Monday, August 31, 2009

Archive for the ‘प्रसिद्ध रचनाकार’ Category गोस्वामी तुलसीदास – प्रचलित कथायें एवं विशिष्टाएँ

ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास जी वाल्मीकि के अवतार हैं। हिंदू मान्याताओं के अनुसार आत्मा अमर है। वाल्मीकि ने “रामायण” की रचना की थी और उसका पाठ करके लंबे अंतराल तक हिंदू एक सूत्र में बंधते रहे। मैं समझता हूँ कि कालान्तर में संस्कृत भाषा का ह्रास हो जाने के कारण “रामायण” का प्रभाव क्षीण होने लगा होगा तब वाल्मीकि को “रामायण” के लिये तुलसीदास के रूप में अवतार लेना पड़ा होगा।
पत्नी की फटकार ने रामबोला (तुलसीदास) के ज्ञान चक्षु खोल दिये थे और वे प्रयाग जा पहुँचे थे। ज्ञान प्राप्ति के लिये वे सतत् प्रयास करते रहे। चौदह वर्षों तक निरंतर तीर्थाटन किया। चारों धामों (बदरीनाथ, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी और द्वारिका) की पैदल यात्रा की। और अंततः ज्ञान प्राप्ति के अपने लक्ष्य को पा कर ही रहे।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात उन्होंने अनेक काव्यों की रचना की जिनमें से रामचरितमानस, कवितावली, दोहावली, गीतावली, विनय पत्रिका, कवित्त रामायाण, बरवै रामायाण, रामलला नहछू, रामाज्ञा, कृष्ण गीतावली, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामसतसई, रामनाम मणि, रामशलाका, हनुमान चालीसा, हनुमान बाहुक, संकट मोचन, वैराग्य संदीपनी, कोष मञ्जूषा आदि अत्यंत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हैं
तुलसीदास जी को हनुमान जी के दर्शन प्राप्त थे। हनुमान जी से ही प्रेरणा प्राप्त करके तुलसीदास जी ने “रामचरितमानस” की। तुलसीदास जी को हनुमान जी के दर्शन कैसे मिले यह भी एक रोचक कथा है। कहा जाता है कि प्रतिदिन प्रातःकाल जब शौच के लिये गंगापार जाते थे तो वापसी के समय लोटे में बचे हुये पानी को एक पेड़ के जड़ में डाल दिया करते थे। उस पेड़ में एक प्रेत का निवास था। रोज पानी मिलने की वजह से उसे संतुष्टि मिली वह तुलसीदास जी पर प्रसन्न हो गया और उनके सामने प्रकट होकर उसने वर मांगने के लिया कहा। तुलसीदास जी ने भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। इस पर प्रेत ने कहा कि मैं भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन तो नहीं करवा सकता पर इतना अवश्य बता सकता हूँ कि फलाने मंदिर में नित्य सायंकाल में भगवान श्रीरामचंद्र की कथा होती है और वहाँ कथा सुनने के लिये हनुमान जी कोढ़ी के वेश में आते हैं। कथा सुनने के लिये सबसे पहले वे ही आते हैं और सबके चले जाने के बाद अंत में ही वे जाते हैं। वे ही आपको भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन करा सकते हैं अतः वहाँ जाकर उन्हीं से प्रार्थना कीजिये। तुलसीदास जी ने वहाँ जाकर अवसर पाते ही हनुमान जी के पैर पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न कर लिया। हनुमान जी ने कहा कि चित्रकूट चले जाओ वहीं तुम्हे भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन होंगे। तुलसीदास जी चित्रकूट पहुँच गये। वहाँ के जंगल गुजरते हुये उन्होंने दो राजकुमारों को, जिनमें से एक श्यामवर्ण के थे और दूसरे गौरवर्ण के, एक हिरण का पीछा करते हुये देखा। राजकुमारों के आँखों से ओझल हो जाने पर हनुमान जी ने प्रकट होकर बताया कि वे दोनों राजकुमार ही राम और लक्ष्मण थे। तुलसीदास जी को बहुत पछतावा हुआ कि वे उन्हें पहचान नहीं पाये। हनुमान जी ने कहा कि पछतावो मत एल बार फिर तुम्हे भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन होंगे तब मैं इशारे से तुम्हे बता दूंगा। संवत् 1607 के मौनी अमावश्या के दिन तुलसीदास जी चित्रकूट के घाट पर चंदन घिस रहे थे। तभी बालक के रूप में भगवान श्रीरामचंद्र वहाँ पर आये और तुलसीदास जी से मांगकर उन्हीं को चंदन लगाने लगे इसी समय हनुमान जी एक ब्राह्मण के रूप में आकर इस प्रकार गाने लगेः
चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसै, तिलक देत रघुबीर॥

इस पर तुलसीदास जी ने श्री रामचंद्र जी को पहचान लिया और उनके चरण पकड़ लिये।
नित्य भगवान श्रीरामचंद्र की भक्ति में लीन रहने से सहज ही उनकी अलौकिक शक्तियाँ जागृत हो गई थीं और उनके मुख से निकले शब्द सच सिद्ध हो जाते थे। एक महिला जो कि तुरंत ही विधवा हुई थी ने तुलसीदास जी को प्रणाम किया। अनजाने में ही उनके मुख से आशीर्वाद के रूप में ‘सौभाग्यवती भव’ शब्द निकल गये तो महिला का पति जीवित हो उठा। यह बात बादशाह तक पहुँच गई। बादशाह ने तुलसीदास को बुलवाकर करामात दिखाने के लिये कहा। तुलसीदास जी ने जवाब दिया कि मैं “रामनाम” के सिवाय और कोई करामात नहीँ जानता। इस पर बादशाह ने उन्हें कैद कर लेने का हुक्म दे दिया। कैद में तुलसीदास जी ने हनुमान जी की स्तुति करना आरंभ कर दिया। चमत्कारिक रूप से अनगिनत बंदर आ गये और किले में उत्पात मचाने लगे। बादशाह ने तुलसीदास जी से क्षमायाचना करके उन्हें कैद से आजाद कर दिया तो सारे बंदर वापस चले गये।
निःसंदेह तुलसीदास जी अलौकिक व्यक्तित्व के स्वामी थे। “रामचरिमानस” की रचना करके समस्त हिंदुओं पर एक बहुत बड़ा उपकार किया है। “रामचरितमानस” ग्रंथ संसार के लिये एक अमूल्य उपहार है। अंत में एक बात और। तुलसीदास जी का जन्म श्रावण शुक्ल सप्तमी को हुआ था और 126 वर्ष पश्चात पवित्र गंगा नदी के असी घाट पर श्रावण शुक्ल सप्तमी को ही उनकी मृत्यु हुई। इस पर किसी कवि ने कहा हैः
संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर।।
तुलसीदास (Tulsidas)
तुलसीदास (Tulsidas)
तुलसीदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में स्थित राजापुर नामक ग्राम में संवत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन हुआ था. उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी देवी था. ऐसा कहा जाता है कि उनका जन्म माता के गर्भ में 12 महीने रहने के बाद हुआ था और जन्मते ही उनके मुख से रुदन के स्थान पर “राम” शब्द का उच्चारण हुआ था, उनके मुख में पूरे बत्तीस दाँत थे तथा उनकी कद काठी पाँच वर्ष के बालक के समान था. इन सारी विचित्रताओं के कारण पिता अमंगल की आशंका से भयभीत हो गये. अनिष्ट की आशंका से माता ने दशमी की रात को बालक को दासी के साथ उसके ससुराल भेज दिया और दूसरे दिन स्वयं संसार से चल बसीं. दासी ने जिसका नाम चुनियाँ था बालक का पालन-पोषण बड़े प्यार से किया. साढ़े पाँच वर्ष की उम्र की में दासी चुनियाँ की भी मृत्यु हो गई और बालक अनाथ हो गया.
रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्द जी की दृष्टि इस बालक पर पड़ी और वे उसे अपने साथ अयोध्या ले जा कर उसका लालन-पालन करने लगे. बालक का नाम रामबोला रखा गया. रामबोला के विद्याध्ययन की भी व्यवस्था उन्होंने कर दिया. बालक तीव्र बुद्धि तथा विलक्षण प्रतिभा वाला था अतः शीघ्र ही समस्त विद्याओं में पारंगत हो गया. काशी में शेष सनातन से उन्होंने वेद वेदांग की शिक्षा प्राप्त की.
सभी विषयों में पारंगत हो कर तथा श्री नरहर्यानन्द की आज्ञा ले कर वे अपनी जन्मभूमि वापस आ गये. उनका परिवार नष्ट हो चुका था. उन्होंने अपने पिता तथा पूर्वजों का विधिपूर्वक श्राद्ध किया और वहीं रह कर लोगों को रामकथा सुनाने लगे. संवत् १५८३ में रत्नावली नामक एक सुंदरी एवं विदुषी कन्या से उनका विवाह हो गया और वे सुखपूर्बक जीवन यापन करने लगे. रामबोला को अपनी पत्नी से अत्यंत प्रेम था. एक बार जब रत्नावली को उसका भाई मायके लिवा गया तो वे वियोग न सह पाये और पीछे पीछे अपने ससुराल तक चले गये. रत्नावली को उनकी यह अति आसक्ति अच्छी नहीं लगी उन्हें इन शब्दों में धिक्काराः
लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ|
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह, ता पर ऐसी प्रीति|
तिसु आधो रघुबीरपद, तो न होति भवभीति॥

(आपको लाज नहीं आई जो दौड़ते हुये साथ आ गये. हे नाथ, अब मैं आपसे क्या कहूँ ऐसे प्रेम को धिक्कार है. यदि इससे आधी प्रीति भी आपकी भगवान श्रीरामचंद्रजी के चरणों के प्रति होती तो इस संसार के भय से आप मुक्त हो जाते अर्थात् मोक्ष मिल जाता.)
रत्नावली के ये शब्द रामबोला के मर्म को छू गये. उन्होंने अब अपना पूरा ध्यान रामभक्ति में लगाना शुरू कर दिया. वे प्रयाग आ गये, साधुवेष धारण कर लिया. तीर्थाटन, भक्तिभाव व उपासना में जीवन को लगा दिया. उन्हें काकभुशुण्डिजी और हनुमान जी के दर्शन प्राप्त हुये. हनुमान जी की ही आज्ञा से उन्होंने अपना महाकाव्य “रामचरित मानस” लिखा और “संत तुलसीदास” के नाम से प्रसिद्धि पाई.
संवत् 1631 के रामनवमी के दिन से उन्होंने “रामचरित मानस” लिखना आरंभ करके 2 वर्ष 7 माह 26 दिन पश्चात् संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन उसे पूर्ण किया. “रामचरित मानस” एक अमर ग्रंथ है जिसे कि हर हिंदू बड़े चाव से रखता और पढ़ता है.
संवत् 1680 में “संत तुलसीदासजी” ने अपने नश्वर शरीर का परित्याग किया.

बिहारी

बिहारी रीतिकालीन के जाने माने कवियों में से एक हैं। इनका जन्म सन् 1660 में ग्वालियर के पास वसुआ गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवराय था और वे जाति के ब्राह्मण (चतुर्वेदी) थे।
बिहारी का बाल्यकाल बुन्देलखंड में बीता किन्तु युवावस्था में विवाह के पश्चात वे मथुरा में निवास करने लगे। वे जयपुर के महाराजा जयसिंह के आश्रित थे। बिहारी कृष्णभक्त प्रवृति के कवि थे। बिहारी सतसई इनकी प्रमुख रचना है जो कि एक मुक्तक काव्य है।
बिहारी के दोहों में रस, अलंकार, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति, नायक नायिका भेद के बहुत अच्छे उदाहरण पाये जाते हैं।

रहीम

अब्दुर्हीम खानखाना की गणना अकबर के दरबार के नवरत्नों में होती है। वे मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि हैं। उनके पिता का नाम बैरमखाँ था जो कि अकबर के अभिभावक भी थे। रहीम का जन्म माघ कृष्ण पक्ष गुरुवार, सन् 1556 ई में हुआ था। उनका पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा अकबर के निरीक्षण में हुई थी क्योंकि पाँ वर्ष की अवस्था में ही उनके पिता की हत्या कर दी गई थी। रहीम को, उनकी योग्यता से प्रभावित होकर, अकबर ने ‘खानखाना’ की उपाधि प्रदान की थी। 1626 ई में 70 वर्ष की आयु में रहीम की मृत्यु हुई।
रहीम की प्रमुख रचनाएँ:
  • बरवै
  • बरवै नायिका भेद
  • नगर शोभा
  • मदनाष्टक
  • खेट कौतुकम
  • दोहावली
रहीम ने तुर्की भाषा में रचित बाबर की आत्मकथा का अनुवाद भी किया था।

हिन्दी के महान कवि – तुलसीदास

श्री तुलसीदास जी अवधी (हिन्दी की एक उपभाषा) के महान कवि एवं दार्शनिक थे। हिन्दी साहित्य तथा हिन्दू धर्म के प्रति उनके योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
यद्यपि रामचरितमानस उनकी प्रसिद्ध एवं अमर कृति है, किन्तु उनकी अन्य रचनाओं को भी अत्यधिक महत्व दिया जाता है।
तुलसीदास जी संस्कृत के विद्वान थे किन्तु उन्हें हिन्दी के महान साहित्यकार का दर्जा प्राप्त है।
तुलसीदास जी को संस्कृत की प्रसिद्ध रचना रामायण के रचयिता वाल्मीकि का अवतार माना जाता है।
उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में हुआ था। उनका असली नाम रामबोला था। उनके माता पिता का नाम क्रमशः हुलसी देवी और आत्माराम दुबे था।

तुलसीदास जी की रचनाएँ

तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छः मध्यम श्रेणी में आती हैं।

मुख्य रचनाएँ

  • रामचरितमानस – “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान काव्य रचना है।
  • दोहावली -दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है।
  • कवितावली -कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं।
  • गीतावली -गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है।
  • विनय पत्रिका -विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की।
  • कृष्ण गीतावली -कृष्ण गीतावली में श्री कृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है।

छोटी रचनाएँ

बरवै रामायण, जानकी मंगल, रामलला नहछू, रामज्ञा प्रश्न, पार्वती मंगल, हनुमान बाहुक, संकट मोचन और वैराग्य संदीपनी तुलसीदास जी की छोटी रचनाएँ हैं।
रामचरितमानस के बाद हनुमान चालीसा, जो कि हिन्दुओं की दैनिक प्रार्थना कही जाती है, तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है।

सूरदास

हिन्दी साहित्य में सूरदास की रचनाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। किसी ने कहा है किः
सूर सूर तुलसी शशी उड्गन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम जँह तँह करत प्रकास॥

अर्थात् हिन्दी काव्यरूपी आकाश में सूरदास जी सूर्य हैं, तुलसीदास जी चन्द्रमा हैं और केशवदास तारे के समान हैं। अब के कवि तो जुगनुओं के जैसे हैं जो यहाँ वहाँ चमकते रहते हैं।
  • सूरदास जी अकबर के समय के भक्त कवि, गायक तथा संत हैं।
  • यद्यपि अकबर काल में लिखित “आइन-ए-अकबरी” और “मुंशियात-ए-फज़ल” में सूरदास जी से सम्बंधित कुछ जानकारी है किन्तु उनके सम्बंध में बहुत कम जानकारी प्राप्त है।
  • सूरदास जी जन्मान्ध थे अतः उन्हें अपने परिवार से कटुतापूर्ण बर्ताव मिला। उन्होंने 6 की उम्र में हमेशा के लिये अपने घर को छोड़ दिया। अठारह वर्ष की उम्र में उन्हें उनके गुरु श्री वल्लभाचार्य यमुना किनारे मिले। गुरु ने ही उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबन्ध किया।
  • सूरदास जी ने अपने जीवनकाल का अधिकतर समय वृन्दावन में व्यतीत किया और वहाँ उन्होंने एक लाख छंदों वाली रचना, जिनमें से अब केवल लगभग आठ हजार छंद ही ज्ञात हैं, “सूर सागर” लिखी वे ब्रजभाषा तथा भक्ति रस के अत्यन्त प्रभावशाली कवि थे। भगवान श्री कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति थी। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं – सूर सागर, सूर सारावली और साहित्य लहरी।
  • सूरदास जी आजन्म अविवाहित रहे और भजन गाकर जीविकोपार्जन करते रहे।

विष्णु के नाम

अमरकोष के अनुसार भगवान विष्णु के निम्न नाम हैं:
  • विष्णु
  • नारायण
  • कृष्ण
  • वैकुण्ठ (या बैकुण्ठ)
  • दामोदर
  • हृषीकेश
  • केशव
  • माधव
  • दैत्यारि
  • पुण्डरीकाक्ष
  • गोविन्द
  • गरुड़ध्वज
  • पीताम्बर
  • अच्युत
  • जनार्दन
  • उपेन्द्र
  • चक्रपाणि
  • चतुर्भुज
  • पद्मनाभ
  • मधुरिपु
  • वासुदेव
  • त्रिविक्रम
  • देवकीनन्दन
  • श्रीपति
  • पुरुषोत्तम
  • वनमाली
  • विश्वम्भर

कामदेव के नाम

संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार कामदेव के निम्न नाम हैं:
  • मदन
  • मन्मथ
  • प्रद्युम्न
  • मीनकेतन
  • कन्दर्प
  • दर्पक
  • अनंग
  • काम
  • पञ्चशर
  • स्मर
  • शंबरारि
  • मनसिज (मनोज)
  • कुसुमेषु
  • अनन्यज
  • पुष्पधन्वा
  • रतिपति
  • मकरध्वज
  • विश्वकेतु

भगवान शिव के नाम

संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार भगवान शिव के निम्न नाम हैं

शम्भु
ईश
पशुपति
शिव
महेश्वर
ईशान
शंकर
चन्द्रशेखर
भूतेश
खण्डपरशु
गिरीश
मृत्युञ्जय (मृत्युंजय)
उग्र
कपर्दी
श्रीकण्ठ
सर्वज्ञ
धूर्जटि
नीललोहित
हर
त्र्यम्बक
त्रिपुरान्तक
गंगाधर
वृषध्वज
व्योमकेश
भव
भीम
रुद्र
उमापति

लक्ष्मी के नाम

संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार लक्ष्मी के निम्न नाम हैं:
पद्मा
पद्मालया
कमला
श्री
हरिप्रिया

Sunday, August 30, 2009

भीम नागलोक में

पाँचों पाण्डव - युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव - पितामह भीष्म तथा विदुर की छत्रछाया में बड़े होने लगे। उन पाँचों में भीम सर्वाधिक शक्तिशाली थे। वे दस-बीस बालकों को सहज में ही गिरा देते थे। दुर्योधन वैसे तो पाँचों पाण्डवों ईर्ष्या करता था किन्तु भीम के इस बल को देख कर उससे बहुत अधिक जलता था। वह भीमसेन को किसी प्रकार मार डालने का उपाय सोचने लगा। इसके लिये उसने एक दिन युधिष्ठिर के समक्ष गंगा तट पर स्नान, भोजन तथा क्रीड़ा करने का प्रस्ताव रखा जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

गंगा के तट पर दुर्योधन ने विविध प्रकार के व्यंजन तैयार करवाये। स्नानादि के पश्चात् जब सभी ने भोजन किया तो अवसर पाकर दुर्योधन ने भीम को विषयुक्त भोजन खिला दिया। भोजन के पश्चात् सब बालक वहीं सो गये। भीम को विष के प्रभाव से मूर्छा आ गई। मूर्छित हुये भीम को दुर्योधन ने गंगा में डुबा दिया। मूर्छित अवस्था में ही भीम डूबते-उतराते नागलोक में पहुँच गये। वहाँ पर उन्हें भयंकर विषधर नाग डसने लगे तथा विषधरों के विष के प्रभाव से भीम के शरीर के भीतर का विष नष्ट हो गया और वे सचेतावस्था में आ गये। चेतना लौट आने पर उन्हों ने नागों को मारना आरम्भ कर दिया और एक के पश्चात् एक नाग मरने लगे।

भीम के इस विनाश लीला को देख कर कुछ नाग भागकर अपने राजा वासुकि के पास पहुँचे और उन्हें समस्त घटना से अवगत कराया। नागराज वासुकि अपने मन्त्री आर्यक के साथ भीम के पास आये। आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया और उनका परिचय राजा वासुकि को दिया। वासुकि नाग ने भीम को अपना अतिथि बना लिया। नागलोक में आठ ऐसे कुण्ड थे जिनके जल को पीने से मनुष्य के शरीर में हजारों हाथियों का बल प्राप्त हो जाता था। नागराज वासुकि ने भीम को उपहार में उन आठों कुण्डों का जल पिला दिया। कुण्डो के जल पी लेने के बाद भीम गहन निद्रा में चले गये। आठवें दिन जब उनकी निद्रा टूटी तो उनके शरीर में हजारों हाथियों का बल आ चुका था। भीम के विदा माँगने पर नागराज वासुकी ने उन्हें उनकी वाटिका में पहुँचा दिया।
उधर सो कर उठने के बाद जब पाण्डवों ने भीम को नहीं देखा तो उनकी खोज करने लगे और उनके न मिलने पर राजमहल में लौट गये। भीम के इस प्रकार गायब होने से माता कुन्ती अत्यन्त व्याकुल हुईं। वे विदुर से बोलीं, "हे आर्य! दुर्योधन मेरे पुत्रों से और विशेषतः भीम से अत्यन्त ईर्ष्या करता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने भीम को मृत्युलोक में पहुँचा दिया?" उत्तर में विदुर ने कहा, "हे देवि! आप चिन्तित मत होइये। भीम की जन्मकुण्डली के अनुसार वह दीर्घायु है तथा उसे अल्पायु में कोई भी नहीं मार सकता। वह अवश्य लौट कर आयेगा।" इस प्रकार हजारों हाथियों का बल प्राप्त कर के भीम लौट आये।


पाण्डवों तथा कौरवों का जन्म

एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों - कुन्ती तथा माद्री - के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, "राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।"
इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, "हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़" उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, "नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।" पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।

इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।"
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, "हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?" कुन्ती बोली, "हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।" इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।
इधर युधिष्ठिर के जन्म होने पर धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी के हृदय में भी पुत्रवती होने की लालसा जागी। गान्धारी ने वेदव्यास जी से पुत्रवती होने का वरदान प्राप्त कर लिया। गर्भ धारण के पश्चात् दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जब पुत्र का जन्म नही हुआ तो क्षोभवश गान्धारी ने अपने पेट में मुक्का मार कर अपना गर्भ गिरा दिया। योगबल से वेदव्यास को इस घटना को तत्काल जान लिया। वे गान्धारी के पास आकर बोले, "गान्धारी तूने बहुत गलत किया। मेरा दिया हुआ वर कभी मिथ्या नहीं जाता। अब तुम शीघ्र सौ कुण्ड तैयार कर के उनमें घृत भरवा दो।" गान्धारी ने उनकी आज्ञानुसार सौ कुण्ड बनवा दिये। वेदव्यास ने गान्धारी के गर्भ से निकले मांसपिण्ड पर अभिमन्त्रित जल छिड़का जिसे उस पिण्ड के अँगूठे के पोरुये के बराबर सौ टुकड़े हो गये। वेदव्यास ने उन टुकड़ों को गान्धारी के बनवाये सौ कुण्डों में रखवा दिया और उन कुण्डों को दो वर्ष पश्चात् खोलने का आदेश दे अपने आश्रम चले गये। दो वर्ष बाद सबसे पहले कुण्ड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। दुर्योधन के जन्म के दिन ही कुन्ती का पुत्र भीम का भी जन्म हुआ। दुर्योधन जन्म लेते ही गधे की तरह रेंकने लगा। ज्योतिषियों से इसका लक्षण पूछे जाने पर उन लोगों ने धृतराष्ट्र को बताया, "राजन्! आपका यह पुत्र कुल का नाश करने वाला होगा। इसे त्याग देना ही उचित है। किन्तु पुत्रमोह के कारण धृतराष्ट्र उसका त्याग नहीं कर सके। फिर उन कुण्डों से धृतराष्ट्र के शेष 99 पुत्र एवं दुश्शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ। गान्धारी गर्भ के समय धृतराष्ट्र की सेवा में असमर्थ हो गयी थी अतएव उनकी सेवा के लिये एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का भी युयुत्स नामक एक पुत्र हुआ। युवा होने पर सभी राजकुमारों का विवाह यथायोग्य कन्याओं से कर दिया गया। दुश्शला का विवाह जयद्रथ के साथ हुआ।

आगे की कथा - भीम नागलोक में

Friday, August 28, 2009

कर्ण का जन्म


धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के लालन पालन का भार भीष्म के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े होने पर विद्या पढ़ने भेजे गये। धृतराष्ट्र बल विद्या में, पाण्डु धनुर्विद्या में तथा विदुर धर्म और नीति में निपुण हुये। युवा होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी न बन सके। विदुर दासीपुत्र थे इसलिये पाण्डु को ही हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया। भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी गांधारी से कर दिया। गांधारी को जब ज्ञात हुआ कि उसका पति अन्धा है तो उसने स्वयं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली।

उन्हीं दिनों यदुवंशी राजा शूरसेन की पोषित कन्या कुन्ती जब सयानी हुई तो पिता ने उसे घर आये हुये महात्माओं के सेवा में लगा दिया। पिता के अतिथिगृह में जितने भी साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि आते, कुन्ती उनकी सेवा मन लगा कर किया करती थी। एक बार वहाँ दुर्वासा ऋषि आ पहुँचे। कुन्ती ने उनकी भी मन लगा कर सेवा की। कुन्ती की सेवा से प्रसन्न हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ अतः तुझे एक ऐसा मन्त्र देता हूँ जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट हो कर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा।" इस प्रकार दुर्वासा ऋषि कुन्ती को मन्त्र प्रदान कर के चले गये।

एक दिन कुन्ती ने उस मन्त्र की सत्यता की जाँच करने के लिये एकान्त स्थान पर बैठ कर उस मन्त्र का जाप करते हुये सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव वहा प्रकट हो कर बोले, "देवि! मुझे बताओ कि तुम मुझ से किस वस्तु की अभिलाषा करती हो। मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा।" इस पर कुन्ती ने कहा, "हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने तो केवल मन्त्र की सत्यता परखने के लिये ही उसका जाप किया है।" कुन्ती के इन वचनों को सुन कर सूर्यदेव बोले, "हे कुन्ती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक अत्यन्त पराक्रमी तथा दानशील पुत्र प्रदान करता हूँ।" इतना कह कर सूर्यदेव अन्तर्ध्यान हो गये।
कुन्ती ने लज्जावश यह बात किसी से नहीं कह सकी। समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुण्डल धारण किये हुये एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्ती ने उसे एक मंजूषा में रख कर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि कवच-कुण्डल धारी शिशु पर पड़ी। अधिरथ निःसन्तान था इसलिये उसने बालक को अपने छाती से लगा लिया और घर ले जाकर उसे अपने पुत्र के जैसा पालने लगा। उस बालक के कान अति सुन्दर थे इसलिये उसका नाम कर्ण रखा गया।
कालान्तर में कुन्ती का विवाह पाण्डु के साथ हो गया। मद्र देश के राजा ने भी पाण्डु के पराक्रम से प्रभावित होकर अपनी कन्या माद्री का विवाह पाण्डु के साथ कर दिया।

Thursday, August 27, 2009

धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर का जन्म

सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।

राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।
विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।"

यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, "माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा।" एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।" सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, "माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।" इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।
समय आने पर अम्बा के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

आगे की कथा - कर्ण का जन्म

Wednesday, August 26, 2009

bhisma janm


एक बार हस्तिनापुर के महाराज प्रतीप गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके रूप-सौन्दर्य से मोहित हो कर देवी गंगा उनकी दाहिनी जाँघ पर आकर बैठ गईं। महाराज यह देख कर आश्चर्य में पड़ गये तब गंगा ने कहा, "हे राजन्! मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूँ* और आपसे विवाह करने की अभिलाषा ले कर आपके पास आई हूँ।" इस पर महाराज प्रतीप बोले, "गंगे! तुम मेरी दहिनी जाँघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिये, दाहिनी जाँघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ।" यह सुन कर गंगा वहाँ से चली गईं।
अब महाराज प्रतीप ने पुत्र प्राप्ति के लिये घोर तप करना आरम्भ कर दिया। उनके तप के फलस्वरूप उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने शान्तनु रखा। शान्तनु के युवा होने पर उसे गंगा के साथ विवाह करने का आदेश दे महाराज प्रतीप स्वर्ग चले गये। पिता के आदेश का पालन करने के लिये शान्तनु ने गंगा के पास जाकर उनसे विवाह करने के लिये निवेदन किया। गंगा बोलीं, "राजन्! मैं आपके साथ विवाह तो कर सकती हूँ किन्तु आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।" शान्तनु ने गंगा के कहे अनुसार वचन दे कर उनसे विवाह कर लिया। गंगा के गर्भ से महाराज शान्तनु के आठ पुत्र हुये जिनमें से सात को गंगा ने गंगा नदी में ले जा कर बहा दिया और अपने दिये हुये वचन में बँधे होने के कारण महाराज शान्तनु कुछ बोल न सके। जब गंगा का आठवाँ पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिये ले जाने लगी तो राजा शान्तनु से रहा न गया और वे बोले, "गंगे! तुमने मेरे सात पुत्रों को नदी में बहा दिया किन्तु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मैंने कुछ न कहा। अब तुम मेरे इस आठवें पुत्र को भी बहाने जा रही हो। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके इसे नदी में मत बहाओ।" यह सुन कर गंगा ने कहा, "राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिये अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।" इतना कह कर गंगा अपने पुत्र के साथ अन्तर्ध्यान हो गईं। तत्पश्चात् महाराज शान्तनु ने छत्तीस वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर के व्यतीत कर दिये। फिर एक दिन उन्होंने गंगा के किनारे जा कर गंगा से कहा, "गंगे! आज मेरी इच्छा उस बालक को देखने की हो रही है जिसे तुम अपने साथ ले गई थीं।" गंगा एक सुन्दर स्त्री के रूप में उस बालक के साथ प्रकट हो गईं और बोलीं, "राजन्! यह आपका पुत्र है तथा इसका नाम देवव्रत है, इसे ग्रहण करो। यह पराक्रमी होने के साथ विद्वान भी होगा। अस्त्र विद्या में यह परशुराम के समान होगा।" महाराज शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर दिया। 
एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुये एक सुन्दर कन्या दृष्टिगत हुई। उसके अंग अंग से सुगन्ध निकल रही थी। महाराज ने उस कन्या से पूछा, "हे देवि! तुम कौन हो?" कन्या ने बताया, "महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद कन्या हूँ।" महाराज उसके रूप यौवन पर रीझ कर तत्काल उसके पिता के पास पहुँचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धींवर (निषाद) बोला, "राजन्! मुझे अपनी कन्या का आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।।" निषाद के इन वचनों को सुन कर महाराज शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये।
सत्यवती के वियोग में महाराज शान्तनु व्याकुल रहने लगे। उनका शरीर दुर्बल होने लगा। महाराज की इस दशा को देख कर देवव्रत को बड़ी चिंता हुई। जब उन्हें मन्त्रियों के द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण ज्ञात हुआ तो वे तत्काल समस्त मन्त्रियों के साथ निषाद के घर जा पहुँचे और उन्होंने निषाद से कहा, "हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालान्तर में मेरी कोई सन्तान आपकी पुत्री के सन्तान का अधिकार छीन न पाये इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म अविवाहित रहूँगा।" उनकी इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा, "हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।" इतना कह कर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।
देवव्रत ने अपनी माता सत्यवती को लाकर अपने पिता शान्तनु को सौंप दिया। पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र से कहा, "वत्स! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी प्रतिज्ञा की है जैसी कि न आज तक किसी ने किया है और न भविष्य में करेगा। मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू भीष्म कहलायेगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।"
* गंगा ने स्वयं का परिचय जह्नु ऋषि की पुत्री के रूप में दिया जबकि वे हिमालय-पुत्री थीं। मैं अच्छी प्रकार से जानता हूँ कि विज्ञ पाठक अवश्य यह समझते होंगे कि गंगा ने ऐसा क्यों कहा। किन्तु यह भी हो सकता है कि कुछ विज्ञ पाठको को ज्ञात न हो कि गंगा जह्नु ऋषि की पुत्री कैसे हुईं। अपनी इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिये वे गंगा जन्म की कथा का अवलोकन कर सकते हैं। धन्यवाद।

वेद व्यास का जन्म

आदिपर्व

वेद व्यास का जन्म

प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई।
गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।"
समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।
आगे की कथा - भीष्म प्रतिज्ञा

महाभारत

आदिपर्व

दुष्यंत एवं शकुन्तला की कथा

एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, "हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।" उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, "बालिके! आप कौन हैं?" बालिका ने कहा, "मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।" उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, "महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?" उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, "वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला - ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।"
शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, "शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।" शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, "प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।" इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये।


एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, "बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।" दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।"
महाराज दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, "पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।" इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई। 


महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, "महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।" महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई। 


जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला। 


कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, "हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।" यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये। 


महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
आगे की कथा - वेद व्यास का जन्म

Mahabharat आदिपर्व

पौराणिक कथाओं को पढ़कर यदि ऐसा लगे कि ये सब ऊल-जुलूल बातें हैं तो आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसा लगना स्वाभाविक है। पुराणों के सम्बंध कहा जाता है कि वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ होने के कारण आम आदमियों के द्वारा उन्हें समझना बहुत कठिन था, इसलिये रोचक कथाओं के माध्यम से वेद के ज्ञान की जानकारी देने की प्रथा चली। इन्हीं कथाओं के संकलन को पुराण कहा जाता हैं। पौराणिक कथाओं में ज्ञान, सत्य घटनाओं तथा कल्पना का संमिश्रण होता है। पुराण ज्ञानयुक्त कहानियों का एक विशाल संग्रह होता है। पुराणों को वर्तमान युग में रचित विज्ञान कथाओं (scince fictions) के जैसा ही समझा जा सकता है।


किन्तु देखा जाये तो पौराणिक कथाओं में कल्पना या यह कहें कि कपोल कल्पना आवश्यकता से अधिक है जो कि इन कथाओं को अतिरंजित बना देती हैं। कल्पना का आवश्यकता से अधिक होने का कारण शायद यह हो सकता है कि ये कथाएँ प्राचीन काल से चली आ रही हैं और समय समय पर अनेक लोगों ने इन कथाओं में अपने-अपने हिसाब से परिवर्तन कर दिया है। इन कथाओं की रचना के समय इनका उद्देश्य अवश्य ही कहानी के रूप में सत्य घटनाओं तथा ज्ञान की बातो को बताना रहा होगा किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में केवल मनोरंजन ही इन कथाओं का मुख्य उद्देश्य बन कर रह गया।
इतना सब कुछ होने के बाद भी यदि इन कथाओं का विश्लेषण किया जाये तो कुछ न कुछ जानकारी अवश्य ही प्राप्त हो सकती है। इन कथाओं में अधिकतर बातें प्रतीक रूप में हैं जैसे कि श्रीमद्भागवत् पुराण की कथा में वर्णित हैः


"भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं।"
इतना सब कुछ होने के बाद भी यदि इन कथाओं का विश्लेषण किया जाये तो कुछ न कुछ जानकारी अवश्य ही प्राप्त हो सकती है। इन कथाओं में अधिकतर बातें प्रतीक रूप में हैं जैसे कि श्रीमद्भागवत् पुराण की कथा में वर्णित हैः


"भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं।"
आगे की कथा - महर्षि