तितली के पंखों की तरह उजाड क़र
किताब के पन्नों में दबा दिए जाएँ
और सोचने को रह जाय
एक लम्बी घुटन और हताशा के पश्चात पाये हुए
उन चंद सपनों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता
लगातार बदरंग होता चला जाता हुआ
अपना वर्त्तमान
तो क्या शेष रह जाता है?
तो क्या शेष रह जाता है
सिवाय इसके
कि एक बार फिर से
अंधेरे और यातना के
उसी लम्बे सफ़र पर
निकल पड़ा जाय
अपनी जिन्दगी की किताब
खुद और सिर्फ खुद के
हवाले कर ली जाय
जो रोशनी और रंग
अंधेरे के उस सफ़र में मिलें
उनसे कुछ बाकी बचे पन्ने
शौक से रंगे जायँ
और इस तरह
अवशिष्ट जो है
अर्थहीन होने से
बचा लिया जाय।
क्योंकि अबतक के जिए हुए
इस छोटे से जीवन में
बार बार के पलायन के बावजूद
लौटना हुआ है
और हर बार यही लगा है
कि जीवन ही सच है
और इसकी सार्थकता
जरूरी ...
मेरे जीवन को अर्थ देते
उसकी सम्पूर्णता का आश्वासन भरते
मेरे ये थोड़े से सपने ही तो हैं
मेरी मुटिठयों में बाँधे हुए
जो इन
इतना दम आ गया है
कि मैं टकरा जाती हूँ
हर मुसीबत से ,
जीत जाती हूँ
हर बार...