Thursday, October 8, 2009

शमाएँ जल रही क्यों

शमाएँ जल रही क्यों महफ़िल जहाँ नहीं हो
रहना है क्या चमन में खुशबू जहाँ नहीं हो ||

क्या जलजले यहाँ के पर्वत के पैर उखड़े
प्यारी है जिन्दगी जो इतिहास बन गई ||

लगता है मौत जाकर हंसते हुए रुलाकर
मस्ती यहाँ की पीकर बेहोश हो गई हो ||

मिटते भी है अनेको सैलाब आते देखो
बेकार बूंद है जो दरिया न बन बही हो ||

अपना ही घर जलाते दुनिया में नाम करते
शैतान ढूंढ़ते है इंसानियत कही हो ||

जिसके लिए जिए थे उसके लिए जियेंगे
सब मिलकर हम मरेंगे अरमान भी यही हो ||

स्व. श्री तन सिंह जी

Wednesday, October 7, 2009

चमका भी था गगन में

चमका भी था गगन में ,
खोया हुआ है गम में ,
तक़दीर का सितारा ||
तलवार के सहारे - चलते कदम हमारे |
खेली थी खानवा के चंडी सी वो समर में
पानी जो धार का था, कर गया किनारा ||
तक़दीर का सितारा || १ ||
मस्ती सदा लुटाई - आफत की धडकनों में ,
सुधरा जो त्याग से था - कष्टों के पालनो में |
इतिहास को सजा कर, हाथों से ही बिगाडा ||
तक़दीर का सितारा || २ ||
धरती बनी सुहागन - आश्रय था मेरे बल का ,
लुट गया है सिंदूर गैरों से मेरे घर का |
कमियां तो मेरी थी पर, मेरा चमन उजाडा ||
तक़दीर का सितारा || ३ ||
उजडे हुए चमन को - मिल के हम बसाये ,
मुझको माफ़ करदो - अक्षम्य है गुनाहे |
खाली है मेरी झोली , तू आखिरी सहारा ||
तक़दीर का सितारा || ४ ||
आँखे है खुश्क अब तो - आंसू नहीं है आता ,
बे आबरू पड़े है - जीना नहीं सुहाता |
ठहरे कभी तो होगा - मरने का इशारा ||
तक़दीर का सितारा || ५||
स्व. श्री तन सिंह जी

Tuesday, October 6, 2009

अब उठ मेरे मनवा

अब उठ मेरे मनवा तुम्हे उठना ही पड़ेगा |
सीना फूला तूफान से भिड़ना ही पड़ेगा ||

जिनके थे भरोसे क्या वे पहुँच सकेंगे ?
जो न पहुँच सके वे क्या इतिहास लिखेंगे ?
अब तो अकेले , अम्बर को झुकाना पड़ेगा ||

जो मौत से खेले थे है याद कहानी |
इस कौम की याद है अलबेली जवानी |
उन बलिदानों का , ब्याज चुकाना ही पड़ेगा ||

जो अब तक सोते है उनको भी उठाना |
तक़दीर पे पुरुषार्थ का डंका बजाना |
इंसान झुके , भगवान् को रुकना ही पड़ेगा ||

गम खाकर कब तक तुम संतोष करोगे ?
क्षत्रिय होकर भी आफत से डरोगे ?
सच के लिए, देवों से भी अड़ना ही पड़ेगा ||
स्व. तन सिंह जी

Sunday, October 4, 2009

भारत की हृदय स्थली मध्य प्रदेश

जैसा कि नाम में निहित है, मध्यप्रदेश भारत के ठीक मध्य में स्थित है अधिकतर पठारी हिस्से में बसे मध्यप्रदेश में विन्ध्या और सतपुडा की पर्वत श्रृखंलाएं इस प्रदेश को रमणीय बनाती हैं ये पर्वत श्रृखंलाएं हैं कई नदियों के उद्गम स्थलों को जन्म देती हैं, ताप्ती, नर्मदा, चम्बल, सोन, बेतवा, महानदी जो यहां से निकल भारत के कई प्रदेशों में बहती हैं इस वैविध्यपूर्ण प्राकृतिक देन की वजह से मध्यप्रदेश एक बेहद खूबसूरत हर्राभरा हिस्सा बन कर उभरता है जैसे एक हरे पत्ते पर ओस की बूंदों सी झीलें, एक दूसरे को काटकर गुजरती पत्ती की शिराओं सी नदियां। इतना ही विहंगम है मध्य प्रदेश जहां, पर्यटन की अपार संभावनायें हैं हालांकि 1956 में मध्यप्रदेश भारत के मानचित्र पर एक राज्य बनकर उभरा था, किन्तु यहां की संस्कृति प्राचीन और ऐतिहासिक है असंख्य ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें विशेषत: उत्कृष्ट शिल्प और मूर्तिकला से सजे मंदिर, स्तूप, और स्थापत्य के अनूठे उदाहरण यहां के महल और किले हमें यहां उत्पन्न हुए महान राजाओं और उनके वैभवशाली काल तथा महान योध्दाओं, शिल्पकारों , कवियों, संगीतज्ञों के सार्थसाथ हिन्दु, मुस्लिम, जैन और बौध्द धर्म के साधकों की याद दिलाते हैं भारत के अमर कवि, नाटककार कालिदास और प्रसिध्द संगीतकार तानसेन ने इस उर्वर धरा पर जन्म ले इसका गौरव बढाया है
मध्यप्रदेश का एक तिहाई हिस्सा वन संपदा के रूप में संरक्षित है। जहां पर्यटक वन्यजीवन को पास से जानने का अदभुत अनुभव प्राप्त कर सकते हैं कान्हा नेशनल पार्क , बांधवगढ, शिवपुरी आदि ऐसे स्थान हैं जहां आप बाघ, जंगली भैंसे, हिरणों, बारहसिंघों को स्वछंद विचरते देख पाने का दुर्लभ अवसर प्राप्त कर सकते हैं
मध्यप्रदेश के हर इलाके की अपनी संस्कृति है और अपनी धार्मिक परम्पराएं हैं जो उनके उत्सवों और मेलों में अपना रंग भरती हैं खजुराहो का वार्षिक नृत्यउत्सव पर्यटकों को बहुत लुभाता है और ओरछा और पचमढी क़े उत्सव वहा/ कि समृध्द लोक और आदिवासी संस्कृति को सजीव बनाते हैं मध्यप्रदेश की व्यापकता और विविधता को खयाल में रख हम इसे पर्यटन की सुविधानुसार पाच भागों में बाट सकते र्हैं :

2.    मंदिरों की शिल्प यात्रा
3.    प्राकृतिक छटा
4.    मध्यप्रदेश का मध्य
1 - जादुई त्रिकोण: ग्वालियर, शिवपुरी, ओरछा एक त्रिकोण के स्पष्ट तीन बिंदुओं की तरह स्थित हैं इनकी ऐतिहासिक संस्कृति भी एक त्रिवेणी सी है
ग्वालियर: यह शहर सदियों से राजपूतों की प्राचीन राजधानी रहा है, चाहे वे प्रतिहार रहे हों या कछवाहा या तोमर इस शहर में इनके द्वारा छोडे ग़ये प्राचीन चिन्ह स्मारकों, किलों, महलों के रूप में मिल जाएंगे सहेज कर रखे गए अतीत के भव्य स्मृति चिन्हों ने इस शहर को पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाता है ग्वालियर शहर के इस नाम के पीछे भी एक इतिहास छिपा है; आठवीं शताब्दि में एक राजा हुए सूरजसेन, एकबार वे एक अज्ञात बीमारी से ग्रस्त हो मृत्युशैया पर थे, तब ग्वालिपा नामक संत ने उन्हें ठीक कर जीवनदान दिया बस उन्हीं के सम्मान में इस शहर की नींव पडी अोर इसे नाम दिया ग्वालियर

आने वाली शताब्दियों के साथ यह शहर बडे-बडे राजवंशो की राजस्थली बना हर सदी के साथ इस शहर के इतिहास को नये आयाम मिले महान योध्दाओं, राजाओं, कवियों संगीतकारों तथा सन्तों ने इस राजधानी को देशव्यापी पहचान देने में अपना-अपना योगदान दिया आज ग्वालियर एक आधुनिक शहर है और एक जाना-माना औद्योगिक केन्द्र है
पर्यटकों की रूचि के स्थान :
किला: सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है एक उ/चे पठार पर बने इस किले तक पहुचने के लिये एक बेहद ऊची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है इस सडक़ के आर्सपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तिया बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी ग़ई हैं किले की पैंतीस फीट उचाई इस किले के अविजित होने
की गवाह है इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजा मानसिंह और गूजरी रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तिया रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं ये दुर्लभ मूर्तिया ग्वालियर के आर्सपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं
मानमंदिर महल
  
1486 से 1517 के बीच राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छनिी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। इस किले के विशाल कक्षों में अतीत आज भी स्पंदित है। यहां जालीदार दीवारों से बना संगीत कक्ष है, जिनके पीछे बने जनाना कक्षों में राज परिवार की स्त्रियां संगीत सभाओं का आनंद लेतीं और संगीत सीखतीं थीं। इस महल के तहखानों में एक कैदखाना है, इतिहास कहता है कि ओरंगज़ेब ने यहां अपने भाई मुराद को कैद रखवाया था और बाद में उसे समाप्त करवा दिया। जौहर कुण्ड भी यहां स्थित है। इसके अतिरिक्त किले में इस शहर के प्रथम शासक के नाम से एक कुण्ड है ' सूरज कुण्ड  । नवीं शती में प्रतिहार वंश द्वारा निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का  तेली का मन्दिर  है, जो कि 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड संगम है। भगवान विष्णु का ही एक और मन्दिर है  सास-बहू का मन्दिर। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू  गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था। 

जयविलास महल और संग्रहालय: यह सिन्धिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के 35 कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द  दरबार हॉल  इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिध्द चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहां हैं।
तानसेन स्मारक : हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है।
रानी लक्ष्मीबाई स्मारक: यह स्मारक शहर के पडाव क्षैत्र में है कहते हैं यहां झासी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना ने अंग्रेजों से लडते हुए पडाव डाला और यहां के तत्कालीन शासक से सहायता मागी किन्तु सदैव से मुगलों और अंग्रेजों के प्रभुत्व में रहे यहां के शासक उनकी मदद न कर सके और वे यहां वीरगति को प्राप्त हुईं। यहां के राजवंश का गौरव तब संदेहास्पद हो गया इसी प्रकार यहां तात्या टोपे का भी स्मारक है
विवस्वान सूर्य मन्दिर: यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है 

शिवपुरी: ग्वालियर से 112 कि मि दूर स्थित शिवपुरी सिन्धिया राजवंश की ग्रीय्मकालीन राजधानी हुआ करता था।यहां के घने जंगल मुगल शासकों के शिकारगाह हुआ करते थे। यहां सिन्धिया राज की संगमरमर की छतरियां और ज्योर्ज कासल, माधव विलास महल देखने योग्य हैं। शासकों के शिकारगाह होने की वजह से यहां बाघों का बडे पैमाने पर शिकार हुआ। अब यहां की वन सम्पदा को संरक्षित कर  माधव नेशनल पार्क  का स्वरूप दिया गया है।
माधव राव सिन्धिया की छतरी शिवपुरी
ओरछा: यह शहर मध्यकालीन इतिहास का गवाह है। यहां के पत्थरों में कैद है अतीत बुंदेल राजवंश का।
चतुरभुज मन्दिर
ओरछा की नींव सोलहवीं शताब्दी में बुन्देल राजपूत राजा रुद्रप्रताप द्वारा रखी गई बेतवा जैसी निरन्तर प्रवाहिनी नदी बेतवा और इसके किनारे फैली उर्वर धरा किसी भी राज्य की राजधानी के लिये आदर्श होतीस्थापत्य का मुख्य विकास राजा बीर सिंह जी देव के काल में हुआ, इन्होंने मुगल बादशाह जहांगीर की स्तुति में जहांगीर महल बनवाया जो कि खूबसूरत छतरियों से घिरा हैइसके अतिरिक्त राय प्रवीन महल तथा रामराजा महल का स्थापत्य देखने योग्य है और यहां की भीतरी दीवारों पर चित्रकला की बुन्देली शैली के चित्र मिलते हैंराज महल और लक्ष्मीनारायण मन्दिर और चतुरभुज मन्दिर की सज्जा भी बडी क़लात्मक हैओरछा एक देखने योग्य स्थान है और ग्वालियर से 119 कि मि की दूरी पर है
ग्वालियर, शिवपुरी और ओरछा के इस दर्शनीय त्रिकोण से जुडे क़ुछ और दर्शनीय बिन्दु र्हैंचन्देरी और दतिया


बीर सिंह जी देव का महल
दतिया दिल्ली मद्रास मार्ग पर स्थित है दतिया का महत्व महाभारत काल से जुडा है राजा बीर सिंह जी देव द्वारा विकसित इस क्षैत्र में उनके बनवाए कुछ ऐतिहासिक महल और मन्दिर हैं

चन्देरी की स्थापना और विकास मालवा के सुल्तानों और बुन्देला राजपूतों द्वारा हुआ चन्देरी पहाडों, झीलों से घिरा एक सुन्दर स्थान है
 
यहां के देखने योग्य स्थान र्हैं कोषाक महल, बादल महल गेट, जामा मस्ज्दि, शहजादी का रोजा, परमेश्वर ताल आदि वैसे चन्देरी का महत्व एक प्रमुख शिल्प कला केन्द्र के रूप में अधिक है, यहां की चन्देरी साडी र ब्रोकेड विश्वभर में प्रसिध्द है

करूणामय रामकृष्ण


1871-1872 की बात है।  श्री रामकृष्णदेव ने दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में ईश्वर प्राप्ति के लिये अति कठिन और विविध साधना में सिध्दि प्राप्त करने के पश्चात अपने भक्त मथुरनाथ बिस्वास के साथ वे वृंदावन वाराणसी और काशी विश्वेश्वर के लिये रेल यात्रा पर निकले।

इस यात्रा के दौरान श्री रामकृष्णदेव और उनके साथी बिहार के एक ग्राम बर्धमान के पास रूके। ब्रिटिश राज की नीतियों और मौसम की लहर के कारण उन दिनों पूरा बिहार अकाल की चपेट में था। अन्न और जल दोनों की खासी कमी थी। गरीब जनता अतिशय दुख और कष्ट से बेहाल थी।

इस माहौल में भूख और त्रासदी से ग्रस्त लोगों के एक समूह को देखकर ये स्वस्थ और सुखी यात्री अपने आप को बेचैन महसूस करने लगे करूणामय श्री रामकृष्ण इस अस्वस्थता को बरदाश्त नहीं कर सकेवे अपने धनिक साथी माथुरबाबू से बोले ''देखो क्या त्रासदी आई हैदेखो इस भारत मां की सन्तान कैसे दीन और हीन भाव से त्रस्त हैभूख से उनका पेट और पीठ एक होते जा रहा हैआंखे निस्तेज और चेहरा मलिन हो गया हैबाल अस्तव्यस्त और सूखे जा रहे हैंओ मथुर आप इन सब दरिद्र नारायण को अच्छी तरह नहाने का पानी बालों में डालने तेल और भरपेट भोजन की व्यवस्था करोतभी मैं यहॉ से आगे बढूंगामानव ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार हैइन्हे इस तरहा तडपता मैं देख नहीं सकता
मथुरबाबु बडी भारी उलझन में घिर गयेना तो उनके पास इतनी रकम थी ना ही अनाज और अन्य सामग्रीइतने सारे गरीबों को खाना खिलाना और अन्य चीजें देना एकदम सहज नहीं थाइससे उनकी आगे की यात्रा पर भी प्रतिकूल असर होनेवाला थासो उन्होने श्री रामकृष्णदेव से कहा
''बाबा यहां अकाल पडा है। सब तरफ यही हालात है। किसे किसे खाना दोंगे।हमारे पास न तो अनाज है न ही कंबल। हम नियोजन कर के भ्विष्य में यह सत्कार्य करेंगे। फिलहाल हम अपनी आगे की यात्रा पर ध्यान दें।''  लेकिन नहीं। करूणामय श्री रामकृष्ण तो साक्षात नारायण को ही उन नरदेह में देख रहे थे। वे आगे कैसे बढते। बस झटसे उन गरीब लोगो के समूह में शामिल हो गये। उनके साथ जमकर बैठ गये और बोले ''जब तक इन नर नारायणों की सेवा नहीं करोगे तब तक मैं यहां से हिलूंगा  नहीं।
श्री रामकृष्णदेव के मुखपर असीम करूणा का तेज उभर आया मानो करूणाने साक्षात नरदेह धारण कर लिया होउनकी वाणी मृदु नयन अश्रुपूर्ण
और हृदय विशाल हो गया थाउन गरिबो में और अपने आप में अब उन्हें कोई भेद जान नहीं पडता थाअद्वैत वेदान्त की उच्चतम अवस्था में वे सर्वभूतो से एकरूप हो गये थे
अब मथुरबाबू के पास उस महापुरूष की आज्ञा का पालन करने सिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं बचा थावे तत्काल कलकत्ता गये धन और राशन की व्यवस्था की और करूणामय श्री रामकृष्णदेव की इच्छानुसार उन गरीबों की सेवा करने के पश्चात ही उन्होने दम लियाइस असीम प्रेम से उन गरीबों के चेहरोंपर मुस्कान की एक लहर दौड ग़यीतब एक नन्हे बालक के भांति खुश होकर श्री रामकृष्णदेव आगे की यात्रा के लिये रवाना हुए

Thursday, October 1, 2009

सूक्ष्म एवं स्थूल जगत


अकसर देखा जाता है कि धर्म एवं ईश्वर के विषय में गिने चुने व्यक्तियों को छोडक़र बाकी सभी मनुष्य अंधविश्वास से ग्रस्त होते हैं प्रस्तुत लेख में अत्यंत संक्षिप्त सरल एवं क्रमध्द तरीके से धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया है
1- ब्रह्मांड
2-
स्थूल जगत
3-
सूक्ष्म जगत
4-
ज्ञान
5-
मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना
6- मनुष्य पर सूक्ष्म जगत का प्रभाव
7-
विज्ञान एवं आध्यात्म में अन्तर
8-
सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने का तरीका
9-
ध्यान
10-
निष्काम एवं सकाम साधनाएं

ब्रह्मांड
हमारे ब्रह्मांड का मुख्य घटक द्रव्य है, इसे हम दो भागों में बांट सकते हैं, 1 सूक्ष्म 2 स्थूल द्रव्य सूक्ष्म रूप में रहता है, जबकि पृथ्वी सहित अन्य ग्रहों एवं उपग्रहों पर सारा द्रव्य स्थूल रूप में रहता है
हमारा सारा ब्रह्मांड गतिशील एवं परिवर्तनशील है हम देखते हैं कि यहां प्रत्येक जीव एवं वनस्पति का जन्म होता है एवं उसका जीवन काल पूरा होने पर मृत्यु होती है, इसी प्रकार निर्जीव पदार्थ बनते एवं नष्ट होते रहते हैं, परंतु वास्तविकता यह नहीं है यहां न किसी का जन्म होता है न किसी की मृत्यु होती है यहां सिर्फ द्रव्य का रूप परिवर्तन होता हैइसी को हम जन्म मृत्यु का नाम दे देते हैं, इसलिए इस संसार को मायावी जगत या नश्वर जगत भी कहते हैंयह द्रव्य ईश्वर से लेकर स्थूल पदार्थों तक अपना रूप परिवर्तन करने में सक्षम होता है, सूक्ष्म द्रव्य जैसे प्रकाश तरंग शब्द विचार मन आदि स्थूल पदार्थ जैसे सजीव निर्जीव ग्रह उपग्रह आदि, सब इसी द्रव्य से उत्पन्न होते हैं एवं इसी द्रव्य में लीन होते हैंस्वयं ब्रह्मांड भी इससे अछूता नहीं है इसका भी जन्म एवं मृत्यु होती है हमारा सूर्य अपने अंतिम समय में फैलने लगता है एवं अपने सभी ग्रहों को भस्म कर अपने में लीन कर लेता है इसके बाद इसका ठंडा होना एवं सिकुडना शुरू होता है अंत में यह ब्लेक होल एक कृष्ण विवर में बदल जाता है जिसमें कि असीमित गुरूत्वाकर्षण होता है इतना कि यहां से कोई तरंग या प्रकाश भी परावर्तित नहीं हो सकता अत: इन्हें किसी प्रकार देखा नहीं जा सकता वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड में इनकी उपस्थिति का पता लगा लिया है, इसी प्रकार जब ब्रह्मांड के सभी सूर्य एवं तारे कृष्ण विवर में परिवर्तित हो जाते हैं तब ये अपने असीमित गुरूत्वाकर्षण के कारण एक दूसरे में समा जाते हैं एवं एक पिंड का रूप ले लेते हैं इस पिंड में ब्रह्मांड का सारा द्रव्य ईश्वर रूप में होता हैइतने अधिक दबाव पर द्रव्य परमाणु या अन्य किसी रूप में नहीं रह सकता इसी को जगत का ईश्वर में लीन होना कहते हैंजब इस पिंड का संपीडन अपने चरम बिंदु पर पहुंचता है तब इसमें महाविस्फोट होता है इस महा विस्फोट के कारण ब्रह्मांड असंख्य वर्षों तक फैलता रहता है
स्थूल जगत
स्थूल जगत का सबसे सूक्ष्मतम रूप परमाणु होता है, इस पृथ्वी में इनकी मात्रा सीमित है न तो इन्हें पैदा किया जा सकता है न ही इन्हें नष्ट किया जा सकता है, अब तक पृथ्वी पर 105 विभिन्न गुण धर्म वाले परमाणु खोजे गए हैं इनका गुण धर्म इनके भीतर स्थित प्रोटान न्यूट्रान एवं इलेक्ट्रान की संख्या के ऊपर निर्भर करता है, इनकी संरचना हमारे सौर जगत के समान होती है, जिस प्रकार सूर्य के चारों ओर ग्रह निश्चित दूरी पर रहकर अपनी कक्षा में घूमते हुए सूर्य का चक्कर लगाते रहते हैं ठीक उसी प्रकार परमाणु के भीतर नाभिकीय केन्द्र के चारों ओर इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में घूमते हुए नाभिक का चक्कर लगाते रहते हैं
विज्ञान की भाषा में इन्हें तत्व कहते हैं, जैसे हाइड्रोजन, आक्सीजन, लोहा, सोना, तांबा, पारा आदि हाइड्रोजन परमाणु में एक प्रोटान एक न्यूट्रान एवं एक इलेक्ट्रान होता है इसी प्रकार आक्सीजन परमाणु में प्रत्येक की संख्या 8, लोहा में 26, एवं सोना में 79 होती है यदि लोहा में इनकी संख्या 79 हो जाय तो यह लोहा न रहकर सोना बन जायगा परंतु ऐसा करना अभी विज्ञान के लिए संभव नहीं हैपृथ्वी पर हम जो भी सजीव एवं निर्जीव वस्तुऐं देखते हैं ये सब इन्हीं परमाणुओं के मेल से बनती हैं हमारा शरीर भी इन्हीं परमाणुओं के मेल से बनता है, वायु, जल, जीव, वनस्पति एवं पूरी पृथ्वी सभी कुछ इन परमाणुओं के मेल से ही बना होता हैपृथ्वी पर चाहे जितने जीव एवं वनस्पति पैदा होकर वृध्दि करते रहें, इससे पृथ्वी के भार में कोई फर्क नहीं पडता क्योंकि ये सारे जीव एवं वनस्पति सारा द्रव्य पृथ्वी से ही प्राप्त करते हैंसारे जीव एवं वनस्पति अपने जीवन काल में आवश्यक आहार भोजन जल एवं वायु भी पृथ्वी से ही प्राप्त करते हैं मनुष्य को सुख एवं वैभव के साधन भी प्रथ्वी से ही प्राप्त होते हैं सिर्फ जीवनी शक्ति हमें सूर्य से प्राप्त होती है एवं जीव की मृत्यु के बाद सब पृथ्वी में ही मिल जाते हैं इसलिए धर्म ग्रन्थों में पृथ्वी को माता एवं सूर्य को पिता का दर्जा दिया गया हैस्थूल जगत के सभी तत्वों की तीन अवस्थाएं होतीं हैं, 1 ठोस 2 द्रव 3 वायु रूपस्थूल जगत में द्रव्य के ठोस द्रव एवं वायु रूप में प्रत्येक अवस्था के निम्नतम एवं उच्चतम स्तर होते हैं जैसे हम लोहे को गर्म करते हैं तब यह मुलायम होता जाता है एवं अंत में द्रव रूप में बदल जाता है और अधिक गर्म करने पर पतला होकर वायु रूप में बदल जाता है हम एक समय में द्रव्य की एक ही अवस्था को देख सकते हैं अर्थात जब लोहा ठोस रूप में रहता है तब इसके द्रव एवं वायु रूप को नहीं देख सकते एवं जब वायु रूप में होता है तब ठोस एवं द्रव रूप को नहीं देखा जा सकताहमारे नेत्र स्थूल जगत के लगभग चालीस प्रतिशत भाग को ही देख पाते हैं अतः परमाणुओं को हम खाली आखों से नहीं देख सकते परंतु शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से इन्हें देखा जा सकता है

सूक्ष्म जगत
सूक्ष्म जगत को समझने से पहिले ईश्वर तत्व को समझ लें जिस प्रकार स्थूल जगत का सूक्ष्मतम रूप परमाणु होता है उसी प्रकार सूक्ष्म जगत का सूक्ष्मतम रूप ईश्वर होता है अर्थात ईश्वर सारे
ब्रह्मांड का सूक्ष्मतम रूप होता हैधर्म ग्रन्थों में लिखा है कि ईश्वर एक है उसके रूप अनेक हैं, यहां एक का मतलब संख्या से नहीं है इसका मतलब है कि ईश्वर गुण धर्म का एक ही तत्व है इसे हम स्थूल तत्व आक्सीजन से समझ सकते हैं, पृथ्वी पर आक्सीजन के गुणधर्म वाला एक ही तत्व है इसका मतलब यह नहीं कि पृथ्वी पर आक्सीजन का एक ही परमाणु है आक्सीजन तो सारे वायुमंडल में व्याप्त है, इसके बिना कोई प्राणी दस मिनट भी जीवित नहीं रह सकता इसी प्रकार ईश्वर सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है इसके बिना कुछ भी सम्भव नहीं इसलिए कहा जाता है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता आक्सीजन एवं हाइड्रोजन के संयोग से जल बनता है जल को देखकर हम यह नहीं कह सकते कि इसमें आक्सीजन या हाइड्रोजन नहीं है इसी प्रकार सारे ब्रह्यांड में जो भी द्रव्य जिस रूप में है सभी में ईश्वर व्याप्त है, इसीलिए ईश्वर को सर्वव्यापी कहा गया है
परमाणु नाभिक के केन्द्र में भी ईश्वर स्थित होता है, इसके चारों ओर एक प्रभामंडल होता है जिसे ज्ञान का प्रकाश कहते हैं
इसके बाद अन्य कण स्थित होते हैं परमाणु का सबसे बाहरी कण इलेक्ट्रान होता है जो ज्ञान के प्रकाश से प्रेरणा प्राप्त कर समस्त स्थूल जगत की रचना करता है एवं नष्ट करता हैस्थूल जगत की किसी भी सजीव एवं निर्जीव बस्तु के बनने एवं नष्ट होने में इस कण की प्रमुख भूमिका होती हैयह स्वतंत्र अवस्था में भी रहता है विज्ञान ने इस कण पर नियंत्रण प्राप्त कर आज इस युग को इलेक्ट्रानिक युग में बदल दिया हैपरमाणु में ईश्वर की खोज के लिए भी वैज्ञानिक प्रयोग जारी हैं

सूक्ष्म एवं स्थूल जगत कोे क्र्रमशः चेतन एवं जड भी कहा जाता है चेतन द्रव्य ज्ञान युक्त होता है एवं जड में ज्ञान नहीं होता
जड उसे कहते हैं जिसका रूप बदलता रहता है या जन्म मृत्यु होती है चाहे वह सजीव हो या निर्जीवचेतन उसे कहते हैं जिसका रूप नहीं बदलता एवं जो जन्म मृत्यु से मुक्त होता है स्थूल जगत समय की सीमा से बंधा होता है, परंतु सूक्ष्म जगत के लिए समय की कोई सीमा नहीं होती जिस प्रकार स्थूल जगत में द्रव्य की तीन अवस्थाएं होतीं हैं इसी प्रकार सूक्ष्म जगत में भी द्रव्य की तीन अवस्थाएं होतीं हैं 1- सत् 2- रज् 3- तम् सूक्ष्म जगत का सारा द्रव्य तरंग रूप में होता है हम सूक्ष्म जगत की एक चीज प्रकाश को ही देख पाते हैं खाली आँखों से हम प्रकाश का भी तीस प्रतिशत भाग ही देख पाते हैं सूक्ष्म जगत स्थूल जगत की तुलना में बहुत ही अधिक विशाल एवं शक्तिशाली होता है क्योंकि हमारे ब्रह्यांड में सूर्य तारों ग्रहों उपग्रहों के बीच जो भी खाली स्थान है जिसे हम अंतरिक्ष कहते हैं सभी में सूक्ष्म तरंगें प्रवाहित होती रहतीं हैं सभी स्थूल पदार्थों में हमारे शरीर में एवं परमाणुओं की कक्षा के भीतर जो भी खाली स्थान रहता है उसमें भी ये तरंगें विद्यमान रहतीं हैं द्रव्य की ठोस द्रव एवं वायु रूप अवस्था को जड तथा सत रज एवं तम अवस्था को चेतन कहते हैंजिस प्रकार स्थूल जगत में हम एक समय में द्रव्य के एक ही रूप को देख पाते हैं इसी प्रकार सूक्ष्म जगत में भी हम एक समय में द्रव्य के एक ही रूप को देख सकते हैंजब सत का प्रभाव होता है तब रज और तम अवस्था को नहीं देख सकते, जब रज का प्रभाव होता है तब सत और तम को नहीं देख सकतेइसी प्रकार जब तम का प्रभाव होता है तब रज और सत को नहीं देख सकते इसमें भी प्रत्येक अवस्था के निम्नतम् एवं उच्चतम् स्तर होते हैं सत को ज्ञान रज को क्रियाशीलता एवं तम को अज्ञान कहते हैंअज्ञान भी ज्ञान का ही एक प्रकार है अतः इसे मिथ्या ज्ञान समझना चाहिए, अज्ञान के बाद जड अर्थात स्थूल अवस्था आ जाती हैज्ञान युक्त द्रव्य स्वतः क्रिया करने में सक्षम होते हैं परंतु अज्ञानता अर्थात तम का प्रभाव बढने पर ज्ञान कम होता जाता है तम के बाद सूक्ष्म से स्थूल अवस्था अर्थात परमाणु अवस्था में जानेपर लेश मात्र ज्ञान उन्हीं परमाणुओं में रह जाता है जो अपूर्ण अर्थात जिनकी कक्षा में इलक्ट्रान भरने की जगह होती है, होते हैं अपूर्ण परमाणु स्वतः दूसरे अपूर्ण परमाणु से मिलकर अणु बना लेते हैं अणु बन जाने पर ज्ञान शून्य हो जाता है ये अणु तब तक कोई क्रिया नहीं कर सकते जब तक इन्हें किसी चेतन तत्व द्वारा उर्जा प्राप्त न हो

ज्ञान

यहां ज्ञान शब्द का प्रयोग किया गया है अतः ज्ञान के संबंध में जान लेना उचित होगा। यहां ज्ञान का मतलब स्कूली या किताबी ज्ञान से नहीं है बल्कि ब्रह्म ज्ञान से है, एक अनपढ व्यक्ति भी ज्ञानवान हो सकता है एवं एक पढा लिखा व्य्क्ति अज्ञानी हो सकता हैपढना - लिखना एक कला है एवं ज्ञान ईश्वरीय चेतना है ज्ञान मनुष्य की खोज नहीं है , मानव जाति का विनाश हो जाने पर भी ज्ञान का विनाश नहीं हो सकता जब तक ईश्वर है एवं ब्रह्मांड हैे, तब तक ज्ञान भी रहेगाज्ञान दो प्रकार का होता है, 1 - यथार्थ ज्ञान 2 - मिथ्या ज्ञान यथार्थ ज्ञान को ज्ञान शब्द से एवं मिथ्या ज्ञान को अज्ञान शब्द से संबोधित करते हैंयथार्थ ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य को ध्यानावस्था में ही होती हैअज्ञान के प्रभाव से मनुष्य अनित्य में नित्य, दुःख में सुख, अपवित्र में पवित्र एवं अनात्मा में आत्मा समझता है अर्थात् अज्ञान के प्रभाव से मनुष्य जङ को ही चेतन समझता है
मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना
मनुष्य के उपर सूक्ष्म तथा स्थूल के प्रभाव को समझने से पहले मनुष्य की आध्यात्मिक संरचना को समझ लें
धर्म ग्रन्थों में लिखा है कि मनुष्य का शरीर पंच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से बना हुआ है, यहां पृथ्वी का मतलब ठोस, जल का द्रव, अग्नि का ऊर्जा, वायु का वायु रूप, आकाश का सूक्ष्म रूप हैपृथ्वी का गुण गंध, जल का रस, अग्नि का रूप, वायु का स्पर्श एवं आकाश का शब्द कम्पन हैइन्हीं गुणों के आधार पर मनुष्य के शरीर में क्रमशः पांच ज्ञानेन्द्रियां होती है
1 घ्राण अर्थात् नाक 2 रसना अर्थात् जीभ 3 नेत्र 4 त्वचा 5 श्रोत अर्थात् कान।
सूक्ष्म से स्थूल की ओर चलने पर मनुष्य के शरीर को निम्न आठ भागों में बांटा गया है
1 परमात्मा अर्थात् ईश्वर 2 आत्मा 3 मन 4 बुध्दि 5 प्राण 6 वायु रूप 7 द्रव रूप अर्थात् जल रस रक्त आदि 8 ठोस रूप अर्थात् मांस हड्डी आदि।
क्र्रमांक 1 से 5 तक सूक्ष्म शरीर एवं 6 से 8 तक स्थूल शरीर या परमाणुमय शरीर कहलता है उपरोक्त क्रमांक 1 से 8 तक के कार्य इस प्रकार हैं
1.      ईश्वर किसी क्रिया में लिप्त नहीं होता वह सिर्फ दृष्टा होता है परंतु उसके बिना कुछ संभव नहीं
2.     आत्मा शरीर में ज्ञान स्वरूप होती है एवं मनुष्य इंद्रियों द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगती है
3.     मन मनुष्य के शरीर में सबसे महत्वपूर्ण चीज है इसका काम जानना है एवं यह आत्मा तथा बुध्दि के बीच सेतु का काम करता है गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि''मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्ष्योः'' अर्थात् मनुष्य के शरीर में मन ही बंधन एवं मोक्ष का कारण हैमनुष्य के शरीर में मन एक ऐसा मुकाम है जहां से दो रास्ते विपरीत दिशाओं में जाते हैं एक मोक्ष की ओर ले जाता है दूसरा बंधन की ओर, मोक्ष एवं बंधन को क्रमशः योग एवं भोग, ज्ञान एवं अज्ञान, सुख एवं दुख भी कह सकते हैं
4.     बुध्दि मनुष्य के मस्तिष्क को संचालित करती है इसका कार्य निर्णय करना एवं कर्मेन्द्रियों को कार्य करने हेतु प्रेरित करना है जब मन किसी कार्य को करने की इच्छा करता है तब बुध्दि हमारे शरीर की सुरक्षा एवं प्रकृति के नियमों को ध्यान में रखते हुए निर्णय करती है कि इच्छित कार्य करने योग्य है या नहीं इसी आधार पर यह कर्मेंन्द्रियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है, शरीर में मन एवं बुध्दि का द्वंद्व हमेशा चलता रहता है , इस द्वंद्व में यदि मन का पलडा भारी होता है तब मनुष्य अपराध की ओर या प्रकृति से विपरीत कार्यों की ओर मुड ज़ाता है यदि बुध्दि का पलडा भारी होता है तब शरीर में तनाव एवं चिंता उत्पन्न होती है तथा मनुष्य धीरे-धीरे रोगी बन जाता है, असाध्य क्रॉनिक रोगों काइसके अलावा कोई दूसरा कारण नहीं होता इसी आधार पर होम्योपैथी में मन का इलाज किया जाता है न कि रोग का, निरोग रहने के लिए शरीर में मन एवं बुध्दि का संतुलन आवश्यक है
5.     प्राण, इसे जीवनी शक्ति भी कहते हैं इसका कार्य सारे शरीर में एवं सूक्ष्म नाडियों में वायु प्रवाह को नियंत्रित करना तथा सूक्ष्म ऊर्जा प्रदान कर शरीर को क्रि्रयाशील रखना है प्राण के निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है एवं प्राण के कमजोर होने पर शरीर कमजोर होता जाता है तथा बीमारियों से लडने की शक्ति समाप्त होने लगती हैमनुष्य के शरीर पांच महाप्राण एवं पांच लघु प्राण होते है महाप्राण को ओजस् एवं लघु प्राण को रेतस् कहते हैं प्राणायाम् हमें प्राणों पर नियंत्रण रखने की विधि सिखाता है, क्योंकि प्राणों के ऊपर ही शरीर की क्रियाशीलता निर्भर करती है
6.     वायु से शरीर ऑक्सीजन प्राप्त करता है जिससे शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्राप्त होती है
7.     द्रव- इसका कार्य शरीर से आवश्यक तत्वों को ग्रहण करना एवं अशुध्द एवं अनावश्यक तत्वों को शरीर से बाहर निकालना है
8.     ठोस - इसका कार्य रक्त प्रवाह एवं स्नायुओं के लिए सुरक्षित मार्ग बनाना , शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करना तथा शरीर को स्थिर एवं सुडौल बनाए रखना है

Wednesday, September 30, 2009

सूर और वात्सल्य रस

महाकवि सूर को बाल-प्रकृति तथा बालसुलभ चित्रणों की दृष्टि से विश्व में अद्वितीय माना गया हैउनके वात्सल्य वर्णन का कोई साम्य नहीं, वह अनूठा और बेजोड हैबालकों की प्रवृति और मनोविज्ञान का जितना सूक्ष्म व स्वाभाविक वर्णन सूरदास जी ने किया है वह हिन्दी के किसी अन्य कवि या अन्य भाषाओं के किसी कवि ने नहीं किया हैशैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे न जाने कितने चित्र सूर के काव्य में वर्णित हैं
वैसे तो श्रीकृष्ण के बाल-चरित्र का वर्णन श्रीमद्भागवत गीता में भी हुआ हैऔर सूर के दीक्षा गुरू वल्लभाचार्य श्रीकृष्ण के बालरूप के ही उपासक थे जबकि श्रीकृष्ण के गोपीनाथ वल्लभ किशोर रूप को स्वामी विठ्ठलनाथ के समय मान्यता मिलीअत: सूर के काव्य में कृष्ण के इन दोनों रूपों की विस्तृत अभिव्यंजना हुई
सूर की दृष्टि में बालकृष्ण में भी परमब्रह्म अवतरित रहे हैं, उनकी बाल-लीलाओं में भी ब्रह्मतत्व विद्यामान है जो विशुध्द बाल-वर्णन की अपेक्षा, कृष्ण के अवतारी रूप का परिचायक हैतभी तो, कृष्ण द्वारा पैर का अंगूठा चूसने पर तीनों लोकों में खलबली मच जाती है -
कर पग गहि अंगूठा मुख मेलत
प्रभु पौढे पालने अकेले हरषि-हरषि अपने संग खेलत
शिव सोचत, विधि बुध्दि विचारत बट बाढयो सागर जल खेलत
बिडरी चले घन प्रलय जानि कैं दिगपति, दिगदंती मन सकेलत
मुनि मन मीत भये भव-कपित, शेष सकुचि सहसौ फन खेलत
उन ब्रजबासिन बात निजानी
समझे सूर संकट पंगु मेलत

दही बिलौने की हठ को देख कर वासुकी और शिव भयभीत हो जाते हैं -
मथत दधि, मथनि टेकि खरयों
आरि करत मटुकि गहि मोहन
बासुकी,संभु उरयो

कृष्ण विष्णु के अवतार हैं अत: वे बाल रूप में भी असुरों का सहज ही वध करते वर्णित किये गए हैंकंस द्वारा भेजी गई पूतना के कपट को वे अपने नवजात रूप में ही भा/प उसके विषयुक्त स्तन पान करते करते उसके प्राण हर लेते हैं
कपट करि ब्रजहिं पूतना आई
अति सुरूप विष अस्तन लाए, राजा कंस पठाई
कर गहि छरि पियावति, अपनी जानत केसवराई
बाहर व्है के असुर पुकारी, अब बलि लेत छुहाई
गई मुरछाह परी धरनी पर, मनौ भुवंगम खाई।

सूर के वात्सल्य वर्णन में यद्यपि उनके विष्णु अवतार होने की झलके तो अवश्य मिलती है, तथापि ये वर्णन किसी भी माँ के अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य का प्रतिनिधित्व करते हैं - यशोदा जी श्री कृष्ण को पालने में झुला रही हैं और उनको हिला-हिला कर दुलराती हुई कुछ गुनगुनाती भी जा रही हैं जिससे कि कृष्ण सो जाएं
जसोदा हरि पालने झुलावै
हलरावे, दुलराई मल्हावे, जोई-सोई कछु गावै
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै
तू काहैं नहिं बेगहीं आवै, तोको कान्ह बुलावैं।

माँ की लोरी सुन कर कृष्ण अपनी कभी पलक बन्द कर लेते हैं, कभी होंठ फडक़ाते हैंउन्हें सोता जान यशोदा भी गुनगुनाना बंद कर देती हैं और नन्द जी को इशारे से बताती हैं कि कृष्ण सो गए हैंइस अंतराल में कृष्ण अकुला कर फिर जाग पडते हैं, तो यशोदा फिर लोरी गाने लगती हैं
कबहूँ पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहूँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन व्है रहि रहि, करि करि सैन बतावे।
इहिं अंतर अकुलाई उठे हरि, जसुमति मधुर गावैं।

प्रस्तुत पद में सूर ने अपने अबोध शिशु को सुलाती माता का बडा ही सुन्दर चित्रण किया है
माँ के मन की लालसा व स्वप्नों को भी सूर ने बडे ज़ीवंत ढंग से अपने पदो में उतारा है जैसे -
जसुमति मन अभिलाष करै।
कब मेरो लाल घुटुरुवनि रैंगे, कब धरनी पग द्वेक धरै।
कब द्वै दाँत दूध कै देखौं, कब तोतैं मुख बचन झरैं।
कब नन्दहिं बाबा कहि बोले, कब जननी कहिं मोहिं ररै।

सुत मुख देखि जसोदा फूली
हरषति देखि दूध की दँतिया, प्रेम मगन तन की सुधि भूली।
बाहर तैं तब नन्द बुलाए, देखौ धौं सुन्दर सुखदाई।
तनक-तनक सी दूध दंतुलिया, देखौ, नैन सफल करो आई।

श्री कृष्ण के दाँत निकलने पर यशोदा माता की खुशी का पारावार नहीं रहता, वे नन्द को बुला कर उनके दूध के दाँत देख कर अपने नेत्र सफल करने के लिये कहती हैं।
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ।
मुख में तीनि लोक दिखाए, चकित भई नन्द-रनियाँ।
घर-घर हाथ दिखावति डोलति, बाँधति गरै बघनियाँ।
सूर स्याम को अद्भुत लीला नहिं जानत मुनि जनियाँ।

माँ को अपने लाडले पर बडा नाज है सो बडी चिन्तित रहती है कि उसे किसी की नजर ना लग जाएयही कारण है कि जब एक दिन माँ की गोद में अलसाते कान्हा ने जोर की जमुहाई लेकर अपने मुख में तीनों लोकों के दर्शन करवा दिये तो माँ डर गई और उनका हाथ ज्योतिषियों को दिखाया और बघनखे का तावीज ग़ले में डाल दिया
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुनि चलत रेनु तन-मण्डित, मुख दधि लेप किये ।
कंठुला कंठ, ब्रज केहरि-नख, राजत रुधिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।

कृष्ण घुटनों के बल चलने लगे हैं, उनके हाथों में मक्खन है, मुँह पे दही लगा है, शरीर मिट्टी से सना हैमस्तक पर गोरोचन का तिलक है और उनके घुंघराले बाल गालों पर बिखरे हैंगले में बघनखे का कंठुला शोभायमान हैकृष्ण के इस सौंदर्य को एक क्षण के लिये देखने भर का सुख भी सात युगों तक जीने के समान है
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नन्द कैं आँगन, बिंब पकरिबै धावत।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत
किलकि हांसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।
बाल-दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावत।
अंचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौ दूध पियावत।

नन्द जी का आँगन रत्नजटित र्स्वण निर्मित हैइसमें जब कान्हा घुटनों के बल चलते हैं तो उसमें अपनी परछांई उन्हें दिखती है, जिसे वे पकडने की चेष्टा करते घूमते हैंऐसा करते हुए जब वे किलकारी मार कर हँसते हैं तो उनके दूध के दाँत चमकने लगते हैं और इस स्वर्णिम दृश्य को दिखाने के लिये यशोदा माँ बार-बार नन्द बाबा को बुला लाती हैं
चलत देखि जसुमति सुख पावै।
ठुमकि-ठुमकि पग धरनि रेंगत, जननी देखि दिखावै।
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहिं कौ आवै।
गिरि-गिरि परत, बनत नहिं लाँघत सुर-मुनि सोच करावै।

कृष्ण को गिरते-पडते, ठुमुक-ठुमुक चलते देख यशोदा माँ को अपार सुख मिलता है
धीरे-धीरे कृष्ण बडे होते हैं। माँ कोई भी काम करती है तो छोटे बच्चे भी उस काम को करने की चेष्टा करते हैं और माँ के काम में व्यवधान डालते हैं। माँ को दूध बिलोते देख कृष्ण मथानी पकड लेते हैंयशोदा उनकी मनुहार करते हुए कहती है
नन्द जू के बारे कान्ह, छाँडि दे मथनियाँ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नन्द रनियाँ।
नैकु रहौ माखन देऊँ मेरे प्रान-धनियाँ।
अरि जनि करौं, बलि-बलि जाउं हो निधनियाँ।

श्री कृष्ण अन्य बच्चों के समान ही माँ से मक्खन रोटी माँगते हुए आँगन में लोट-लोट जाते हैंयशोदा समझाती हैं -
गोपालराई दधि मांगत अरु रोटी।
माखन सहित देहि मेरी मैया, सुकोमल मोटी।
कत हौ मारी करत हो मेरे मोहन, तुम आंगन में लोटी।
जो चाहौ सौ लेहु तुरतही छाडौ यह मति खोटी।
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौं, मुख चुपरयौ अरु चोटी।
सूरदास कौ ठाकुर ठठौ, हाथ लकुटिया छोटी।

कृष्ण चाहते हैं कि जल्दी ही उनकी चोटी बलराम भैया जितनी लम्बी और मोटी हो जाए। माँ यशोदा को उन्हें दूध पिलाने का अच्छा अवसर मिल जाता है और वे कहती हैं यदि तुम दूध पी लोगे तो तुम्हारी चोटी बलराम जितनी लम्बी और मोटी हो जाएगीबालकृष्ण दो तीन बार तो माँ की बातों में आ जाते हैं फिर माँ से झगडते हैं कि तू मुझे बहाने बना कर दूध पिलाती रही देख मेरी चोटी तो वैसी है, चोटी दूध से नहीं माखन-रोटी से बढती है
मैया कबहिं बढैगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, व्है लांबी मोटी।
काढत-गुहत न्हवावत जैसे नागिनी-सी भुई लोटी।
काचौ दूध पियावत पचि-पचि, देति ना माखन रोटी।
सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी।

प्राय: बच्चों के द्वारा यह पूछने पर कि मैं कहाँ से आया हूँ, उन्हें यह उत्तर दिया जाता है कि तुम्हें किसी कुंजडिन या नटनी से खरीदा गया है या मोल लिया हैहाँ बलराम बडे हैं और वे कृष्ण को ये कहके चिढाते रहते हैं कि तुम माता यशोदा के पुत्र नहीं तुम्हें मोल लिया गया हैअपने कथन को सिध्द करने के लिये वे तर्क भी देते हैं कि बाबा नंद भी गोरे हैं, माता यशोदा भी गोरी हैं तो तुम साँवले क्यों हो? अत: तुम माता यशोदा के पुत्र कैसे हो सकते हो? कृष्ण रूआँआसे होकर माँ से शिकायत करते हैं
मैया मोहे दाऊ बहुत खिजायौ।
मोसौं कहत मोल को लीन्हो तोहि जसुमति कब जायौ।
कहा करौ इहि रिस के मारै, खेलन को नहिं जात।
पुनि-पुनि कहत है कौन है माता, कौ है तेरो तात।
गोरे नन्द जसोदा गोरी, तू कत स्याम शरीर।
चुटकी दै दै हँसत ग्वाल सब, सिखै देत रघुबीर।

फिर बाल सुलभर् ईष्या की बातें कह कर कि तू भी मुझको ही पीटती है, दाऊ पर जरा भी गुस्सा नहीं होती, कृष्ण माँ का मन रिझा लेते हैं
तू मोहि को मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीजे।
इस पर माँ अपने बालकिशन को यह कह कर मनाती है -

मोहन मुख रिस की ये बातें, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहूँ कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।

हाँ प्रस्तुत चित्रण में पिता बच्चों के साथ भोजन करना चाहते हैं, किन्तु बच्चे खेलने की धुन में घर ही नहीं आते -
हार कौं टेरित हैं नन्दरानी।
बहुत अबार भई कँह खेलत रहे, मेरे सारंग पानी।
सुनतहिं टेरि, दौरि तँह आए, कबसे निकसे लाल।
जेंवत नहीं नन्द तुम्हरै बिन बेगि चल्यौ गोपाल।
स्यामहिं लाई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइं पखारि।
सूरदास प्रभु संग नन्द कैं बैठे हैं दोउ बारै।

सूर वात्सल्यभाव और बालसुलभ बातों की अंतरंग तहों तक अपने पदों के द्वारा पहुँच गए हैंसूर जैसे एक जन्मांध व्यक्ति के लिये यह सब दिव्यदृष्टि जैसा अनुभव रहा होगा
यशोदा के वात्सल्य भाव का सूर ने उन पदों में बडा अच्छा चित्रण किया है जिसमें कृष्ण ब्रज की गलियों में घर घर जाकर दही-माखन चुराते हैं, बर्तन फोड ड़ालते हैं और स्त्रियाँ आकर उनकी शिकायत करती हैं, किन्तु यशोदा उनकी बात अनसुनी कर देती हैं, और बालकृष्ण का ही पक्ष लेती हुई कहती हैं -
अब ये झूठहु बोलत लोग।
पाँच बरस और कछुक दिननि को, कब भयौ चोरी जोग।
इहिं मिस देखन आवति ग्वालिनी, मुँह फारे जु गँवारि।
अनदोषे कौ दोष लगावति, दहि देइगौ टारि।

अपने बच्चे का पक्ष लेते हुए यशोदा सोचती हैं, जब मेरा बच्चा इतना छोटा है तो उसका हाथ छींके तक कैसे पहुँच सकता र्है?
कैसे करि याकि भुज पहुँची, कौन वेग ह्यौ आयौ।
इस पर गोपियाँ उसे समझाती र्हैं
ऊखल उपर अग्नि, पीठि दै, तापर सखा चढायौ।
जो न पत्याहु चलो संग जसुमति, देखो नैन निहारि।
सूरदास प्रभु नेकहुँ न बरजौ, मन में महरि विचारि।

माँ का भी मनोविज्ञान सूर से अछूता नहीं रहावह माँ जो स्वयं लाख डाँट ले पर दूसरों द्वारा की गई अपने बालक की शिकायत या डाँट वह सह नहीं सकतीयही हाल सूर की जसुमति मैया का है
जब कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाया जाता है, तो उनके अनिष्ट की आशंका से उनका मन कातर हो उठता हैमाता को पश्चाताप है कि जब कृष्ण ब्रज छोड मथुरा जा रहे थे तब ही उनका हृदय फट क्यों न गया
छाँडि सनेह चले मथुरा कत दौरि न चीर गह्यो।
फटि गई न ब्रज की धरती, कत यह सूल सह्यो।

इस पर नन्द स्वयं व्यथित हो यशोदा पर अभियोग लगाते हैं कि तू बात-बात पर कान्हा की पिटाई कर देती थी सो रूठ कर वो मथुरा चला गया है -
तब तू मारि बोई करत।
रिसनि आगै कहै जो धावत, अब लै भाँडे भरति
रोस कै कर दाँवरी लै फिरति घर-घर घरति।
कठिन हिय करि तब ज्यौं बंध्यौ, अब वृथा करि मरत।

एक ओर नन्द की ऐसी उपालम्भ पूर्ण उक्तियाँ हैं तो दूसरी ओर यशोदा भी पुत्र की वियोगजन्य झुंझलाहट से खीज कर नन्द से कहती है
नन्द ब्रज लीजै ठोकि बजाय।
देहु बिदा मिलि जाहिं मधुपुरी जँह गोकुल के राय।

अब यशोदा पुत्र प्रेम के अधीन देवकी को संदेश भिजवाती हैं कि ठीक है कृष्ण राजभवन में रह रहे हैं, उन्हें किसी बात की कमी नहीं होगी पर कृष्ण को तो सुबह उठ कर मक्खन-रोटी खाने की आदत हैवे तेल, उबटन और गर्म पानी देख कर भाग जाते हैंमैं तो कृष्ण की मात्र धाय ही हूँ पर चिंतित हूँ हाँ मेरा पुत्र संकोच न करता हो
संदेसो देवकी सौं कहियौ।
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो।
उबटन तेल और तातो जल देखत ही भजि जाते।
जोई-जोई माँगत सोई-सोई देती करम-करम करि न्हाते।
तुम तो टेव जानतिहि व्है हो, तऊ मौहि कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल लडैतेंहि माखन रोटी खावै।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बाल मनोविज्ञान उसके हाव-भाव और क्रीडाओं के चित्रण तथा जननी-जनक के वात्सल्य भाव की व्यंजना के क्षेत्र में सूर हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व साहित्य के एक बेजोड क़वि हैं