1871-1872 की बात है। श्री रामकृष्णदेव ने दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में ईश्वर प्राप्ति के लिये अति कठिन और विविध साधना में सिध्दि प्राप्त करने के पश्चात अपने भक्त मथुरनाथ बिस्वास के साथ वे वृंदावन वाराणसी और काशी विश्वेश्वर के लिये रेल यात्रा पर निकले।
इस यात्रा के दौरान श्री रामकृष्णदेव और उनके साथी बिहार के एक ग्राम बर्धमान के पास रूके। ब्रिटिश राज की नीतियों और मौसम की लहर के कारण उन दिनों पूरा बिहार अकाल की चपेट में था। अन्न और जल दोनों की खासी कमी थी। गरीब जनता अतिशय दुख और कष्ट से बेहाल थी।
इस यात्रा के दौरान श्री रामकृष्णदेव और उनके साथी बिहार के एक ग्राम बर्धमान के पास रूके। ब्रिटिश राज की नीतियों और मौसम की लहर के कारण उन दिनों पूरा बिहार अकाल की चपेट में था। अन्न और जल दोनों की खासी कमी थी। गरीब जनता अतिशय दुख और कष्ट से बेहाल थी।
इस माहौल में भूख और त्रासदी से ग्रस्त लोगों के एक समूह को देखकर ये स्वस्थ और सुखी यात्री अपने आप को बेचैन महसूस करने लगे। करूणामय श्री रामकृष्ण इस अस्वस्थता को बरदाश्त नहीं कर सके। वे अपने धनिक साथी माथुरबाबू से बोले ''देखो क्या त्रासदी आई है। देखो इस भारत मां की सन्तान कैसे दीन और हीन भाव से त्रस्त है। भूख से उनका पेट और पीठ एक होते जा रहा है। आंखे निस्तेज और चेहरा मलिन हो गया है।बाल अस्तव्यस्त और सूखे जा रहे हैं। ओ मथुर आप इन सब दरिद्र नारायण को अच्छी तरह नहाने का पानी बालों में डालने तेल और भरपेट भोजन की व्यवस्था करो। तभी मैं यहॉ से आगे बढूंगा। मानव ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार है। इन्हे इस तरहा तडपता मैं देख नहीं सकता।
मथुराबाबु बडी भारी उलझन में घिर गये। ना तो उनके पास इतनी रकम थी ना ही अनाज और अन्य सामग्री। इतने सारे गरीबों को खाना खिलाना और अन्य चीजें देना एकदम सहज नहीं था। इससे उनकी आगे की यात्रा पर भी प्रतिकूल असर होनेवाला था। सो उन्होने श्री रामकृष्णदेव से कहा
''बाबा यहां अकाल पडा है। सब तरफ यही हालात है। किसे किसे खाना दोंगे।हमारे पास न तो अनाज है न ही कंबल। हम नियोजन कर के भ्विष्य में यह सत्कार्य करेंगे। फिलहाल हम अपनी आगे की यात्रा पर ध्यान दें।'' लेकिन नहीं। करूणामय श्री रामकृष्ण तो साक्षात नारायण को ही उन नरदेह में देख रहे थे। वे आगे कैसे बढते। बस झटसे उन गरीब लोगो के समूह में शामिल हो गये। उनके साथ जमकर बैठ गये और बोले ''जब तक इन नर नारायणों की सेवा नहीं करोगे तब तक मैं यहां से हिलूंगा नहीं।
श्री रामकृष्णदेव के मुखपर असीम करूणा का तेज उभर आया मानो करूणाने साक्षात नरदेह धारण कर लिया हो। उनकी वाणी मृदु नयन अश्रुपूर्ण
और हृदय विशाल हो गया था। उन गरिबो में और अपने आप में अब उन्हें कोई भेद जान नहीं पडता था। अद्वैत वेदान्त की उच्चतम अवस्था में वे सर्वभूतो से एकरूप हो गये थे।
अब मथुरबाबू के पास उस महापुरूष की आज्ञा का पालन करने सिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं बचा था। वे तत्काल कलकत्ता गये धन और राशन की व्यवस्था की और करूणामय श्री रामकृष्णदेव की इच्छानुसार उन गरीबों की सेवा करने के पश्चात ही उन्होने दम लिया। इस असीम प्रेम से उन गरीबों के चेहरोंपर मुस्कान की एक लहर दौड ग़यी। तब एक नन्हे बालक के भांति खुश होकर श्री रामकृष्णदेव आगे की यात्रा के लिये रवाना हुए।
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