भारतीय न इसे समझते हैं न ही हमे इसे समझ्ने की जरूरत महसूस होती है। लेकिन भारतीय को अध्यात्म पर छेडो। धर्म के बारे में उससे बात करो। ईश्वर या आत्मा का विषय निकालो मैं विश्वास दिलाता हूं भारत का गरीब से गरीब किसान भी इन बातों में दुनिया के किसी दार्शनिक से कम नहीं उतरेगा। हमें दुनियां को कुछ सिखाना है।
यही एक मुख्य कारण है जिसकी वजह से अनेक आपत्तियों के बावजूद सदियों की गुलामी और शोषण को सह कर भी हमारा भारत जिंदा है। हमने अभी भी ईश्वर को अात्मा को और धर्म को पकडे रखा है।
कहीं हम अपने आधुनिक नजरिये से धर्म और ईश्वर की व्याख्या सीमित न कर दें इसलिये स्वामीजी कहते है
1. प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित ईश्वरता का नाम ही धर्म है।
2. धर्म वह संकल्पना है जो एक सामान्य पशुवत मानव को प्रथम इन्सान और फिर भगवान बनाने का सामर्थ रखती है।
3. निस्वार्थ और पवित्र बनने का प्रयास ही धर्म है।
4. हर जीव अव्यक्त ब्रह्म है। जीवन का उद्देश्य इस अव्यक्त ब्रह्म के ईश्वरीय तत्व को प्रकट करना है। ध्यानभक्ति क़र्म और ज्ञान योग द्वारा बाहरी और भीतरी प्रकृति को वश में करना संभव है। ऐसा करने पर तुम मुक्त हो जाओगे। यह स्वतंत्रता ही धर्म का सार है। दर्शन तात्विक चर्चा मांदिर चर्च क़िताबें और शास्त्र पूजा और पाठ सब धर्म के गौण अंग है।
अमेरिका और ब्रिटेन से विजयी होकर लौटने के बाद मद्रास क़लकत्ता और कई स्थानों पर स्वामी विवेकानंद का खूब भव्य स्वागत हुआ। इस स्वागत के जवाब में उन्होंने अति सुन्दर और प्रभावशाली प्रवचन दिये। इन भाषणों में भारत की जनता के प्रति उनके सारगर्भित सन्देश मौजूद हैं।
उनका पक्का विश्वास था कि आध्यात्मिकता के सिवाय देने के लिये भारत के पास अन्य कुछ भी नहीं। भारत न तो राजनैतिक ना ही वैज्ञानिक क्षेत्र में औरों की सहायता कर सकता है। सच्चा धर्म ही भारत की शान को उजागर कर सकता है। उसकी सांस्कृतिक धरोहर को संभाल कर रख सकता है। और यदि आध्यात्मिक उन्नति को बढावा देने में वह असफल हुआ तो केवल भारतीय संस्कृति को ही नहीं सारे विश्व को इसका बहुत भारी मूल्य चुकाना पडेगा।
मानव जाति को विनाश से बचाने के लिये और विकास की ओर अग्रसर करने के लिये यह अत्यावश्यक है कि प्राचीन ॠषि संस्कृति भारत में फिर से स्थापित की जाये जो अनायास ही फिर सारी दुनिया में प्रचलित होगी। यह उपनिषद और वेदान्त पर आधारित संस्कृति ही अंतर्राष्ट्रीय धर्म की नीव बन सकती है।
पाश्चात्य देशों में स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद कहते हैं ऌस पुण्यभूमि की नीव ऌसका आधार ऌसका जीवन स्त्रोत केवल धर्म है और कुछ नहीं। अन्य लोगों को व्यापार से प्राप्त धन संपत्ति की जगमगाहट और उद्योग के विकास से प्राप्त सुख के भौतिक विलास और विकास की चर्चा करने दो। हम भारतीय न इसे समझते हैं न ही हमे इसे समझ्ने की जरूरत महसूस होती है। लेकिन भारतीय को अध्यात्म पर छेडो। धर्म के बारे में उससे बात करो। ईश्वर या आत्मा का विषय निकालो मैं विश्वास दिलाता हूं भारत का गरीब से गरीब किसान भी इन बातों में दुनिया के किसी दार्शनिक से कम नहीं उतरेगा। हमें दुनियां को कुछ सिखाना है।
यही एक मुख्य कारण है जिसकी वजह से अनेक आपत्तियों के बावजूद सदियों की गुलामी और शोषण को सह कर भी हमारा भारत जिंदा है। हमने अभी भी ईश्वर को अात्मा को और धर्म को पकडे रखा है।
कहीं हम अपने आधुनिक नजरिये से धर्म और ईश्वर की व्याख्या सीमित न कर दें इसलिये स्वामीजी कहते है
1. प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित ईश्वरता का नाम ही धर्म है।
2. धर्म वह संकल्पना है जो एक सामान्य पशुवत मानव को प्रथम इन्सान और फिर भगवान बनाने का सामर्थ रखती है।
3. निस्वार्थ और पवित्र बनने का प्रयास ही धर्म है।
4. हर जीव अव्यक्त ब्रह्म है। जीवन का उद्देश्य इस अव्यक्त ब्रह्म के ईश्वरीय तत्व को प्रकट करना है। ध्यानभक्ति क़र्म और ज्ञान योग द्वारा बाहरी और भीतरी प्रकृति को वश में करना संभव है। ऐसा करने पर तुम मुक्त हो जाओगे। यह स्वतंत्रता ही धर्म का सार है। दर्शन तात्विक चर्चा मांदिर चर्च क़िताबें और शास्त्र पूजा और पाठ सब धर्म के गौण अंग है।
अमेरिका और ब्रिटेन से विजयी होकर लौटने के बाद मद्रास क़लकत्ता और कई स्थानों पर स्वामी विवेकानंद का खूब भव्य स्वागत हुआ। इस स्वागत के जवाब में उन्होंने अति सुन्दर और प्रभावशाली प्रवचन दिये। इन भाषणों में भारत की जनता के प्रति उनके सारगर्भित सन्देश मौजूद हैं।
उनका पक्का विश्वास था कि आध्यात्मिकता के सिवाय देने के लिये भारत के पास अन्य कुछ भी नहीं। भारत न तो राजनैतिक ना ही वैज्ञानिक क्षेत्र में औरों की सहायता कर सकता है। सच्चा धर्म ही भारत की शान को उजागर कर सकता है। उसकी सांस्कृतिक धरोहर को संभाल कर रख सकता है। और यदि आध्यात्मिक उन्नति को बढावा देने में वह असफल हुआ तो केवल भारतीय संस्कृति को ही नहीं सारे विश्व को इसका बहुत भारी मूल्य चुकाना पडेगा।
मानव जाति को विनाश से बचाने के लिये और विकास की ओर अग्रसर करने के लिये यह अत्यावश्यक है कि प्राचीन ॠषि संस्कृति भारत में फिर से स्थापित की जाये जो अनायास ही फिर सारी दुनिया में प्रचलित होगी। यह उपनिषद और वेदान्त पर आधारित संस्कृति ही अंतर्राष्ट्रीय धर्म की नीव बन सकती है।
पाश्चात्य देशों में स्वामी विवेकानंद
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