बांग्ला कथाकार बुद्धदेव बसु की चर्चित कृति ‘महाभारतेर कथा’ का हिन्दी रूपान्तर है—‘महाभारत की कथा’।
प्रायः सभी जानते हैं कि महाभारत का कथानक अनेक विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है। इन्हीं विसंगतियों में उसका अपना ऐश्वर्य है, उसके इसी बिखराव में एक अन्विति है। बुद्धदेव बसु ने महाभारत के इस रुप का मार्मिक मूल्यांकन किया है।
महाभारतेर कथा का केन्द्रीय चरित्र परमवीर अर्जुन या कृष्ण न होकर एक तथा कथित भीरु, मृदु लज्जालु और अस्थिरमति मनुष्य युधिष्ठिर है। ऊपर से देखने पर उसके चरित्र में असाधारण कुछ भी नहीं है। परन्तु बुद्धदेव बसु ने अपनी मौलिक दृष्टि से युधिष्ठिर के चरित्र का अद्यतन और विरल मूल्यांकन किया है। लेखक की दृष्टि में अर्जुन और कृष्ण यदि इतिहास-स्रष्टा हैं तो युधुष्ठिर एक संभावना है। महाभारत के विशाल परिप्रेक्ष्य में इसी तथ्य को प्रदर्शित करना लेखक को अभीष्ट रहा है।
अपने अमेरिकी प्रवास में बुद्धदेव बसु ने यूरोपियन क्लासिक्स का गहन अध्ययन किया। वहाँ से बहुत-सी सामग्री लेकर वे भारत लौटे और उसके आधार पर बांग्ला में ‘महाभारतेर कथा’ लिखी जिसका प्रकाशन उनके दिवंगत होने के बाद हुआ।
बंगभासी पाठकों ने इस रचना को काफी सराहा है। आशा है हिन्दी के प्रबुद्ध पाठक भी महाभारत के इस विशिष्ट मूल्यांकन का स्वागत करेंगे।
प्रायः सभी जानते हैं कि महाभारत का कथानक अनेक विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है। इन्हीं विसंगतियों में उसका अपना ऐश्वर्य है, उसके इसी बिखराव में एक अन्विति है। बुद्धदेव बसु ने महाभारत के इस रुप का मार्मिक मूल्यांकन किया है।
महाभारतेर कथा का केन्द्रीय चरित्र परमवीर अर्जुन या कृष्ण न होकर एक तथा कथित भीरु, मृदु लज्जालु और अस्थिरमति मनुष्य युधिष्ठिर है। ऊपर से देखने पर उसके चरित्र में असाधारण कुछ भी नहीं है। परन्तु बुद्धदेव बसु ने अपनी मौलिक दृष्टि से युधिष्ठिर के चरित्र का अद्यतन और विरल मूल्यांकन किया है। लेखक की दृष्टि में अर्जुन और कृष्ण यदि इतिहास-स्रष्टा हैं तो युधुष्ठिर एक संभावना है। महाभारत के विशाल परिप्रेक्ष्य में इसी तथ्य को प्रदर्शित करना लेखक को अभीष्ट रहा है।
अपने अमेरिकी प्रवास में बुद्धदेव बसु ने यूरोपियन क्लासिक्स का गहन अध्ययन किया। वहाँ से बहुत-सी सामग्री लेकर वे भारत लौटे और उसके आधार पर बांग्ला में ‘महाभारतेर कथा’ लिखी जिसका प्रकाशन उनके दिवंगत होने के बाद हुआ।
बंगभासी पाठकों ने इस रचना को काफी सराहा है। आशा है हिन्दी के प्रबुद्ध पाठक भी महाभारत के इस विशिष्ट मूल्यांकन का स्वागत करेंगे।
मुखबन्ध
आज से लगभग 11 वर्ष पूर्व मैं अमेरिका के इण्डियाना विश्वविद्यालय में पढ़ाने गया था। वहाँ मुझे ‘इण्डो-योरोपीय एपिक का तुलनात्मक अध्ययन पढ़ाना था। एक ओर इलियड, ओडिसी, इनिड-दूसरी ओर महाभारत और रामायण। उस सिलसिले में मुझे कुछ ग्रन्थों का आलोड़न करना पड़ा-बहुत से तथ्य, संकेत, प्रतिसाम्य (आनुपातिक रेखा)। सम्बन्ध–स्थापना की अनेक संभावनाओं ने मुझे विचलित कर दिया। मुझे लगा कि मेरे मन में पहले से भ्रूणरुप में जन्मी भावनाएँ धीरे-धीरे परिपक्व हो गयी हैं। मेरे छात्र-छात्राओं में विभिन्न राष्ट्र के और विभिन्न उम्र के लोग थे। कोई नवागत जर्मन या ग्रीक, कोई यहूदी, कुछ तीन-चार पीढ़ियों के अमेरिकन। बुद्धिमान युवा के पास ही कृतविद् प्रौढ़ भी थे। वे अपने विभिन्न अभारतीय दृष्टिकोण से जो तर्क प्रस्तुत करते थे उसमें भी मुझे नए विचार मिलते थे। महाभारत के विषय में एक पुस्तक लिखने की इच्छा उसी समय मेरे मन में अंकुरित हुई थी-अमेरिका के अन्य कई विद्यालयों में घूमकर अनुशीलन का और भी अवसर मुझे मिला।
दो वर्ष बाद मन में उसी इच्छा की प्रेरणा और ब्रीफकेस में दो नोटबुक भरकर लिखे हुए नोट लेकर मैं कलकत्ता अपने अभयस्त जीवन में लौट आया। सोचा था व्यवस्थित होकर स्थिर होते ही लिखना शुरू कर दूँगा-किन्तु आवशयक समय का अभाव रहा। महीने और साल नाना अन्य कार्यों में गुजर गए ऐसा नहीं है कि इस अवधि में मैं महाभारत से विच्छिन्न हो गया—बल्कि मैं क्रमशः और भी संश्लिष्ट हो गया था, इसका प्रमाण मेरे तत्कालीन नाटकों और कविताओं में मिलता है। फिर भी गद्य में पुस्तक की बात सोचते ही मैं जैसे भयभीत होकर पीछे हट जाता था। मुझे बस यही लगता था कि मैं अभी तक पूरी तरह प्रस्तुत नहीं हूँ, परिकल्पना और रचना के बीच के लम्बे व्यवधान को पार करने का संबल अभी भी मेरे हाथ में नहीं है। फिर एक दिन सोचा कि हम जिसे प्रस्तुति कहते हैं वह तो हमेशा सापेक्ष वस्तु होती है—जिस बिन्दु को अभीष्ट समझों वहाँ तक पहुँचने पर उसके आगे का बिन्दु अभीष्ट लगता है, और मेरी उम्र में पहुँचकर अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा काल भी ठीक नहीं है। फिर जिस व्यक्ति को रोज कुआँ खोदकर पानी पीना होता है उसके लिए लम्बा विघ्नविहीन अवकाश मृगमरीचिका ही है। यदि कल्पना को मूर्त रूप देना है तो बिना संपूर्ण प्रस्तुति के ही, सांसारिक व्यवधानों के रहते ही करना होगा। अतः अपनी वर्तमान अवस्था में जितना हो सकता है उतना सुसम्पूर्ण और सुविन्यस्त रुप में कुछ प्राथमिक भावना–धारणा को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ।
कहना न होगा, दस वर्ष पहले इण्डियाना में मैंने जो कल्पना की थी यह पुस्तक ठीक वैसी नहीं है। उस समय मेरी कल्पना में थी एक छोटे आकार की सरल आकर्षक पुस्तक, किन्तु धीरे-धीरे मेरे मन में विषय की व्याप्ति इतनी विस्तृत हो गयी कि गठन–पद्धति कुछ बदलने के लिए बाध्य हो गया। मुझे लगा कि पुस्तक में विषय की स्पष्टता आवश्यक है-पाठकों तथा स्वयं लेखक की स्मृति में सहायक होने के लिए बीच-बीच में निशान गाड़ रखना अच्छा होगा और रचना करते समय ऐसे अनेक पार्श्व प्रश्न उठने लगे जो विचार योग्य थे किन्तु जिन्हें मूल पुस्तक में समाविष्ट करने से श्रृंखला टूटती है। फिर चूँकी मैंने यह पुस्तक बांग्ला भाषा में लिखी है और मन में यह आकांक्षा भी पाल रखी है कि सामान्य पाठक भी पढ़े, इसलिए योरोपीय इतिहास–पुराण से सम्बन्धित ऐसे भी कुछ तथ्य लिखे हैं जो विद्वाज्जनों को अनावश्यक लगे इन कारणों से टीका का व्यवहार अनिवार्य हो गया और जो पुनः-पुनः चिन्तन के फलस्वरूप संख्या या आयतन में छोटे नहीं रह पाए। किन्तु आशा है, यह किसी पाठक को निराश नहीं करेगा, हो सकता है किसी–किसी पाठक को उसमें कौतूहल की खुराक भी मिले।
मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि इस प्रयास में मुझे बहुतों से सहायता मिली है। मैं घरेलू प्राणी हूँ, सम्प्रति लोक-समाज से कटा हुआ हूँ। यदि कुछ मित्रों ने मेरी सहायता न की होती तो विषय के विस्तार के अनुरूप सामग्री इकट्ठा करना मेरे लिए संभव न होता। श्री नरेश गुह, सुधीर रायचौधुरी, स्वपन मजुमदार, देवव्रत राय और प्रवासदास गुप्त ने अनेक आवश्यक दुर्लभ पुस्तकें जुटाकर उनकी जानकारी देकर और कभी-कभी किसी तथ्य के विषय में मुझे निश्चित करके उपकृत किया है। श्री स्टार्लिन स्टील और सत्राजित दत्त ने विदेश से कुछ जरूरी किताबें उपहार में भेजी हैं। मेरे कुछ संबंधियों ने किताबें खरीदने के लिए आर्खिक सहायता भी दी है, प्रूफ संशोधन इत्यादि में श्री नरेश गुह और अमिय देव ने बराबर मेरी सहायता की है। उनके योगदान ने अनेक त्रुटियों और असंगतियों से बचाया है। उपाचार्य सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय और उनके शोध सहायक श्री अनिल कुमार कांजीलाल ने कभी-कभी मेरी प्रार्थना पर मेरा ज्ञानवर्धन किया है। ‘प्रातः स्मरणीया’ पंचकन्या के लेखक श्री मनोनीत सेन ने चिट्ठियों के द्वारा मुझे अनेक परामर्श दिया है और दो एक बातें विस्तार से बतायी हैं। सीता की अग्नि परीक्षा के सम्बन्ध में तुलसी दास ने जो कुछ लिखा है उसकी ओर हिन्दी लेखक सोमनाथ मेहता ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। उन्हीं की सहायता से मैं मूल तुलसीदास का स्वाद ले सका। श्री सुधीर रायचौधुरी ने निर्देशिका तैयार कर दी। इन सबका मैं कृतज्ञ हूँ किसी-किसी का अति ऋणी हूँ, किन्तु ग्रन्थ में दी गयी व्याख्या और अभिमत का उत्तरदायित्व केवल मेरा है।
इस पुस्तक के अभिप्राय और परिधि के बारे में दो एक बातें कहना चाहता हूँ। पहली बात यह कि मेरा अभिगम साहित्यिक है-या चूँकि साहित्य शब्द अत्याधिक व्यापक है इसलिए कहा जाए कि यह कविता है और कविता की तरह माइथॉलॉजी पर निर्भर है। अर्थात हमारी आधुनिक बुद्धि में जो सब बातें अविश्वसनीय हैं (किंतु जिस पर प्राचीन काल में सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति भी विश्वास करते थे)। मैंने उन्हें अवास्तव कहकर छोड़ा नहीं है बल्कि उन्हीं अवास्तव में से ही मर्म की खोज की है। दूसरी बात मेरा मुख्य विषय महाभारत होते हुए भी, तुलना और प्रति तुलना के अनुरोध से रामायण और अन्यान्य पुराणों के प्रसंग अनिवार्यतः लिपिबद्ध हो गए हैं। उसी उद्देश्य के पूर्त्यर्थ प्राचीन एवं अर्वाचीन पाश्चात्य साहित्य और स्वदेशी साहित्य के कुछ दृष्टान्तों को उद्धृत किया गया है। अनेक देशों और युगों के कल्पना–चित्र प्रायः एक-दूसरे में दीख जाते हैं। कुछ ऐतिहसिक घटनाओं के बारे में ऐसा भी कहा जा सकता है। अतः मैंने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि महाभारत’ कोई सुदूरवर्ती धुँधला जड़ उपख्यान नहीं है बल्कि मानव जीवन में चिरकाल से प्रवाहमान है। यह कोई ऐसा तथ्य नहीं है जो भारतीयों को अज्ञात हो। फिर भी नए सिरे से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
यहाँ मुझे अपनी रचना-पद्धति की कुछ व्याख्या करनी होगी, अन्यथा पाठकों उद्वरणों के बारे में कुछ कठिनाई मालूम पड़ेगी। महाभारत के पर्व अध्याय की संख्या के बारे में मैंने सर्वत्र कालीप्रसन्न सिंह के लिखे महाभारत का अनुसरण किया है क्योंकि वही एक मात्र ऐसा समग्र संस्करण है जो अधिकांश बंगाली पाठकों को सरलता से सुलभ हो सकेगा, किसी पाठक की इच्छा हो तो उस अंश को पढ़ सकेंगे। खेद है कि वाल्मीकि रामायण का कोई वैसा बांग्ला अनुवाद प्रचलित नहीं है, अतः उससे संबन्धित संदर्भ मूल ग्रंथ से लेना पड़ा। मैंने सबसे पहले पर्व या काण्ड का नाम लिखा है, उसके बाद पहली संख्या अध्याय या सर्ग-सूचक है, दूसरी संख्या श्लोक या श्लोक-गुच्छ की है। जिन ग्रन्थों में (जैसे दीर्घतर उपनिषद् समूह में) अध्याय भी परिच्छेदों में विभक्त हैं, वहाँ तीसरी संख्या श्लोक सूचक है। जहाँ एक ही प्रसंग में एक से अधिक विश्लिष्ट अध्याय या श्लोक उल्खलिखित हुए हैं, वहाँ मैंने कॉमा लगाया है और अनुकूलिता दिखलाने के लिए हाइफन।
संस्कृत के जिन ग्रन्थों और उद्धरणों का उल्लेख किया गया है वे अपने संस्करणों सहित निम्नलिखित हैं—
महाभारत-आर्यशास्त्र संस्करण (आदि से शल्यपर्व तक)
-बंगवासी संस्करण (समग्र पाठ, नीलकण्ठी टीका सहित)
वाल्मीकि रामायण-आर्यशास्त्र संस्करण
मनुसंहिता-आर्यशास्त्र संस्करण
कठोपनिषद्-उद्बोधन संस्करण
बृहदारण्यक उपनिषद्- उद्बोधन संस्करण
श्वेताश्वतर उपनिषद्- उद्बोधन संस्करण
छान्दोग्य उपनिषद्- उद्बोधन संस्करण
कौषीतकी उपनिषद्-महेशचन्द्रपाल द्वारा संपादित
भगवद्गीता- उद्बोधन संस्करण
अध्यात्म रामायण-बंगवासी संस्करण
मार्कण्डेय पुराण-बंगवासी संस्करण
मैंने महाभारत के सिद्धान्तवागीश संस्करण का आवशयकतानुसार प्रयोग किया है। उसका उल्लेख यथास्थान कर दिया है। मैंने देखा है कि बंगवासी और आर्यशास्त्र के श्लोकों में एकरूपता नहीं होती है, सिद्धान्तवागीश में पाठभेद और व्यतिक्रम और भी अधिक है, तथा इन तीनों संस्करणों में पर्व, अध्याय और श्लोकसंख्या में भी बहुत असमानता है। इधर काली प्रसन्न में भी पर्व और अध्याय की संख्या कुछ-कुछ भिन्न है। किन्तु यह सब जटिलता हमारी आलोचना के लिए उतनी आवश्यक नहीं है क्योंकि अधिकांश पाठभेद महत्त्वहीन शब्दों के हैं। मैंने पाठभेद का उल्लेख केवल वहीं किया है जहाँ कोई नया तथ्य मिला है या जहाँ श्लोक का अनुक्रम पृथक् है जैसे पादटिप्पणी सं. 3. 29. 30. और 41 में। कोई-कोई पाठक मेरे उल्लेख से मूल श्लोक तक पहुँचना चाहेंगे तो उन्हें कम परिश्रम करना होगा-पोथियों के हेरफेर से कोई बड़ा विघ्न नहीं होगा- अवश्य ही यदि अंश विशेष बिल्कुल हटा न दिया गया हो।
मेरे द्वारा प्रयुक्त अन्य आकर ग्रंन्थों का परिचय इस प्रकार है ऋग्वेद- मेशचन्द्र दत्त बंगानुवाद
अथर्ववेद –विलियम ह्वाइट ह्विटने, अंग्रेजी अनुवाद
मत्स्यपुराण-बंगवासी (मूल एवं बंगानुवाद)
भागवतपुराण-बंगवासी (बंगानुवाद)
विष्णुपुराण –आर्यशास्त्र (मूल और बंगानुवाद)
हरिवंश-वर्धमान सं. बंगानुवाद
जातक –ईशानचन्द्र घोष, बंगानुवाद
महाभारत (वनपर्व) –वर्धमान सं. बंगानुवाद
कालीप्रसन्न सिंह का महाभारत-वसुमती (समग्र)
काशी रामदास। महाभारत-रामानन्द चट्टोपाध्याय द्वारा सम्पादित कृत्तिवासी रामायण-दिनेशचन्द्र सेन सम्पादित
तुलसीदीस-रामचरितमानस-गीता प्रेस, गोरखपुर (मूल एवं अँग्रेजी अनुवाद)
चूँकि यह पुस्तक प्राचीन साहित्य से सम्बन्धित है इसलिए ग्रीक और लैटिन नामों के लिप्यन्तरण में बहुत सतर्क रहा हूँ। जहाँ शंका हुई वहाँ बहुभाषिक फादर रॉव के ऑतोदान, एस. जे. और ज्ञानेन्द्रमोहन के उत्कृष्ट शब्दकोश का सहारा लिया है। फलतः मेरी पहले की रीति यहाँ बदल गयी है (ईडिपस के लिए अयदि पौल इलेक्ट्रा के लिए एलेक्त्रा) किंतु पाठकों की सुविधा का ध्यान रखकर इस, प्रकार का आक्षरिक अनुकरण सब जगह नहीं किया है। किसी-किसी बहुप्रचलित नाम का प्रचलित अंग्रेजी बंग रूप अक्षुण्ण रखा है (होमर, वर्जिल, सॉक्रेटीस, ट्राय, इलियड) अन्य कई स्थानों पर मूल की ध्वनि और बंगालियों के अभ्यास में सझौता किया गया है। पाठकों से अनुरोध है कि इस विषय में कोई यान्त्रिक समरूपता की प्रत्याशा न करें।
दो वर्ष बाद मन में उसी इच्छा की प्रेरणा और ब्रीफकेस में दो नोटबुक भरकर लिखे हुए नोट लेकर मैं कलकत्ता अपने अभयस्त जीवन में लौट आया। सोचा था व्यवस्थित होकर स्थिर होते ही लिखना शुरू कर दूँगा-किन्तु आवशयक समय का अभाव रहा। महीने और साल नाना अन्य कार्यों में गुजर गए ऐसा नहीं है कि इस अवधि में मैं महाभारत से विच्छिन्न हो गया—बल्कि मैं क्रमशः और भी संश्लिष्ट हो गया था, इसका प्रमाण मेरे तत्कालीन नाटकों और कविताओं में मिलता है। फिर भी गद्य में पुस्तक की बात सोचते ही मैं जैसे भयभीत होकर पीछे हट जाता था। मुझे बस यही लगता था कि मैं अभी तक पूरी तरह प्रस्तुत नहीं हूँ, परिकल्पना और रचना के बीच के लम्बे व्यवधान को पार करने का संबल अभी भी मेरे हाथ में नहीं है। फिर एक दिन सोचा कि हम जिसे प्रस्तुति कहते हैं वह तो हमेशा सापेक्ष वस्तु होती है—जिस बिन्दु को अभीष्ट समझों वहाँ तक पहुँचने पर उसके आगे का बिन्दु अभीष्ट लगता है, और मेरी उम्र में पहुँचकर अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा काल भी ठीक नहीं है। फिर जिस व्यक्ति को रोज कुआँ खोदकर पानी पीना होता है उसके लिए लम्बा विघ्नविहीन अवकाश मृगमरीचिका ही है। यदि कल्पना को मूर्त रूप देना है तो बिना संपूर्ण प्रस्तुति के ही, सांसारिक व्यवधानों के रहते ही करना होगा। अतः अपनी वर्तमान अवस्था में जितना हो सकता है उतना सुसम्पूर्ण और सुविन्यस्त रुप में कुछ प्राथमिक भावना–धारणा को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ।
कहना न होगा, दस वर्ष पहले इण्डियाना में मैंने जो कल्पना की थी यह पुस्तक ठीक वैसी नहीं है। उस समय मेरी कल्पना में थी एक छोटे आकार की सरल आकर्षक पुस्तक, किन्तु धीरे-धीरे मेरे मन में विषय की व्याप्ति इतनी विस्तृत हो गयी कि गठन–पद्धति कुछ बदलने के लिए बाध्य हो गया। मुझे लगा कि पुस्तक में विषय की स्पष्टता आवश्यक है-पाठकों तथा स्वयं लेखक की स्मृति में सहायक होने के लिए बीच-बीच में निशान गाड़ रखना अच्छा होगा और रचना करते समय ऐसे अनेक पार्श्व प्रश्न उठने लगे जो विचार योग्य थे किन्तु जिन्हें मूल पुस्तक में समाविष्ट करने से श्रृंखला टूटती है। फिर चूँकी मैंने यह पुस्तक बांग्ला भाषा में लिखी है और मन में यह आकांक्षा भी पाल रखी है कि सामान्य पाठक भी पढ़े, इसलिए योरोपीय इतिहास–पुराण से सम्बन्धित ऐसे भी कुछ तथ्य लिखे हैं जो विद्वाज्जनों को अनावश्यक लगे इन कारणों से टीका का व्यवहार अनिवार्य हो गया और जो पुनः-पुनः चिन्तन के फलस्वरूप संख्या या आयतन में छोटे नहीं रह पाए। किन्तु आशा है, यह किसी पाठक को निराश नहीं करेगा, हो सकता है किसी–किसी पाठक को उसमें कौतूहल की खुराक भी मिले।
मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि इस प्रयास में मुझे बहुतों से सहायता मिली है। मैं घरेलू प्राणी हूँ, सम्प्रति लोक-समाज से कटा हुआ हूँ। यदि कुछ मित्रों ने मेरी सहायता न की होती तो विषय के विस्तार के अनुरूप सामग्री इकट्ठा करना मेरे लिए संभव न होता। श्री नरेश गुह, सुधीर रायचौधुरी, स्वपन मजुमदार, देवव्रत राय और प्रवासदास गुप्त ने अनेक आवश्यक दुर्लभ पुस्तकें जुटाकर उनकी जानकारी देकर और कभी-कभी किसी तथ्य के विषय में मुझे निश्चित करके उपकृत किया है। श्री स्टार्लिन स्टील और सत्राजित दत्त ने विदेश से कुछ जरूरी किताबें उपहार में भेजी हैं। मेरे कुछ संबंधियों ने किताबें खरीदने के लिए आर्खिक सहायता भी दी है, प्रूफ संशोधन इत्यादि में श्री नरेश गुह और अमिय देव ने बराबर मेरी सहायता की है। उनके योगदान ने अनेक त्रुटियों और असंगतियों से बचाया है। उपाचार्य सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय और उनके शोध सहायक श्री अनिल कुमार कांजीलाल ने कभी-कभी मेरी प्रार्थना पर मेरा ज्ञानवर्धन किया है। ‘प्रातः स्मरणीया’ पंचकन्या के लेखक श्री मनोनीत सेन ने चिट्ठियों के द्वारा मुझे अनेक परामर्श दिया है और दो एक बातें विस्तार से बतायी हैं। सीता की अग्नि परीक्षा के सम्बन्ध में तुलसी दास ने जो कुछ लिखा है उसकी ओर हिन्दी लेखक सोमनाथ मेहता ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। उन्हीं की सहायता से मैं मूल तुलसीदास का स्वाद ले सका। श्री सुधीर रायचौधुरी ने निर्देशिका तैयार कर दी। इन सबका मैं कृतज्ञ हूँ किसी-किसी का अति ऋणी हूँ, किन्तु ग्रन्थ में दी गयी व्याख्या और अभिमत का उत्तरदायित्व केवल मेरा है।
इस पुस्तक के अभिप्राय और परिधि के बारे में दो एक बातें कहना चाहता हूँ। पहली बात यह कि मेरा अभिगम साहित्यिक है-या चूँकि साहित्य शब्द अत्याधिक व्यापक है इसलिए कहा जाए कि यह कविता है और कविता की तरह माइथॉलॉजी पर निर्भर है। अर्थात हमारी आधुनिक बुद्धि में जो सब बातें अविश्वसनीय हैं (किंतु जिस पर प्राचीन काल में सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति भी विश्वास करते थे)। मैंने उन्हें अवास्तव कहकर छोड़ा नहीं है बल्कि उन्हीं अवास्तव में से ही मर्म की खोज की है। दूसरी बात मेरा मुख्य विषय महाभारत होते हुए भी, तुलना और प्रति तुलना के अनुरोध से रामायण और अन्यान्य पुराणों के प्रसंग अनिवार्यतः लिपिबद्ध हो गए हैं। उसी उद्देश्य के पूर्त्यर्थ प्राचीन एवं अर्वाचीन पाश्चात्य साहित्य और स्वदेशी साहित्य के कुछ दृष्टान्तों को उद्धृत किया गया है। अनेक देशों और युगों के कल्पना–चित्र प्रायः एक-दूसरे में दीख जाते हैं। कुछ ऐतिहसिक घटनाओं के बारे में ऐसा भी कहा जा सकता है। अतः मैंने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि महाभारत’ कोई सुदूरवर्ती धुँधला जड़ उपख्यान नहीं है बल्कि मानव जीवन में चिरकाल से प्रवाहमान है। यह कोई ऐसा तथ्य नहीं है जो भारतीयों को अज्ञात हो। फिर भी नए सिरे से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
यहाँ मुझे अपनी रचना-पद्धति की कुछ व्याख्या करनी होगी, अन्यथा पाठकों उद्वरणों के बारे में कुछ कठिनाई मालूम पड़ेगी। महाभारत के पर्व अध्याय की संख्या के बारे में मैंने सर्वत्र कालीप्रसन्न सिंह के लिखे महाभारत का अनुसरण किया है क्योंकि वही एक मात्र ऐसा समग्र संस्करण है जो अधिकांश बंगाली पाठकों को सरलता से सुलभ हो सकेगा, किसी पाठक की इच्छा हो तो उस अंश को पढ़ सकेंगे। खेद है कि वाल्मीकि रामायण का कोई वैसा बांग्ला अनुवाद प्रचलित नहीं है, अतः उससे संबन्धित संदर्भ मूल ग्रंथ से लेना पड़ा। मैंने सबसे पहले पर्व या काण्ड का नाम लिखा है, उसके बाद पहली संख्या अध्याय या सर्ग-सूचक है, दूसरी संख्या श्लोक या श्लोक-गुच्छ की है। जिन ग्रन्थों में (जैसे दीर्घतर उपनिषद् समूह में) अध्याय भी परिच्छेदों में विभक्त हैं, वहाँ तीसरी संख्या श्लोक सूचक है। जहाँ एक ही प्रसंग में एक से अधिक विश्लिष्ट अध्याय या श्लोक उल्खलिखित हुए हैं, वहाँ मैंने कॉमा लगाया है और अनुकूलिता दिखलाने के लिए हाइफन।
संस्कृत के जिन ग्रन्थों और उद्धरणों का उल्लेख किया गया है वे अपने संस्करणों सहित निम्नलिखित हैं—
महाभारत-आर्यशास्त्र संस्करण (आदि से शल्यपर्व तक)
-बंगवासी संस्करण (समग्र पाठ, नीलकण्ठी टीका सहित)
वाल्मीकि रामायण-आर्यशास्त्र संस्करण
मनुसंहिता-आर्यशास्त्र संस्करण
कठोपनिषद्-उद्बोधन संस्करण
बृहदारण्यक उपनिषद्- उद्बोधन संस्करण
श्वेताश्वतर उपनिषद्- उद्बोधन संस्करण
छान्दोग्य उपनिषद्- उद्बोधन संस्करण
कौषीतकी उपनिषद्-महेशचन्द्रपाल द्वारा संपादित
भगवद्गीता- उद्बोधन संस्करण
अध्यात्म रामायण-बंगवासी संस्करण
मार्कण्डेय पुराण-बंगवासी संस्करण
मैंने महाभारत के सिद्धान्तवागीश संस्करण का आवशयकतानुसार प्रयोग किया है। उसका उल्लेख यथास्थान कर दिया है। मैंने देखा है कि बंगवासी और आर्यशास्त्र के श्लोकों में एकरूपता नहीं होती है, सिद्धान्तवागीश में पाठभेद और व्यतिक्रम और भी अधिक है, तथा इन तीनों संस्करणों में पर्व, अध्याय और श्लोकसंख्या में भी बहुत असमानता है। इधर काली प्रसन्न में भी पर्व और अध्याय की संख्या कुछ-कुछ भिन्न है। किन्तु यह सब जटिलता हमारी आलोचना के लिए उतनी आवश्यक नहीं है क्योंकि अधिकांश पाठभेद महत्त्वहीन शब्दों के हैं। मैंने पाठभेद का उल्लेख केवल वहीं किया है जहाँ कोई नया तथ्य मिला है या जहाँ श्लोक का अनुक्रम पृथक् है जैसे पादटिप्पणी सं. 3. 29. 30. और 41 में। कोई-कोई पाठक मेरे उल्लेख से मूल श्लोक तक पहुँचना चाहेंगे तो उन्हें कम परिश्रम करना होगा-पोथियों के हेरफेर से कोई बड़ा विघ्न नहीं होगा- अवश्य ही यदि अंश विशेष बिल्कुल हटा न दिया गया हो।
मेरे द्वारा प्रयुक्त अन्य आकर ग्रंन्थों का परिचय इस प्रकार है ऋग्वेद- मेशचन्द्र दत्त बंगानुवाद
अथर्ववेद –विलियम ह्वाइट ह्विटने, अंग्रेजी अनुवाद
मत्स्यपुराण-बंगवासी (मूल एवं बंगानुवाद)
भागवतपुराण-बंगवासी (बंगानुवाद)
विष्णुपुराण –आर्यशास्त्र (मूल और बंगानुवाद)
हरिवंश-वर्धमान सं. बंगानुवाद
जातक –ईशानचन्द्र घोष, बंगानुवाद
महाभारत (वनपर्व) –वर्धमान सं. बंगानुवाद
कालीप्रसन्न सिंह का महाभारत-वसुमती (समग्र)
काशी रामदास। महाभारत-रामानन्द चट्टोपाध्याय द्वारा सम्पादित कृत्तिवासी रामायण-दिनेशचन्द्र सेन सम्पादित
तुलसीदीस-रामचरितमानस-गीता प्रेस, गोरखपुर (मूल एवं अँग्रेजी अनुवाद)
चूँकि यह पुस्तक प्राचीन साहित्य से सम्बन्धित है इसलिए ग्रीक और लैटिन नामों के लिप्यन्तरण में बहुत सतर्क रहा हूँ। जहाँ शंका हुई वहाँ बहुभाषिक फादर रॉव के ऑतोदान, एस. जे. और ज्ञानेन्द्रमोहन के उत्कृष्ट शब्दकोश का सहारा लिया है। फलतः मेरी पहले की रीति यहाँ बदल गयी है (ईडिपस के लिए अयदि पौल इलेक्ट्रा के लिए एलेक्त्रा) किंतु पाठकों की सुविधा का ध्यान रखकर इस, प्रकार का आक्षरिक अनुकरण सब जगह नहीं किया है। किसी-किसी बहुप्रचलित नाम का प्रचलित अंग्रेजी बंग रूप अक्षुण्ण रखा है (होमर, वर्जिल, सॉक्रेटीस, ट्राय, इलियड) अन्य कई स्थानों पर मूल की ध्वनि और बंगालियों के अभ्यास में सझौता किया गया है। पाठकों से अनुरोध है कि इस विषय में कोई यान्त्रिक समरूपता की प्रत्याशा न करें।
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