कुछ सालों पहले ही अखबारों के मुखपृष्ठ पर भोपाल में एक जैन साध्वी के समाधिस्थ होने की खबर जोरों शोरों से आई, इस मृत्यु महोत्सव हजारों की संख्या में धर्मावलम्बी उमड पडे थे। उन धर्मावलम्बियों की यही भावना थी कि यह मृत्यु मृत्यु नहीं मृत्यु पर विजय प्राप्ति है। सल्लेखना के द्वारा समाधिस्थ होने वाला जैन धर्मावलम्बियों में देवतुल्य माना जाता है। साध्वी जी की अंतिमशोभा यात्रा बडी धूमधाम से निकली, उन्हें बैठी हुई समाधिस्थ मुद्रा में ही एक पालकी में विराजमान किया हुआ था। ऐसी अद्भुत मृत्यु देख लोग भावुक व अभिभूत थे।
स्वयं ही अपनी मृत्यु का वरण कर अपनी मृत्यु को निर्वाण में बदल कर मोक्ष पाना ही सल्लेखना है। मुझे अधिक जानकारी तो नहीं जैन धर्म की किन्तु सल्लेखना के बारे में कई बार देखा सुना पढा था कि स्वयं अपनी मृत्यु का वरण करने हेतु जैन साधक और साध्वियां लम्बा निर्जल उपवास रखते हैं और धीरे धीरे शान्त व एकान्त में रह कर तथाप्रार्थनाओं में ध्यान लगा रह कर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं।
धर्म और दर्शन का यह स्वरूप किसी समीक्षा का मोहताज न सही पर एक गहन सोच में अवश्य डालता है कि आखिर किसी धर्म का धर्म और कर्तव्य क्या होता है? बस जीवन और मरण पर विजय पा लेना मात्र? ये जीवन जो प्रकृतिप्रदत्त है, स्वयं एक धर्म है, जीवन धर्म! फिर इससे छूट कर पलायन की बेजा हठ क्यों? मानव जीवन की सार्थकता इसमें तो नहीं कि आप इसे व्यर्थ करदें। क्या सचमुच यह देह व्यर्थ है? कर्म कुछ भी नहीं? मानवता का कोई धर्म नहीं? बहुत सारे प्रश्न
इस देह में रह कर संसार का कोई भी धर्म निभाया जा सकता है। देह से भागी हुई आत्मा शून्य में विलीन हो सकती है, मानवता के प्रति क्या कर सकती है, कुछ नहीं। न जाने कितने करोड वर्षों में बनी पृथ्वी, इतने ही वर्षों बाद जीवन का अस्तित्व आयान जाने कितने तरह के जीवों की निर्मिति हुई, कितने विकास क्रमों के पश्चात मानव बना। क्या इसलिये कि इस प्रकृति के विकास को माया मोह नाम देकर पलायन कर लिया जाए संसार से?
धर्म कोई बुरा नहीं, त्याग और तपस्या महान है। वैराग्य भी मानवता का एक उत्तम स्वरूप है। किन्तु मृत्यु जो कि हर रूप में मृत्यु है उसे क्या महीनों भूखे प्यासे रह कर मोक्ष की कामना में निर्वाण में बदला जा सकता है? मृत्यु का यह महोत्सव किसी धर्म पर अंगुली नहीं उठाता, श्रध्दा जगाता है। किन्तु साथ ही बहुत गहरे उतर कर सोचा जाए तो ऐसी मृत्यु की कामना मात्र ही पलायन प्रतीत होती है। आत्महत्या और इस मोक्ष की कामना में बडा बारीक अन्तर है। दु:खों, अभावों से परेशान होकर मानव मृत्यु वरण करे तो वह आत्महत्या है, इन्हीं दु:खों के जाल को काट कर वैराग्य लेकर व्रतों, तपस्याओं और समाधि लेकर प्राप्त की गई मृत्यु पूजनीय है और निर्वाण के बाद मोक्ष प्राप्ति का साधन है। तो फिर किसी अति जर्जर, बीमार या वर्षों से कोमा में पडे, या व्याधि की अंतिम अवस्था में तडपते किसी व्यक्ति के लिये मर्सी डेथ को कई देशों सहित भारत में भी मान्यता क्यों नहीं दी गई है, इसकी कुछ वजह है, एक तो इसके दुरूपयोग की संभावना है, दूसरे प्रकृतिप्रदत्त जीवन को नष्ट करने का अधिकार मानव को नहीं। जीवन की तरह मृत्यु भी प्राकृतिक होनी चाहिये।
सामान्यतया अतिवृध्द जैन साधक या साध्वियां ही सल्लेखना का सहारा लेते हैं, कभी कभी युवा या प्रौढ साधक या साध्वियां भी सल्लेखना द्वारा मृत्युवरण करते हैं।
यूं तो अपने अपने धर्म की मान्यताएं हैं, और भारत में सभी धर्म स्वतन्त्र हैं। पर कुछ अद्भुत धार्मिक मान्यताएं आश्चर्य और सोच में डाल जाती हैं। समाधिस्थ होना और मोक्ष प्राप्त करना हमारे भारत के अतीत के लिये नया नहीं है पर बदलते परिप्रेक्ष्यों में ऐसी घटनाएं मानस पर कई प्रश्न छोड ज़ाती हैं।
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