Tuesday, May 29, 2012

मैं आँसुओं को उनसे.....


मैं आँसुओं को उनसे चुराता चला गया
बेफ़िक्र मुझको और रुलाता चला गया
बदलेगा मेरा वक़्त भी ऐ दोस्त एक दिन
यह ऐतबार दिल को कराता चला गया
मिटता रहा हवाओं के संग आ के बार-बार
जो अक्स रेत पर मैं बनाता चला गया
हमदर्द उसे जब से हमने बना लिया
वह दर्द मेरे नाम लिखाता चला गया............

Monday, April 9, 2012

tere dast-e-sitam........

tere dast-e-sitam kaa ajz nahii.n
dil hii kaafir thaa jis ne aah na kii.........

Tuesday, March 13, 2012

मत करना अफ़सोस मेरा


रोली और चन्दन

माथे पर
रचकर करना अभिषेक मेरा
मैं जाऊं
जग ये छोड़ कभी
तो मत करना अफ़सोस मेरा ।

गंगा जल से तुम
नहला कर
करना पावन ये शरीर मेरा
मैं जाऊं
जग ये छोड़ कभी
तो मत करना अफ़सोस मेरा ।

माथे पर
भू की धूल लगा
कर देना तुम श्रंगार मेरा
आ जाये
मेरी याद कभी
तो मत करना अफ़सोस मेरा ।

श्रध्दा के फूल
चढा देना
ना करना तुम
विश्वास मेरा
हों सकता है मैं
ना लौटूं
तो मत करना अफ़सोस मेरा ।

जाने वालो पर
चला नही
क्या ज़ोर तेरा ? क्या ज़ोर मेरा ?
मैं जाऊं
जब सब छोड़ कभी
तो मत करना अफ़सोस मेरा ।

कागज़ के पृष्ठों पर
ये अक्षर
कर जाएँ जब नाम मेरा
तुम भी
प्यारी कविता रचकर
पूरा करना ये काम मेरा ।

आंखों का काजल
गालों पर लाकर
अपमानित मत करना
कोई चोट लगाए
मन को कभी
तो हंसकर दुःख
कम कर लेना ।

ये मर्म सुरों का
समझ ना पाया
जीते जी संसार तेरा
सुर तेरे
जब दोहराये सभी
तो मत करना अफ़सोस मेरा ।

जिन गीतों में थे
प्राण बसें
उनसे अब मेरा क्या नाता ?
कोई गीत मेरा
याद आये कभी
तो मत करना अफ़सोस मेरा ।

किसलिये


अर्थ की
किस चाह से
संवेदना 
की भीड़ में
खुद को
ढून्ढ्ता हूँ मैं
किसलिये - किसलिये ?

जीर्ण - शीर्ण 
राह पर
तिमिर से
खुद घिरा हुआ
प्रकाश 
खोजता हूँ मैं
किसलिये - किसलिये ?


धर्म के
इतिहास पर
असत्य के
हर मंच पर
सत्य 
बोलता हूँ मैं
किसलिये - किसलिये ?

देश के
उत्थान में 
पतन की
हर एक राह को
नित्य 
त्यागता हूँ मैं
किसलिये - किसलिये ?


दर्द की
अभिव्यक्ति को
कलम से
मै निकालता 
और
पंक्तियों में डालता हूँ
किसलिये - किसलिये ?

अश्रुओं की धार में
क्यों कंटकों की सेज पर ?
स्नेह 
ढून्ढ्ता हूँ मै
किसलिये - किसलिये ?

स्वार्थ के 
किस लोभ से ?
किस 
व्यथा की टीस से ?
तुझको 
पूजता हूँ मै 
किसलिये - किसलिये ?

दुःख - दर्द
अपना भूलकर
सुख को
सहेली मानकर
मैं चैन तेरा 
खोजता हूँ 
किसलिये - किसलिये ?

Wednesday, March 7, 2012

तुम्हारा अविश्वसनीय प्रेम


अग्नि के सात फेरे

और
चुटकी भर सिन्दूर
दूर कर देगा
मुझे
तुम्हारे पास से
लेकिन !
क्या वे अनगिनत फेरे
जो
भावनाओ की दहलीज़ पर
हमने
साथ साथ लगाए
वे सब
शून्य हों जायेंगे ।

एक अजनबी के
तन का स्पर्श
और
मात्र रिवाजो की झूठी डोर
तुम्हे मेरे
मन के असंख्य स्पर्शो
और
जन्मों के बन्धन से
दूर ले जायेगी
लेकिन !
क्या नियति के आगे
घुटने टेक देगा
मेरा विश्वास ?
जो मुझे तुमसे मिल था ।

किसी का झूठा विश्वास
पाने की खातिर
झुठला दी जाएँगी
वे सभी
संकल्पित सौगंधे
टूट जाएगा विश्वास
और छिन्न - भिन्न हों जायेगी
मेरी तुमसे
सारी अभिन्नातायें
सिर्फ
मान्यताओं को निभाने की खातिर ।

जीत होगी भाग्य की
और
मेरा निश्चय हार जाएगा
टूट जाएगा भ्रम मेरा
मेरा विश्वास डोल जाएगा

स्वप्न बौने हों जायेंगे 
वास्तविकता के धरातल पर
रह जायेगी 
तो सिर्फ प्रतीक्षा 
तुम्हारे वापस आने की । 

मंगलसूत्र के चांद मोती
खंडित कर देंगे 
हमारे प्रेम सूत्र को
सुहाग रात की सेज रौंद डालेगी
हमारे बीच के विश्वास को
मंडप की वेदी
हिला देगी
प्रेम का निश्चय स्तम्भ
मगर फिर भी
महकता रहेगा मेरे अन्तस में
तुम्हारा अविश्वसनीय प्रेम ।

पीड़ा


मेरे

व्यथित ह्रदय में
सागर की
उच्च हिलोरें 
करुणा
लेती अंगडाई
पहुंची 

नयनों से मिलने । 

दिन बैरी 
मधुर मिलन का 
रात आयी
ले स्वप्न सलोने
मिलकर
अतीत की यादे 
पहुंची 
नयनों में बसने ।

नयनों की 
स्वीकृति पाकर
स्मृति ने
किया बसेरा
भर आयीं
निष्ठुर आंखें
पल भर में

जाने कैसे ?

आंखों का
खारा पनि
आता
पलकों से लड़कर
चुम्बन 
करता गालो पर
गिरता 
बंकर दो झरने ।

होंठों पर
आयी पीड़ा 
पी जाती
मर्म कहानी

अंतस की
प्यास बुझाकर 
मुंद जाती
प्यासी आंखें ।


आंखों की
सारी पीड़ा 

बह जाती 
बनकर पानी 
रह जति
सूनी आंखें 
मरुस्थल की
एक कहानी । 

मैं जागा 
जब निद्रा से
सूखी थी
मेरी आंखें 
थी अलसाई - सी
पलकें,

विस्मृत 
थी सारी बातें ।

था खड़ा 
दिवस दिनकर संग
फैलाये 
अपनी बाहें 
अभिनन्दन 
करती किरणें 
बैठी थी
बनकर राहें 

Saturday, February 18, 2012

...वो खुदा हो जायेगा


हम मुहब्बत के पुजारी हैं मुहब्बत की कसम।
जिसको भी सजदा करेंगे वो खुदा हो जाएगा॥
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भेलनी के बेर जूठे थे ये कैसे देखते।
राम तो हैरत में थे जंगल में इतना प्यार है॥
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निभाना खून के रिश्ते बहुत आसान नहीं होता।
गुजर जाती है सारी जिंदगी खुद से लड़ाई में॥
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बहला रही है भूख को पानी उबाल कर।
वो मां है दिखा देगी बच्चों को पाल कर॥
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कैसे करवट वक्त ने बदली है लोगों देखिए।
दर दर फिरते थे जो वो आज रहबर हो गए॥
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बनाओ शहर में कुछ खुशनुमा इमारतें भी।
मगर बुजुर्गो की कुछ यादगार रहने दो॥
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ये झूठों का जमाना है, कोई सच बात मत कहना।
चुनांचे रात बेशक हो मगर तुम रात मत कहना॥
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गरदो गुबार, शोर, धुंआ और भीड़-भाड़।
मैं रह रहा हूं ऐसे बवालों के शहर में॥
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कितनी दीवारें उठी हैं एक घर केदरमियां।
घर कहीं गुम हो गया, दीवारों दर के दरमियां॥
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मोहब्बत जिंदगी केफैसलों से लड़ नहीं सकती।
किसी को खोना पड़ता है किसी का होना पड़ता है॥
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घुटने लगता है दम सियासत का । जब फिजा खुशगवार होती है॥
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होठों पे तबस्सुम की दुकानें तो सजी हैं, चेहरे पे मगर रौनके बाजार नहीं है॥
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मैं तो इक इंकलाब हूं यारो, वक्त लगता है मुझको आने में॥
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कौन जी पाया है इन्दु यहां अपनी तरह, जिंदगी अस्ल में बस एक अदाकारी है॥

संकलन-प्रस्तु‌ति- इंदू भूषण पाण्डेय
संपर्क- 9415434249