Sunday, September 6, 2009

गीता और दैनिक जीवन


गीता में कुछ ऐसे सत्य कहे गए हैं, जो हमारे जीवन का भाग होने चाहिएं.यदि ऐसा हो जाए तो हमारा समाज अनेक  त्रुटियों से मुक्त हो जाए.
दान
17-20 'दान देना मेरा धर्म है'-जो दान इस भावना से उचित स्थान में, उचित समय परकिसी दान लेने योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, और उस व्यक्ति से किसी प्रकार की सेवा की आशा नहीं की      जाती, ऐसा दान सात्त्वि होता  है.
      हम दान तो देते हैं परन्तु बिना सोचे समझे.दान देते समय हम ने कभी नहीं सोचा, कि दान लेने वाला दान लेने योग्य भी है या नहीं.बिना सोचे समझे दान देने की इस प्रथा ने हमारे समाज में एक नया वर्ण पैदा कर दिया है जिसे हम भिखारी वर्ण कह सकते हैं.कुछ अंकडे बताते हैं कि इस भिखारी वर्ण की संख्या भारतीय सेना की संख्या से अधिक है.भारतीय सेना तो देश का गौर्व है और यह भिखारी वर्ण देश का कलंक है.
17-21 जो दान किसी सेवा के बदले में या किसी फल की इच्छा से दिया जाता है या जो दु:खी हो कर दिया जाता है, ऐसा दान राजसिक है.
17-22 जो दान बिना सत्कार के, बडी घृणा से, गलत स्थान पर और गलत समय पर किसी(दान लेने के) अयोग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वह दान तामसिक है.
      अब आप ही अनुमान लगाएं कि आप का दान कैसा है.कृप्या सोचें कि आप का दान सात्त्वि हो. 
        भोजन
17-8 आयु, सत्त्वगुण, बल, स्वास्थ्य, सुख और आनन्द को बढाने वाले रसदार, चिकने और रुचिकर भोजन सात्त्वि (स्वभाव के) लोगों को अच्छे लगते हैं. 
17-9 कडवे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, तीखे और जलन पैदा करने वाले भोजन, जो दु:ख, शोक, और रोग पैदा करते हैं, वे राजसिक (स्वभाव के) लोगों को अच्छे लगते हैं.
17-10 देर का पडा हुआ, रसहीन, दुर्गन्ध युक्त, बासी, जूठा और गंदा भोजन तामसिक (स्वभाव के) लोगों को अच्छा  लगता है.
     तप 
17-14 देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों का सत्कार, पवित्रता, छल कपट का अभाव, ब्रह्मचर्य और किसी को दु:ख न देना--इसे शरीर का तप कहते हैं.
17-15 ऐसे शब्द बोलना जो दूसरों को बुरे न लगें, जो सत्य हों, जो प्रिय और हितकर हों, नियमत रूप से शास्त्रों का अध्ययन--इसे वाणि का तप कहते हैं.
17-16 मन की प्रसन्नता, दयालू भाव, मौन व्रत रखना, मन को वश में रखना, और अपने विचारों को शुध्द रखना--यह मन का तप है.
17-17 यदि युक्त मन वाले व्यक्ति, फल की इच्छा किए बिना, पूर्ण श्रध्दा से ये तीन प्रकार(शरीर-वाणी-मन) के तप करते हैं--ऐसे तप सात्त्वि होते हैं.
       ये तप हमारे मानसिक सन्तुलन को स्वस्थ रखते हैं. इन से हमारा चरित्र भी बलवान होता है. ऐसी अवस्था में हम समाज के एक लाभदायक सदस्य बनते हैं. हम भी ऊपर उठते हैं और समाज को भी ऊपर उठाते हैं.
17-18 जो तप सत्कार, मान या केवल पूजा के लिए, या केवल दिखावे के
       लिए किया जाता है, वह तप राजसिक है.ऐसा तप अस्थाई और अस्थिर होता है अर्थात ऐसे तप का पुण्य देर तक नहीं रहता. 
  17-19 जो तप मूढता पूर्वक हठ से, अपने आप को कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुंचाने के लिए किया जाता है--वह तामसिक तप कहलाता है.
       सुख
  18-36 हे भरत श्रेष्ठ! अब मुझ से तीन प्रकार के सुख के विषय में सुन.वह सुख जो मनुष्य बहुत लम्बे अभ्यास द्वारा   प्राप्त करता है और जिस से उस के दु:खों का अन्त हो जाता है_
  18-37 वह सुख जो पहले तो विष समान होता है, अन्त में अमृत समान हो जाता है, वह सुख जो आत्मज्ञान के फलस्वरूप मिलता है--वह सात्त्वि सुख है.
  18-38 जो सुख इंद्रियों और उन के विषयों के मिलाप से मिलता है.जो पहले तो अमृत समान होता है, अन्त में विष समान हो जाता है--वह सुख राजसिक कहलाता है.
  18-39 वह सुख जो आरंभ और अन्त में जीव को भ्रम में डाले रखता है. जो निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है--वह सुख तामसिक है.
  5-22 इंद्रियों के सम्बंध से जो सुख मिलते हैं, वे तो दु:ख को ही जन्म देते
         हैं.हे कुन्ती पुत्र! उन का आरंभ भी होता है और उन का अन्त भी
         होता है. बुध्दिमान पुरुष इन में आनन्द नहीं मानता.
       स्त्री के शुभ गुण
 10-34 सर्व भक्षक मृत्यु मैं हूं.भविष्य में होने वाले जीवों का मूल मैं
        हूं.नारीयों के गुणों में यश, भाग्य, मीठी वाणी, स्मरण शक्ति, बुध्दि
        और क्षमा भाव मैं हूं.
        जिस स्त्री में यह छ: गुण हों उस के घर और परिवार में सुख और
       शान्ति का राज्य होगा.ये गुण स्त्री को देवी बना देते हैं.ये गुण वे अमूल्य ज़ेवर हैं जिन्हें पहन कर स्त्री एक आदर्श बेटी, एक आदर्श पत्नि, एक आदर्श बहन और एक आदर्श मां बन जाती है.
                                    गीता पाठ और वहम
      हिन्दू समाज में यह माना जाता है कि गीता का पाठ मृत्यु के पश्चात घर को शुध्द करने के लिए किया जाए या  उस व्यक्ति को गीता सुनाई जाए जो संसार छोड रहा हो. शुभ अवसर पर गीता पाठ शुभ नहीं. शुभ अवसर पर गीता के पाठ को शुभ क्यों नहीं माना जाता, इस विषय में कुछ कहना कठिन है.इस वहम को पैदा करने में क्या पुरोहित वर्ग दोषी है? इस वहम को पैदा करने में पुरोहित वर्ग भले ही दोषी न हो, परन्तु इस वहम को दूर न करने में पुरोहित वर्र्ग  दोषी अवश्य है. इस वर्ग की आय के साधन कर्मकांड की क्रियाए हैं. गीता ऐसी क्रियाओं के त्याग का उपदेश देती   है.इस अवस्था में यह वर्ग ऐसे ग्रंथ के पाठ का प्रचार क्यों करेगा जो उस की आय के साधनों को ठेस पहुंचाता हो.
     शुभ अवसर पर गीता का पाठ न करना केवल एक वहम है और कुछ नहीं. आप सोचें कि यदि एक प्राणि मरते समय गीता के कुछ अक्षर सुन लेने से ही परम गति प्राप्त कर लेता है, तो जिस प्राणि ने सारा जीवन गीता पाठ किया हो वह क्या नहीं प्राप्त कर पाएगा. वह तो भगवान रूप हो कर जीएगा और मृत्यु पश्चात भगवान के साथ एक हो जाएगा.
     सुनिए भगवन क्या कहते हैं-
8-7 ्र तू हर समय मेरा ध्यान कर और युध्द कर. अपने मन और बुध्दि से वही कर जो मैं चाहता हूं. नि:संदेह तू मुझे प्राप्त होगा.
18-64 अब तू मेरे परम वचन सुन, जो बहुत ही रहस्यपूर्ण हैं. तू मुझे बहुत प्रिय है इस लिए मैं तुझे बताता हूं कि तेरे लिए क्या हितकर है. 

18-65 तू अपना मन मुझ में टिका. मेरी भक्ति कर.मेरी पूजा कर.मुझे ही नमस्कार कर. ऐसा करने से तू मुझे प्राप्त होगा. मैं तुझे सत्य वचन देता हूं क्योंकि तू मुझे अति प्रिय है.
      यदि शुभ अवसर पर गीतापाठ शुभ न होता तो भगवान अर्जुन से यह क्यों कहते, 'तू हर समय मेरा ध्यान कर'.
                      मृत्यु समय और गीता
 8-5 मृत्यु के समय जो केवल मेरा ध्यान करते हुए शरीर त्याग कर इस संसार से जाता है, वह मुझे प्राप्त होता है. इस में कोई संशय नहीं .
 8-6 हे कुन्ती पुत्र! मृत्यु के समय मनुष्य जिस का ध्यान करते हुए शरीर छोडता है, सदा उसी के ध्यान में मग्न रहने के कारण, वह उसे ही प्राप्त होता है.
8-10जो प्राणि अन्तकाल में निश्चल मन से, भक्ति युक्त हो कर, योगबल से अपने प्राणों को भौहों के मध्य में भली प्रकार टिका लेता है, वह परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है.
8-12शरीर के सब द्वारों को बंद कर,मन को हृदय में टिका कर, प्राणों को मस्तक में स्थित कर, योग द्वारा एक चित्त हो कर_
8-13जो मनुष्य ब्रह्मरूप अक्षर ॐ का उच्चारण करता है और मेरा ध्यान करते हुए शरीर छोडता है वह परम गति प्राप्त करता है.
               क्या गीता पाठ के बिना ऐसा करना संभव है.
                      भगवान का आदेश

18-64 अब तू मेरे परम वचन सुन, जो बहुत ही रहस्यपूर्ण हैं. तू मुझे बहुत     प्रिय है इस लिए मैं तुझे बताता हूं  कि तेरे लिए क्या हितकर है.

18-65 तू अपना मन मुझ में टिका. मेरी भक्ति कर. मेरी पूजा कर और मुझे ही नमस्कार कर. ऐसा करने से तू मुझे प्राप्त होगा. मैं तुझे सत्य वचन देता हूं क्योंकि तू मुझे अति प्रिय है. 

18-66 सब धर्मों(विश्वासों) को छोड. तू मेरी शरण में आ. तू चिन्ता मत कर. मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा.
18-67 तू मेरे इस उपदेश को किसी ऐसे व्यक्ति से मत कहना, जिस ने न तपस्या की है और न भक्ति की है.या जो इसे सुनना नहीं चाहता.या जो मेरी निन्दा करता है.
         गीता प्रचार और गीता पाठ का फल
18-68 जो मेरे परम रहस्यपूर्ण उपदेश को मेरे भक्तों में कहेगा और मुझ में परम भक्ति रखेगा, नि:संदेह वह मुझे प्राप्त       होगा.
18-69 जो इस प्रकार मेरी सेवा करता है, मनुष्यों में और कोई उस से अच्छा नहीं. इस संसार में मुझे भी उस से अधिक  कोई और प्रिय नहीं.
18-70 जो व्यक्ति हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा, मैं समझूं गा कि वह ज्ञानयज्ञ द्वारा मेरी  पूजा कर रहा है.
18-71 जो व्यक्ति श्रध्दा से और दोष ढूंढने की दृष्टि से रहित हो कर इस उपदेश को सुनेगा. वह मुक्त हो कर उन शुभ लोकों(स्वर्ग) को प्राप्त होगा, जहां पुण्य आत्माएं निवास करती हैं.भगवान कहते हैं
  1     जो इस उपदेश को मेरे भक्तों से कहेगा, वह मुझे प्राप्त होगा.
  2    जो इस पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा, मैं समझूंगा कि वह ज्ञानयज्ञ
        द्वारा मेरी पूजा कर रहा है.
  3     जो व्यक्ति श्रध्दा से इस उपदेश को सुनेगा वह स्वर्ग प्राप्त करेगा.
        क्या यह गीता पाठ के बिना हो सकता है.हम एक मिथ्या वहम का शिकार हो कर भगवान के आदेश का उलंघन कर रहे हैं. हमारे समाज की दुर्दशा का यही मूल कारण है.यही वहम हमें अंधकार से प्रकाश की ओर जाने नहीं देता.इसी  कारण आज हिन्दू समाज में अंधविश्वास का राज्य है.
      आज हम कितने देवी देवताओं की पूजा करते हैं.हमारे मन्दिर भगवान के पूजा स्थान कम हैं, भगवान के विभूति स्थान अधिक हैं.बच्चे यह नहीं समझ पाते कि इनमें भगवान कौन है. आप कह सकते हैं कि ये सब भगवान के ही भिन्न भिन्न रूप हैं.
      जब भगवान एक है,तो केवल भगवान की ही पूजा होनी चाहिए .भगवान की पूजा में ही उसके भिन्न भिन्न रूपों  की पूजा है.
      क्या हमें मनुष्य से प्यार करना चाहिए या उस की परशाईं से .
       गीता का आदेश भी यही है                                                        
9-23 जो भक्त श्रध्दा से दूसरे देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी मेरी ही पूजा करते हैं. परन्तु उन  की पूजा विधि अनुसार नहीं.
      हमें अपनी पूजा को विधि अनुसार बनाने के लिए भगवान के आदेश को मानना होगा.
          भगवान के आदेश को फिर सुनिए और याद रखिए
18-66 तू सब धर्मों(विश्वासों) को छोड. तू मेरी शरण में आ. तू चिन्ता मत कर. मैंं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा.
18-65 तू अपना मन मुझ में टिका. मेरी भक्ति कर. मेंरी पूजा कर.मुझे ही नमस्कार कर. ऐसा करने से तू मुझे प्राप्त होगा. मैं तुझे सत्य वचन देता हूं, क्योंकि तू मुझे अति प्रिय है.
नोट:- अपने सगुण रूप में भगवान कृष्ण ही परम ब्रह्म हैं.भगवान कहते हैं-
14-27 मैं उस ब्रह्म का स्वरूप हूं जो अमर है, अविनाशी है, शाश्वत धर्म और परमानन्द है.
ॐ  तॅत  सॅत 
अर्जुन की
प्रार्थना
 गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन ने बहुत ही सुंदर शब्दों में भगवान की स्तुति की है.  
      अध्याय 11 शलोक 36-42
           इस प्रार्थना को हमें प्रतिदिन प्रात: और सायं कहना चाहिए.
     हे हृषिकेश.यह तो उचिता ही है कि संसार आप के कीर्तन से हर्षित होता है और आनन्द मानता है.राक्षस डर कर इधर उधर भागते हैं और सिध्द जनों के समूह आप को प्रणाम करते हैं.हे महात्मा.वे आप को प्रणाम क्यों न करें, आप तो ब्रह्मा जी से भी महान हैं.आप आदि स्रष्टा हैं.हे अनन्त, हे देवों के देव, हे जगताधार.आप सत हैं और आप ही असत हैं.इन से परे आप ही अक्षर ब्रह्म हैं.
      आप आदि देव हैं और सनातन पुरुष हैं.आप इस विश्व के परम आश्रय हैं.आप ज्ञाता हैं और आप ही ज्ञेय हैं.आप ही परम लक्षय हैं. हे अनन्तरूप.आप से ही यह विश्व व्याप्त है.आप  वायु हैं, यमराज हैं और अग्नि हैं.आप  समुद्र देव और चंद्रमा हैं.आप ही प्रजपति हैं. आप ही संसार के पितामह हैं.
              आप को हजार बार प्रणाम, आप को बार बार प्रणाम.
              आप को सामने से प्रणाम, आप को पीछे से प्रणाम.
                       आप को सब ओर से प्रणाम.
      आप के बल का अन्त नहीं.आप की शक्ति अपार है.आप ही सब ओर व्याप्त हैं.इस लिए आप ही सर्व हैं.आप इस चराचर जगत के पिता हैं.यदि किसी की पूजा की जाए वह आप हैं.आप गुरुओं के गुरु हैं.हे अनुभव प्रभाव   वाले.जब तीन लोकों आप के समान ही कोई नहीं, तो फिर आप से महान कौन होगा.
      हे भगवन.अपने शरीर को आप के चरणों में झुका कर मैं आप को प्रणाम करता हूं और आप से प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे ऐसा ही समझें जैसे पिता अपने पुत्र को, मित्र अपने मित्र को और प्रेमी अपनी प्रेमिका को  समझता है.
 
                    ॐ तॅत सॅत

2 comments:

Saurabh Suman said...

Kya baat hai...chaa gayen hain aap. Blog per itni acchhe content ki bahut jaroorat thi, aapka prayash sarahniya hai. carry on.

Saurabh Suman said...

agar comment se word verificaion hata den to comment dena aur bhi aasaan ho jayega. kyon?