Monday, August 31, 2009

Archive for the ‘प्रसिद्ध रचनाकार’ Category गोस्वामी तुलसीदास – प्रचलित कथायें एवं विशिष्टाएँ

ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास जी वाल्मीकि के अवतार हैं। हिंदू मान्याताओं के अनुसार आत्मा अमर है। वाल्मीकि ने “रामायण” की रचना की थी और उसका पाठ करके लंबे अंतराल तक हिंदू एक सूत्र में बंधते रहे। मैं समझता हूँ कि कालान्तर में संस्कृत भाषा का ह्रास हो जाने के कारण “रामायण” का प्रभाव क्षीण होने लगा होगा तब वाल्मीकि को “रामायण” के लिये तुलसीदास के रूप में अवतार लेना पड़ा होगा।
पत्नी की फटकार ने रामबोला (तुलसीदास) के ज्ञान चक्षु खोल दिये थे और वे प्रयाग जा पहुँचे थे। ज्ञान प्राप्ति के लिये वे सतत् प्रयास करते रहे। चौदह वर्षों तक निरंतर तीर्थाटन किया। चारों धामों (बदरीनाथ, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी और द्वारिका) की पैदल यात्रा की। और अंततः ज्ञान प्राप्ति के अपने लक्ष्य को पा कर ही रहे।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात उन्होंने अनेक काव्यों की रचना की जिनमें से रामचरितमानस, कवितावली, दोहावली, गीतावली, विनय पत्रिका, कवित्त रामायाण, बरवै रामायाण, रामलला नहछू, रामाज्ञा, कृष्ण गीतावली, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामसतसई, रामनाम मणि, रामशलाका, हनुमान चालीसा, हनुमान बाहुक, संकट मोचन, वैराग्य संदीपनी, कोष मञ्जूषा आदि अत्यंत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हैं
तुलसीदास जी को हनुमान जी के दर्शन प्राप्त थे। हनुमान जी से ही प्रेरणा प्राप्त करके तुलसीदास जी ने “रामचरितमानस” की। तुलसीदास जी को हनुमान जी के दर्शन कैसे मिले यह भी एक रोचक कथा है। कहा जाता है कि प्रतिदिन प्रातःकाल जब शौच के लिये गंगापार जाते थे तो वापसी के समय लोटे में बचे हुये पानी को एक पेड़ के जड़ में डाल दिया करते थे। उस पेड़ में एक प्रेत का निवास था। रोज पानी मिलने की वजह से उसे संतुष्टि मिली वह तुलसीदास जी पर प्रसन्न हो गया और उनके सामने प्रकट होकर उसने वर मांगने के लिया कहा। तुलसीदास जी ने भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। इस पर प्रेत ने कहा कि मैं भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन तो नहीं करवा सकता पर इतना अवश्य बता सकता हूँ कि फलाने मंदिर में नित्य सायंकाल में भगवान श्रीरामचंद्र की कथा होती है और वहाँ कथा सुनने के लिये हनुमान जी कोढ़ी के वेश में आते हैं। कथा सुनने के लिये सबसे पहले वे ही आते हैं और सबके चले जाने के बाद अंत में ही वे जाते हैं। वे ही आपको भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन करा सकते हैं अतः वहाँ जाकर उन्हीं से प्रार्थना कीजिये। तुलसीदास जी ने वहाँ जाकर अवसर पाते ही हनुमान जी के पैर पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न कर लिया। हनुमान जी ने कहा कि चित्रकूट चले जाओ वहीं तुम्हे भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन होंगे। तुलसीदास जी चित्रकूट पहुँच गये। वहाँ के जंगल गुजरते हुये उन्होंने दो राजकुमारों को, जिनमें से एक श्यामवर्ण के थे और दूसरे गौरवर्ण के, एक हिरण का पीछा करते हुये देखा। राजकुमारों के आँखों से ओझल हो जाने पर हनुमान जी ने प्रकट होकर बताया कि वे दोनों राजकुमार ही राम और लक्ष्मण थे। तुलसीदास जी को बहुत पछतावा हुआ कि वे उन्हें पहचान नहीं पाये। हनुमान जी ने कहा कि पछतावो मत एल बार फिर तुम्हे भगवान श्रीरामचंद्र के दर्शन होंगे तब मैं इशारे से तुम्हे बता दूंगा। संवत् 1607 के मौनी अमावश्या के दिन तुलसीदास जी चित्रकूट के घाट पर चंदन घिस रहे थे। तभी बालक के रूप में भगवान श्रीरामचंद्र वहाँ पर आये और तुलसीदास जी से मांगकर उन्हीं को चंदन लगाने लगे इसी समय हनुमान जी एक ब्राह्मण के रूप में आकर इस प्रकार गाने लगेः
चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसै, तिलक देत रघुबीर॥

इस पर तुलसीदास जी ने श्री रामचंद्र जी को पहचान लिया और उनके चरण पकड़ लिये।
नित्य भगवान श्रीरामचंद्र की भक्ति में लीन रहने से सहज ही उनकी अलौकिक शक्तियाँ जागृत हो गई थीं और उनके मुख से निकले शब्द सच सिद्ध हो जाते थे। एक महिला जो कि तुरंत ही विधवा हुई थी ने तुलसीदास जी को प्रणाम किया। अनजाने में ही उनके मुख से आशीर्वाद के रूप में ‘सौभाग्यवती भव’ शब्द निकल गये तो महिला का पति जीवित हो उठा। यह बात बादशाह तक पहुँच गई। बादशाह ने तुलसीदास को बुलवाकर करामात दिखाने के लिये कहा। तुलसीदास जी ने जवाब दिया कि मैं “रामनाम” के सिवाय और कोई करामात नहीँ जानता। इस पर बादशाह ने उन्हें कैद कर लेने का हुक्म दे दिया। कैद में तुलसीदास जी ने हनुमान जी की स्तुति करना आरंभ कर दिया। चमत्कारिक रूप से अनगिनत बंदर आ गये और किले में उत्पात मचाने लगे। बादशाह ने तुलसीदास जी से क्षमायाचना करके उन्हें कैद से आजाद कर दिया तो सारे बंदर वापस चले गये।
निःसंदेह तुलसीदास जी अलौकिक व्यक्तित्व के स्वामी थे। “रामचरिमानस” की रचना करके समस्त हिंदुओं पर एक बहुत बड़ा उपकार किया है। “रामचरितमानस” ग्रंथ संसार के लिये एक अमूल्य उपहार है। अंत में एक बात और। तुलसीदास जी का जन्म श्रावण शुक्ल सप्तमी को हुआ था और 126 वर्ष पश्चात पवित्र गंगा नदी के असी घाट पर श्रावण शुक्ल सप्तमी को ही उनकी मृत्यु हुई। इस पर किसी कवि ने कहा हैः
संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर।।
तुलसीदास (Tulsidas)
तुलसीदास (Tulsidas)
तुलसीदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में स्थित राजापुर नामक ग्राम में संवत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन हुआ था. उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी देवी था. ऐसा कहा जाता है कि उनका जन्म माता के गर्भ में 12 महीने रहने के बाद हुआ था और जन्मते ही उनके मुख से रुदन के स्थान पर “राम” शब्द का उच्चारण हुआ था, उनके मुख में पूरे बत्तीस दाँत थे तथा उनकी कद काठी पाँच वर्ष के बालक के समान था. इन सारी विचित्रताओं के कारण पिता अमंगल की आशंका से भयभीत हो गये. अनिष्ट की आशंका से माता ने दशमी की रात को बालक को दासी के साथ उसके ससुराल भेज दिया और दूसरे दिन स्वयं संसार से चल बसीं. दासी ने जिसका नाम चुनियाँ था बालक का पालन-पोषण बड़े प्यार से किया. साढ़े पाँच वर्ष की उम्र की में दासी चुनियाँ की भी मृत्यु हो गई और बालक अनाथ हो गया.
रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्द जी की दृष्टि इस बालक पर पड़ी और वे उसे अपने साथ अयोध्या ले जा कर उसका लालन-पालन करने लगे. बालक का नाम रामबोला रखा गया. रामबोला के विद्याध्ययन की भी व्यवस्था उन्होंने कर दिया. बालक तीव्र बुद्धि तथा विलक्षण प्रतिभा वाला था अतः शीघ्र ही समस्त विद्याओं में पारंगत हो गया. काशी में शेष सनातन से उन्होंने वेद वेदांग की शिक्षा प्राप्त की.
सभी विषयों में पारंगत हो कर तथा श्री नरहर्यानन्द की आज्ञा ले कर वे अपनी जन्मभूमि वापस आ गये. उनका परिवार नष्ट हो चुका था. उन्होंने अपने पिता तथा पूर्वजों का विधिपूर्वक श्राद्ध किया और वहीं रह कर लोगों को रामकथा सुनाने लगे. संवत् १५८३ में रत्नावली नामक एक सुंदरी एवं विदुषी कन्या से उनका विवाह हो गया और वे सुखपूर्बक जीवन यापन करने लगे. रामबोला को अपनी पत्नी से अत्यंत प्रेम था. एक बार जब रत्नावली को उसका भाई मायके लिवा गया तो वे वियोग न सह पाये और पीछे पीछे अपने ससुराल तक चले गये. रत्नावली को उनकी यह अति आसक्ति अच्छी नहीं लगी उन्हें इन शब्दों में धिक्काराः
लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ|
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह, ता पर ऐसी प्रीति|
तिसु आधो रघुबीरपद, तो न होति भवभीति॥

(आपको लाज नहीं आई जो दौड़ते हुये साथ आ गये. हे नाथ, अब मैं आपसे क्या कहूँ ऐसे प्रेम को धिक्कार है. यदि इससे आधी प्रीति भी आपकी भगवान श्रीरामचंद्रजी के चरणों के प्रति होती तो इस संसार के भय से आप मुक्त हो जाते अर्थात् मोक्ष मिल जाता.)
रत्नावली के ये शब्द रामबोला के मर्म को छू गये. उन्होंने अब अपना पूरा ध्यान रामभक्ति में लगाना शुरू कर दिया. वे प्रयाग आ गये, साधुवेष धारण कर लिया. तीर्थाटन, भक्तिभाव व उपासना में जीवन को लगा दिया. उन्हें काकभुशुण्डिजी और हनुमान जी के दर्शन प्राप्त हुये. हनुमान जी की ही आज्ञा से उन्होंने अपना महाकाव्य “रामचरित मानस” लिखा और “संत तुलसीदास” के नाम से प्रसिद्धि पाई.
संवत् 1631 के रामनवमी के दिन से उन्होंने “रामचरित मानस” लिखना आरंभ करके 2 वर्ष 7 माह 26 दिन पश्चात् संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन उसे पूर्ण किया. “रामचरित मानस” एक अमर ग्रंथ है जिसे कि हर हिंदू बड़े चाव से रखता और पढ़ता है.
संवत् 1680 में “संत तुलसीदासजी” ने अपने नश्वर शरीर का परित्याग किया.

बिहारी

बिहारी रीतिकालीन के जाने माने कवियों में से एक हैं। इनका जन्म सन् 1660 में ग्वालियर के पास वसुआ गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवराय था और वे जाति के ब्राह्मण (चतुर्वेदी) थे।
बिहारी का बाल्यकाल बुन्देलखंड में बीता किन्तु युवावस्था में विवाह के पश्चात वे मथुरा में निवास करने लगे। वे जयपुर के महाराजा जयसिंह के आश्रित थे। बिहारी कृष्णभक्त प्रवृति के कवि थे। बिहारी सतसई इनकी प्रमुख रचना है जो कि एक मुक्तक काव्य है।
बिहारी के दोहों में रस, अलंकार, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति, नायक नायिका भेद के बहुत अच्छे उदाहरण पाये जाते हैं।

रहीम

अब्दुर्हीम खानखाना की गणना अकबर के दरबार के नवरत्नों में होती है। वे मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि हैं। उनके पिता का नाम बैरमखाँ था जो कि अकबर के अभिभावक भी थे। रहीम का जन्म माघ कृष्ण पक्ष गुरुवार, सन् 1556 ई में हुआ था। उनका पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा अकबर के निरीक्षण में हुई थी क्योंकि पाँ वर्ष की अवस्था में ही उनके पिता की हत्या कर दी गई थी। रहीम को, उनकी योग्यता से प्रभावित होकर, अकबर ने ‘खानखाना’ की उपाधि प्रदान की थी। 1626 ई में 70 वर्ष की आयु में रहीम की मृत्यु हुई।
रहीम की प्रमुख रचनाएँ:
  • बरवै
  • बरवै नायिका भेद
  • नगर शोभा
  • मदनाष्टक
  • खेट कौतुकम
  • दोहावली
रहीम ने तुर्की भाषा में रचित बाबर की आत्मकथा का अनुवाद भी किया था।

हिन्दी के महान कवि – तुलसीदास

श्री तुलसीदास जी अवधी (हिन्दी की एक उपभाषा) के महान कवि एवं दार्शनिक थे। हिन्दी साहित्य तथा हिन्दू धर्म के प्रति उनके योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
यद्यपि रामचरितमानस उनकी प्रसिद्ध एवं अमर कृति है, किन्तु उनकी अन्य रचनाओं को भी अत्यधिक महत्व दिया जाता है।
तुलसीदास जी संस्कृत के विद्वान थे किन्तु उन्हें हिन्दी के महान साहित्यकार का दर्जा प्राप्त है।
तुलसीदास जी को संस्कृत की प्रसिद्ध रचना रामायण के रचयिता वाल्मीकि का अवतार माना जाता है।
उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में हुआ था। उनका असली नाम रामबोला था। उनके माता पिता का नाम क्रमशः हुलसी देवी और आत्माराम दुबे था।

तुलसीदास जी की रचनाएँ

तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छः मध्यम श्रेणी में आती हैं।

मुख्य रचनाएँ

  • रामचरितमानस – “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान काव्य रचना है।
  • दोहावली -दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है।
  • कवितावली -कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं।
  • गीतावली -गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है।
  • विनय पत्रिका -विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की।
  • कृष्ण गीतावली -कृष्ण गीतावली में श्री कृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है।

छोटी रचनाएँ

बरवै रामायण, जानकी मंगल, रामलला नहछू, रामज्ञा प्रश्न, पार्वती मंगल, हनुमान बाहुक, संकट मोचन और वैराग्य संदीपनी तुलसीदास जी की छोटी रचनाएँ हैं।
रामचरितमानस के बाद हनुमान चालीसा, जो कि हिन्दुओं की दैनिक प्रार्थना कही जाती है, तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है।

सूरदास

हिन्दी साहित्य में सूरदास की रचनाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। किसी ने कहा है किः
सूर सूर तुलसी शशी उड्गन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम जँह तँह करत प्रकास॥

अर्थात् हिन्दी काव्यरूपी आकाश में सूरदास जी सूर्य हैं, तुलसीदास जी चन्द्रमा हैं और केशवदास तारे के समान हैं। अब के कवि तो जुगनुओं के जैसे हैं जो यहाँ वहाँ चमकते रहते हैं।
  • सूरदास जी अकबर के समय के भक्त कवि, गायक तथा संत हैं।
  • यद्यपि अकबर काल में लिखित “आइन-ए-अकबरी” और “मुंशियात-ए-फज़ल” में सूरदास जी से सम्बंधित कुछ जानकारी है किन्तु उनके सम्बंध में बहुत कम जानकारी प्राप्त है।
  • सूरदास जी जन्मान्ध थे अतः उन्हें अपने परिवार से कटुतापूर्ण बर्ताव मिला। उन्होंने 6 की उम्र में हमेशा के लिये अपने घर को छोड़ दिया। अठारह वर्ष की उम्र में उन्हें उनके गुरु श्री वल्लभाचार्य यमुना किनारे मिले। गुरु ने ही उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबन्ध किया।
  • सूरदास जी ने अपने जीवनकाल का अधिकतर समय वृन्दावन में व्यतीत किया और वहाँ उन्होंने एक लाख छंदों वाली रचना, जिनमें से अब केवल लगभग आठ हजार छंद ही ज्ञात हैं, “सूर सागर” लिखी वे ब्रजभाषा तथा भक्ति रस के अत्यन्त प्रभावशाली कवि थे। भगवान श्री कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति थी। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं – सूर सागर, सूर सारावली और साहित्य लहरी।
  • सूरदास जी आजन्म अविवाहित रहे और भजन गाकर जीविकोपार्जन करते रहे।

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